जीवन में सबसे अधिक अफसोस भलेपन की विफलताओं पर होता है
जॉर्ज सौंडर्स
आपका वह देदीप्यमान हिस्सा, जिसका अस्तित्व आपके व्यक्तित्व के परे है- उसे अपनी आत्मा कह लें- वह उतनी ही तेजस्वी है, जितनी कभी किसी की भी रही है. शेक्सपियर की आत्मा जितनी, गांधी की आत्मा जितनी, मदर टेरेसा की आत्मा जितनी. जो भी चीजें आपको इस गुप्त और दीप्त स्थल से अलग करती हैं, आप उनसे अलग हो जायें. उसके अस्तित्व में यकीन करें, उसे भलीभांति जानें, उसका पोषण करें, उसके फल अथक रूप से साझा करते रहें. पढ़िए प्रेरक भाषण की छठी कड़ी.
युगों-युगों से ऐसे दीक्षांत व्याख्यानों के लिए एक परंपरा सी बन गयी है : कोई वृद्ध व्यक्ति, जिसके सर्वोत्तम वर्ष कहीं पीछे छूट चुके हों और जिसने अपनी जीवन यात्रा में अनेक भयानक भूलें की हों (जिस भूमिका में मैं हूं), प्रतिभावान और ऊर्जाभरे ऐसे युवाओं को अपनी हार्दिक सलाहें देता है, जिनके सर्वोत्तम वर्ष आगे आनेवाले हैं (जिस भूमिका में आप हैं).
और मेरी मंशा है कि मैं इस परंपरा का सम्मान करूं. एक वृद्ध व्यक्ति से आप अपने लिए पैसे उधार मांगने और उसे अपने वक्त के पुराने डांस करने को कहने, ताकि आप हंसते हुए उसे देखने के आनंद उठा सकें, के अलावा उसके साथ एक अन्य उपयोगी काम यह कर सकते हैं कि आप उससे पूछें : ‘पीछे देखने पर आप किस चीज के लिए अफसोस महसूस करते हैं?’ और वे आपको इसका उत्तर देंगे. जैसा आप जानते हैं, कभी तो वे आपके पूछे बगैर ही आपको यह बतायेंगे, और कभी-कभी तो जब आपने उन्हें इसे न बताने के लिए खास विनती की होगी, फिर भी वे बिन बताये नहीं रहेंगे.
तो, मुझे किस चीज पर अफसोस होता है? कभी-कभी गरीबी के अनुभव के लिए? नहीं, ऐसा नहीं है. मेरे द्वारा कुछ भयानक जॉब करने के लिए, जैसे ‘एक वधशाला में गोश्त से हड्डियां अलग करनेवाले का जॉब?’ (कृपया मुझसे यह न पूछें कि उसमें क्या करना पड़ता है.) नहीं. मुझे उसका भी पछतावा नहीं है.
थोड़े नशे की हालत में सुमात्रा की एक नदी में नग्न होकर तैरते वक्त एकाएक ऊपर देखने पर यह पाना कि एक पाइपलाइन पर लगभग 300 बंदर बैठे हैं और उसी नदी में शौच कर रहे हैं, जिसमें मैं अपना मुंह खोले तैर रहा हूं? और उसके बाद, मेरे बुरी तरह बीमार पड़ने और अगले सात महीनों तक बीमार ही रहने के लिए?
बहुत ज्यादा नहीं. तो फिर क्या कभी-कभी अनुभूत हुई बेइज्जती पर? जैसी एक बार एक बड़ी भीड़ के सामने- जिसमें वह लड़की भी बैठी थी, जिसे मैं वास्तव में पसंद करता था- हॉकी खेलते वक्त चिल्लाते हुए गिरने, अपने ही गोलपोस्ट में गोल कर देने और मेरी स्टिक का उड़ते हुए भीड़ में उसी लड़की को छूते हुए जा गिरने पर? नहीं. मुझे उस पर भी अफसोस नहीं होता. मगर एक ऐसी चीज है, जिसके लिए मुझे अफसोस होता है.
