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…इसके बाद भारत में कभी चीता नहीं दिखा

आलोक प्रकाश पुतुल रायपुर से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए पिछले बुधवार को जब ईरान के शाहरुद में एशियाई चीते की एक तस्वीर सामने आई तो वन्य प्राणी विशेषज्ञों में हलचल पैदा हो गई. ईरान से लगभग तीन हज़ार किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के कोरिया ज़िले में भी कुछ लोग इस चीते पर चर्चा में […]

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पिछले बुधवार को जब ईरान के शाहरुद में एशियाई चीते की एक तस्वीर सामने आई तो वन्य प्राणी विशेषज्ञों में हलचल पैदा हो गई.

ईरान से लगभग तीन हज़ार किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के कोरिया ज़िले में भी कुछ लोग इस चीते पर चर्चा में जुटे थे.

बैकुंठपुर के चंद्रकुमार जायसवाल कहते हैं, "हमारे हिस्से अफ़सोस के अलावा कुछ भी नहीं है. जिस चीते को हमारे यहां होना था, अब हमारे पास उसकी ढंग की एक तस्वीर तक नहीं है."

असल में छत्तीसगढ़ का कोरिया, भारत का वो हिस्सा है, जहां भारत का आखिरी चीता मारा गया था.

वन्यजीव विशेषज्ञ मीतू गुप्ता कहती हैं, "बॉंबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के दस्तावेज़ों की मानें तो भारत में तीन अंतिम चीतों को 1947 में कोरिया के रामगढ़ गांव के जंगल से लगे इलाके में महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव ने मार गिराया था. रामानुज प्रताप सिंहदेव के निजी सचिव ने ही महाराज की तस्वीर के साथ पूरी जानकारी बॉंबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी को भेजी थी."

इसके बाद भारत में कभी भी चीता को नहीं देखा गया.

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अंततः 1952 में भारत सरकार ने चीता को विलुप्त प्रजाति घोषित कर दिया.

पिछले सवा सौ साल में चीता अकेला जंगली जानवर है, जो भारत सरकार के दस्तावेज़ों में विलुप्त घोषित किया गया.

लेकिन मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में कई सरकारों में मंत्री रहे रामानुज प्रताप सिंहदेव के बेटे रामचंद्र सिंहदेव इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि कोरिया में एक साथ मारे गये तीनों चीते, देश के आखिरी चीते थे.

वे कहते हैं, "जिस इलाके में अंतिम तीन चीता को मारे जाने की बात कही जाती है, उसी इलाके में दो साल बाद मैंने खुद चीता देखा है."

सिंहदेव का कहना है कि कुछ गांववालों के किसी जंगली जानवर द्वारा मारे जाने के बाद महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव उस जानवर को मारने के लिये पहुंचे थे.

उन्हें भी नहीं पता था कि कोई चीता, परिवार से भटक कर वहां पहुंच गया है.

सिंहदेव कहते हैं, "उस इलाके में कभी चीता आया नहीं. चीता तो ऐसी जगह रहता है, जहां वह दौड़ सकता है. जहां वह मारा गया, वहां घना जंगल था. वह भटक कर कहीं से आ गया होगा और रात के अंधेरे में शायद वो मारा गया. कौन उम्मीद करता था कि वहां चीता होगा. वह गलती से मारा गया."

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वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के मध्यभारत के प्रमुख, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद मिश्रा का मानना है कि कोरिया में मारे गये चीतों के बाद भारत में प्रामाणिक रूप से चीते की कोई तस्वीर नहीं मिली.

लेकिन कई इलाकों में ग्रामीण चीता के देखे जाने का दावा करते हैं.

मिश्रा के अनुसार, "छत्तीसगढ़ के ही अचानकमार के इलाके में बैगा आदिवासियों के साथ काम करते हुए मुझे चीता के होने की जानकारी मिली. इसके अलावा भी मध्यप्रदेश से सटे हुए हिस्से में चीता के देखे जाने संबंधी कुछ रिपोर्ट मिली हैं लेकिन यह सब केवल सुनी-सनाई बाते ही हैं."

तो क्या देश में चीता के फिर से देखे जाने की कोई उम्मीद है? यही सवाल हमने छत्तीसगढ़ के प्रधान वन संरक्षक (वन्य प्राणी) बी एन द्विवेदी से पूछा.

