
मौसम विभाग ने उत्तराखंड में अगले 12 घंटे में भारी बारिश का अनुमान जताया है.
इससे पहले सोमवार, 11 जुलाई को मुनस्यारी में बादल फटे ओर उसमें 450 मवेशी बह गए. हालांकि इस दुर्घटना में किसी की मौत नहीं हुई है.
जब एक घंटे में 10 सेंटीमीटर तक बारिश हो तो इसे बादल फटना या क्लाउड बर्स्ट कहा जाता है.
पिथौरागढ़ और चमोली में एक जुलाई को 35 लोगों की भूस्खलन से मौत का सदमा अभी दूर नहीं हुआ है.
बादल फटने से 4 की मौत, कई गांव ज़मींदोज़उत्तराखंड के लिए ये प्राकृतिक आपदाएं नई नहीं हैं. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस जन-धन की हानि को रोका जा सकता है.
उनका कहना है कि बारिश को तो नहीं रोक सकते लेकिन इससे होने वाली तबाही को रोका जा सकता है.

उत्तराखंड मौसम विभाग के निदेशक बिक्रम सिंह कहते हैं, "वर्तमान में क्षेत्र विशेष को लेकर चेतावनी देने की कोई व्यवस्था नहीं है. लेकिन आधुनिक तकनीक और उपकरणों का इस्तेमाल करके इसे किया जा सकता है."
मौसम विभाग की योजना राज्य में 16 नए सरफ़ेस मीटियोरोलॉजिकल ऑब्ज़र्वेट्री लगाने की है. अभी राज्य में 24 एडब्ल्यूएस (ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन) और 5 डिपार्टमेंटल सरफ़ेस ऑब्ज़र्वेट्री हैं.
इसके अलावा देहरादून में एक अपर एयर साउंडिंग सिस्टम लगाया गया है जो वातावरण में विभिन्न ऊंचाइयों पर हवा, नमी आदि के रिकॉर्ड दर्ज करता है.
इसके अलावा क्षेत्रीय मौसम केंद्र सरकार से डॉप्लर राडार की मांग 2014 में ही कर चुका है जिनके मिलने के बारे में कोई साफ़ जानकारी नहीं है.
तीनों प्रकार के इन उपकरणों का एक तंत्र बनाकर यह संभव है कि शॉर्ट टाइम (15-30 मिनट) में ऐसे बादल के बारे में चेतावनी दी जा सकती है, जिससे भारी बारिश हो सकती है.
हिमालयी राज्यों यानि कि उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम में इस पूरे तंत्र को बनाने का ख़र्च करीब 400 करोड़ रुपये का होगा, जो राज्य सरकार को अभी तक नहीं मिला है.

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के संवेदनशील क्षेत्रों को चिह्नित किया है.
यूसैक (उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र) भी भूस्खलन के लिहाज़ से संवेदनशील क्षेत्रों को चिह्नित कर रहा है. राज्य सरकार के पास पहले से ही 350 से अधिक ऐसे गांवों की सूची है जिन्हें स्थानांतरित किया जाना है.
राज्य आपदा प्रबंधन केंद्र के निदेशक डॉक्टर पीयूष रौतेला कहते हैं, "अगर 15-30 मिनट में निश्चित स्थान पर भारी बारिश की सटीक चेतावनी मिल जाए तो लोगों की जान बचाना संभव है."
आज भी केंद्र छह स्थानों पर राहत और बचाव कार्यों के लिए हैलीकॉप्टर तैनात रखता है और विशेषकर बारिश के समय कई संवेदनशील स्थानों पर एनडीआरएफ़ और एसडीआरएफ़ दल राहत और बचाव के उपकरणों के साथ तैनात रहते हैं.
लेकिन पिथौरागढ़ और चमोली जैसे हादसों के समय अब भी राहत और बचाव में सबसे पहली चुनौती संचार सुविधाओं का टूट जाना बनती है.
डॉक्टर रौतेला बताते हैं, "बस्तड़ी हादसे की सूचना सुबह-सुबह ही मिल गई थी, लेकिन फ़ोन लाइनें टूट जाने और ओएफ़सी केबल कट जाने से सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी. उड़ान भी संभव नहीं थी और रास्ते भी बाधित हो गए थे."

पर्यावरणविद् डॉक्टर अनिल जोशी का कहना है कि अंधाधुंध निर्माण कार्य के कारण प्राकृतिक आपदाओं की तबाही बढ़ जाती है.
वो कहते हैं कि ऐसे हादसों के समय राहत और बचाव कार्य सबसे पहले हमेशा स्थानीय लोग ही कर सकते हैं. इसलिए केंद्र पिछले पांच सालों में पहाड़ी क्षेत्रों में 12,000 लोगों को राहत और बचाव कार्य का प्रशिक्षण दे चुका है.
लेकिन पर्यावरणविद् डॉक्टर अनिल जोशी सवाल खड़ा करते हैं, "जिन गांवों के संवेदनशील होने की जानकारी पहले से ही है उन्हें आधा घंटा क्यों महीनों पहले ही क्यों नहीं हटा दिया जाता."
वो कहते हैं, "इससे पहले जो आपदाएं आई हैं उनके पीड़ितों को अब तक ठीक से मुआवज़ा नहीं मिला, उनका विस्थापन ठीक से नहीं हो पाया है."
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