हमारी सातवीं कक्षा में एक नयी लड़की आयी थी. गोपनीयता के लिए इस भाषण में उसका नाम एलेन रख लेते हैं. एलेन छोटी और शर्मीली थी. वह बिल्लियों की आंखों जैसे नीले रंग के चश्मे पहना करती, वैसे ही, जैसे उस वक्त केवल बूढ़ी औरतें पहनती थीं. वह जब कभी घबरायी सी होती, जो वह प्रायः ही हुआ करती थी, तो अपने बालों की एक लट अपने मुंह में रख लेती और उसे चबाया करती.
वह हमारे पड़ोस में रहने और हमारे स्कूल में पढ़ने आ गयी और प्रायः उस पर कोई गौर नहीं करता, अलबत्ता, कभी-कभी उसे कुछ कह कर चिढ़ाया जाता (‘तुम्हें बाल स्वादिष्ट लगते हैं?’- और इसी तरह की चीजें). मैं देखता कि यह उसे बुरा लगता था. मुझे अब भी याद है कि इस तरह के अपमान के बाद वह कैसी दिखती थी : आंखें नीचे झुकी हुईं, मानों अभी-अभी अपनी स्थिति का बोध होने के बाद वह अदृश्य हो जाने की कोशिश कर रही हो. कुछ देर बाद वह धीरे-धीरे अलग हट जाती, जबकि बाल की लट तब भी उसके मुंह में ही बनी रहती. मैं कल्पना किया करता, उसके घर पर उसकी मां पूछती होगी : ‘तुम्हारा दिन कैसा रहा, बेटी?’ और उसका उत्तर होता होगा: ‘ओह, अच्छा सा.’ और उसकी मां कहती होगी, ‘क्या किसी को दोस्त बनाया?’ और वह बोलती होगी, ‘बिल्कुल, कई सारे.’
कभी-कभी मैं उसे अपने घर के अगले अहाते में देर तक अकेले यूं ही घूमते हुए देखता, जैसे उसे छोड़ने में उसे भय हो रहा हो.
और फिर, एक दिन वे लोग वहां से चले गये. बस इतना ही हुआ. कोई त्रासदी नहीं, कोई अंतिम विदाई नहीं. एक दिन वह वहां थी, अगले दिन नहीं थी. कहानी खत्म.
पर अब, मुझे इस पर अफसोस क्यों होता है? क्यों 42 वर्षों बाद मैं अब भी इस बारे में सोच रहा हूं? दूसरे बच्चों की अपेक्षा मैं वस्तुतः उसके प्रति काफी भला था. मैंने कभी उससे कोई बुरी लगनेवाली बात नहीं कही. सच तो यह है कि कभी-कभी मैं उसका बचाव (हलके से) भी किया करता.
लेकिन फिर भी, एलेन की यह स्मृति मुझे कुरेदती रहती है. यह कुछ ऐसी चीज है, जिसके विषय में मुझे मालूम है कि यह सच है, हालांकि यह थोड़ी भावुकतापूर्ण है, और मुझे नहीं पता कि इस संबंध में मैं क्या करूं.
मुझे मेरे जीवन में सबसे अधिक अफसोस भलेपन की विफलताओं पर होता है, यानी वे पल, जब एक अन्य मानव प्राणी मेरे सामने मौजूद पीड़ा भुगत रहा था और मैंने उसका प्रत्युत्तर… सोच-समझ कर… झिझकते हुए… हलके से दिया करता था.
या फिर, यदि इसे हम दूरबीन के दूसरे सिरे से देखें : आपके जीवन में ऐसे कौन लोग हैं, जिन्हें आप सबसे अधिक प्रेम से, सबसे ज्यादा भावभरे ढंग से याद करते हैं? मैं शर्त लगा सकता हूं कि वे वही होंगे, जो आपके प्रति सबसे भले थे.