द्विवेदी ने छत्तीसगढ़ में चीता के इतिहास और उसके भविष्य को सिरे से टाल दिया.

उन्होंने कहा, "मुझे नहीं पता कि छत्तीसगढ़ में कोई चीता कभी था या वह मारा गया था. चीतों को फिर से बसाये जाने की योजना के बारे में भी मुझे जानकारी नहीं है. केंद्र सरकार की ऐसी किसी योजना की कोई सूचना मुझे नहीं है."

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लेकिन भारत में वन्यप्राणी संरक्षण कानून 1972 समेत देश की कई वन और वन्यजीव संबंधी कानून बनाने वाले वन व पर्यावरण विशेषज्ञ डॉक्टर एम के रणजीत सिंह मानते हैं कि भारत में चीता को फिर से बसाये जाने की उम्मीदें अभी बची और बनी हुई हैं.

भारत में वन्यप्राणी संरक्षण के पहले निदेशक रहे रणजीत सिंह कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट को ग़लत जानकारी दिए जाने के कारण चीता को बसाये जाने की योजना पर काम टलता चला गया है."

असल में मनमोहन सिंह की सरकार ने भारत में फिर से चीता को बसाने की योजना पर काम शुरु किया था.

इसके लिये दूसरे देशों से चीता लाने की योजना थी. योजना पर अमल के लिये मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में 10 स्थानों का आरंभिक रूप से चयन भी किया गया.

लेकिन चीता के लिये सर्वाधिक आदर्श माने जाने वाले मध्यप्रदेश के कुनो पालपुर में चीता बसाये जाने की योजना पर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए रोक लगा दी कि यहां गुजरात से सिंह को लाकर बसाने की योजना है.

सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने के भीतर सरकार को कार्ययोजना भी पेश करने के निर्देश दिये.

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इसके साथ ही भारत की धरती पर छलांग लगाते चीते को लाने की योजना टल गई.

भारत में फिर से चीता बसाने की संभावना पर वन विभाग और वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के साथ पिछले कई वर्षों से काम कर रही वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के निदेशक मंडल के सदस्य डॉक्टर रणजीत सिंह कहते हैं, "उम्मीदें अभी भी बची हुई हैं और चीता को भारत में फिर से बसाये जाने की योजना पर काम भी चल रहा है. लेकिन जिस कुनो पालपुर में छह महीने में सिंह बसाये जाने पर काम किया जाना था, वहां तीन साल बाद भी हालात जस के तस हैं."

गुफा चित्रों से लेकर राजा-महाराजाओं तक भारत में चीता का लंबा इतिहास रहा है.

मुगल बादशाह अक़बर के पास कम से कम एक हज़ार पालतू चीते हुआ करते थे, जिनका इस्तेमाल शिकार के लिये होता था.

जहांगीर ने लिखा है कि उनके पिता ने अपने जीवनकाल में नौ हज़ार चीतों को पाला था.

पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में भारत में चीतों का यह सुनहरा दौर माना जाता है.

भारत की छोटी-छोटी रियासतों में भी शिकार के लिये चीतों को पाला जाता था और बजाप्ता बैलगाड़ी में बैठा कर उन्हें शिकार के लिये जंगल ले जाया जाता था.

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ऐसे पालतू चीते, जंगल में हिरण समेत दूसरे जानवरों पर हमला कर उन्हें मार डालते थे.

पालतू चीते के प्रसव की पहली घटना जहांगीर के शासन काल में ही दर्ज की गई है, जहां पहली बार एक पालतू नर और मादा चीता के संपर्क में आने और तीन शावकों के जन्म के दस्तावेज़ उपलब्ध हैं.

पालतू चीता के प्रसव का दूसरा मामला 1956 में अमरीका के फिलाडेल्फिया चिड़ियाघर में दर्ज़ किया गया.

पालतू नर और मादा चीतों के संपर्क में नहीं आने के कारण इनकी जनसंख्या घटती चली गई.

हालत ये हो गई कि 1918 से 1945 तक अलग-अलग अवसरों पर कम से कम 200 अफ्रीकी चीतों को भारतीय राजा-महाराजाओं ने शिकार के लिये भारत आयात किया.

लेकिन समय के साथ ये चीते भी ख़त्म हो गये.

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