हालांकि, संभवतः यह समझना सहज है, मगर इसका क्रियान्वयन निश्चित रूप से कठिन है, फिर भी जीवन के एक ऐसे लक्ष्य के रूप में इसे अपना लें, जिसमें आपको थोड़े अपूर्ण रह जाने की भी इजाजत मिलेगी : अधिक भले होने की कोशिश करें.
अब, सबसे बड़ा सवाल: आखिर हमारी समस्या क्या है? हम क्यों अधिक भले नहीं हो पाते? मेरी समझ से इसका उत्तर यह है: हममें से हर एक के अंदर कुछ अंतर्निहित भ्रमों की एक शृंखला जैसी मौजूद होती है, जो हममें एक प्रजातिगत लक्षण के ही रूप में समाहित है. ये हैं : (1) हम इस ब्रह्मांड में सबसे अहम हैं (यानी हमारी व्यक्तिगत कहानी ही मुख्य तथा सबसे दिलचस्प और, वास्तव में, एकमात्र कहानी है); (2) हम इस ब्रह्मांड से अलग हैं (मतलब, यह हमलोग हैं, और वह वहां बाकी सारी बेमतलब चीजें- कुत्ते, वे झूले, वह राज्य, वे बादल, दूसरे लोग…), और (3) हमलोग स्थायी हैं (मृत्यु वास्तविक है, सत्य है- आपके लिए, न कि मेरे लिए).
हम इन चीजों में सचमुच यकीन नहीं करते- बौद्धिक रूप से तो सच्चाई हमें पता ही है- किंतु हमारी भावना यही रहती है, हम इन्हीं के सहारे जीते हैं और इन्हीं की वजह से हम अपनी जरूरतों को दूसरों की जरूरतों से ऊपर मान बैठते हैं. यद्यपि हम दिल-ही-दिल में यह चाहते हैं कि हम थोड़े कम स्वार्थी हों, वर्तमान पल में जो हो रहा है, उसके प्रति अधिक जागरूक, अधिक खुले, और ज्यादा प्यारभरे हों.
तो, अब दूसरा सबसे बड़ा सवाल : हम इसे कैसे कर सकते हैं? कैसे हम ज्यादा प्यारभरे, ज्यादा खुले, कम स्वार्थी, अधिक वर्तमान, कम भ्रमपूर्ण, इत्यादि, इत्यादि बनें?
हां, यह एक अच्छा प्रश्न है, मगर दुर्भाग्य से मेरे पास अब केवल तीन ही मिनट बचे हैं. इसलिए मुझे सिर्फ यही कहने दें कि इसके रास्ते मौजूद हैं. आप इन्हें पहले ही से जानते हैं, क्योंकि आपके जीवन में भी अधिक भलेपन की अवधियां और कम भलेपन की अवधियां रही हैं, और आप यह जानते हैं कि किन चीजों ने आपको पहले की ओर तथा दूसरे से दूर जाने को प्रेरित किया.
शिक्षा यह करती है; खुद को किसी कलात्मक सृजन में डुबो देना यह करता है; प्रार्थना इसे करती है; ध्यान यह करता है; किसी प्रिय मित्र के साथ खुले दिल की एक बातचीत इसे कर दिखाती है; स्वयं को किसी किस्म की आध्यात्मिक परंपरा में स्थापित करने से यह होता है- यह इसे समझने से होता है कि हमारे पूर्व भी बेशुमार ज्ञानवान लोग इस पृथ्वी पर रह चुके हैं, जिन्होंने यही सारे सवाल उठाये और हमारे लिए उसके उत्तर छोड़ गये.
क्योंकि भलापन, हमें पता चलता है, कठिन है- यह इंद्रधनुषों और कुत्तों के प्यारे-प्यारे बच्चों से आरंभ होता है और फैलते-फैलते… सभी चीजों को समाहित कर लेता है.
एक चीज हमारे पक्ष में है : इस ‘भले होने’ में कुछ चीजें उम्र के साथ सहज ही सध जाती हैं. यह एक सरल सा बदलाव होता है : हम जैसे-जैसे पुराने पड़ते जाते हैं, हमें यह अहसास होने लगता है कि स्वार्थी होना कितना बेमतलब, वस्तुतः कितना अतार्किक, होता है. हम दूसरे लोगों को प्यार करते हुए अपनी अहमियत के बोझ को थोड़ा कम करना सीख लेते हैं.
जीवन की वास्तविकताएं हमें ठोकरें लगाती हैं और लोग हमारे बचाव में, हमारी मदद में आते हैं. तब हम सीखते हैं कि हम अलग-थलग नहीं हैं, तब हम अलग होना नहीं चाहते. हम अपने निकटजनों को, प्रियजनों को विदा लेते देखते हैं और धीरे-धीरे हमें पूरा यकीन हो जाता है कि संभव है, मेरे लिए भी विदा लेने की घड़ी आ जाये (कभी बाद में, अब से काफी दूर). ज्यादातर लोग उम्र बढ़ने के साथ कम स्वार्थी और अधिक प्रेमपूर्ण हो जाते हैं. मैं समझता हूं यह सच है. साइराक्यूज के महान कवि हेडन कैरुथ ने अपने जीवन के अंत में एक कविता लिखी कि वे ‘अब, अधिकांशतः, प्रेममय हो चुके’ हैं.
इसलिए, एक भविष्यवाणी और आपके लिए मेरी हार्दिक इच्छा : जैसे-जैसे आपकी उम्र में इजाफा होता जाता है, आपका स्व घटता और प्रेम बढ़ता जायेगा. आप की जगह क्रमशः प्रेम लेता जायेगा.
यदि आपके बच्चे होते हैं, तो वह आपके स्व-विघटन की प्रक्रिया में बड़ा पल होगा. जब तक उन्हें फायदा पहुंच रहा हो, आप इस पर गौर नहीं करेंगे कि आपको क्या होता है. यह भी एक वजह है कि आपके माता-पिता आज इतने गौरवान्वित और प्रसन्न हैं. उनकी सबसे प्रिय इच्छाओं में एक आज फलीभूत हुई : आज आपने कुछ कठिन और साफ दिखनेवाली चीज हासिल कर ली, जिसने आपको एक व्यक्ति के रूप में बड़ा कर दिया है और जो आगे आपका जीवन बेहतर करती जायेगी.
इसी मौके पर, आपको मेरी बधाई भी.
अपने छुटपन में हम यह सुनिश्चित करने को चिंतित रहते हैं- जो स्वाभाविक ही है- कि हमने जो दिया, वह हमें मिल जाये. क्या हम सफल होंगे? क्या हम अपने लिए एक टिकने योग्य जीवन सृजित कर सकेंगे? मगर आप, खासकर इस पीढ़ी के आप, ने यह पाया होगा कि महत्वाकांक्षाओं में एक खास चक्रीय गुण होता है. आप हाइस्कूल में अच्छा करते हैं, ताकि एक अच्छे कॉलेज में प्रवेश पा जायें, कॉलेज में अच्छा करना चाहते हैं, ताकि एक अच्छा जॉब हासिल कर सकें, जॉब में अच्छा करना चाहते हैं, ताकि…
और वस्तुतः यह ठीक भी है. यदि हम अधिक भले होने जा रहे हैं, तो उस प्रक्रिया में हमें खुद को गंभीरता से लेना भी शामिल है- कर्ता के रूप में, उपलब्धि हासिल करनेवाले के रूप में, सपने देखनेवाले के रूप में. वह हमें करना ही पड़ता है, ताकि हम अपना सर्वोत्तम स्वरूप हासिल कर सकें.
इसके बावजूद, उपलब्धि भरोसेमंद नहीं होती. ‘सफलता,’ वह आपको चाहे जो भी लगती हो, कठिन होती है और उसे हमेशा खुद को नयापन देते रहना पड़ता है (सफलता एक पर्वत की तरह होती है, आप जैसे-जैसे उसके निकट पहुंचते हैं, वह बड़ा होता जाता है), और इसमें एक बहुत वास्तविक खतरा होता है कि ‘सफलता’ आपका पूरा जीवन ले लेगी और जीवन के बड़े प्रश्न वैसे-के-वैसे ही छूट जायेंगे.
इसलिए, इस खोज की शीघ्र समाप्ति के लिए एक सलाह : चूंकि, मेरे मुताबिक, आपका जीवन ज्यादा भला, ज्यादा प्रेमपूर्ण होने की क्रमशः घटित होनेवाली प्रक्रिया होने जा रहा है, सो इसे जल्दी करें, इसे तेज करें. इसी पल प्रारंभ करें. हम सब में एक भ्रम, वस्तुतः एक बीमारी होती है : स्वार्थपरता. मगर इसका उपचार भी है. इसलिए एक अच्छे, सक्रिय तथा खुद ही एक उतावले मरीज बन जायें- अपने पूरे जीवन में स्वार्थपरता की सबसे अचूक दवा की अथक खोज करते रहें.
बाकी सारी चीजें, अपनी महत्वाकांक्षा की चीजें करते रहें- यात्राएं करना, समृद्ध बनना, नाम कमाना, नवोन्मेष करना, नेतृत्व करना, किसी से प्यार कर बैठना, नफा-नुकसान हासिल करना… मगर यह सब करते वक्त, अपनी शक्तिभर, भले होने के अतिरेक की गलती करते रहें. वे चीजें करें, जो आपको बड़े सवालों पर लाती हैं, और उनसे बचें, जो आपको छोटा और क्षुद्र करती हैं.
आपका वह देदीप्यमान हिस्सा, जिसका अस्तित्व आपके व्यक्तित्व के परे है- उसे अपनी आत्मा कह लें- वह उतनी ही तेजस्वी है, जितनी कभी किसी की भी रही है. शेक्सपियर की आत्मा जितनी, गांधी की आत्मा जितनी, मदर टेरेसा की आत्मा जितनी. जो भी चीजें आपको इस गुप्त और दीप्त स्थल से अलग करती हैं, आप उनसे अलग हो जायें. उसके अस्तित्व में यकीन करें, उसे भलीभांति जानें, उसका पोषण करें, उसके फल अथक रूप से साझा करते रहें.
और 80 वर्षों बाद, एक किसी दिन, जब आप 100 के होंगे और मैं 134 का, और हम दोनों इतने प्रेममय हो चुके होंगे कि लगभग असहनीय बन जायें, मुझे एक पंक्ति लिख भेजें, मुझे बताएं कि आपका जीवन कैसा रहा. मुझे उम्मीद है आप कहेंगे : यह कितना शानदार रहा.
2013 की आपकी इस कक्षा को बधाई! मैं आपकी बेइंतहा खुशी की, दुनियाभर के सौभाग्य की और एक सुंदर ग्रीष्म की कामना करता हूं. (यह भाषण 11 मई, 2013 को साइराक्यूज यूनिवर्सिटी, साइराक्यूज, न्यूयॉर्क, यूएसए में दिया गया था.)
(अनुवाद : विजय नंदन)
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संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास में पैदा हुए जॉर्ज सौंडर्स लघु कहानियों, निबंधों, उपन्यासों तथा बच्चों की पुस्तकों के लेखक हैं. वह साइराक्यूज यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक भी हैं.
उनकी रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द न्यूयॉर्कर’, ‘हार्पर्स’, मैकस्वीनी और जीक्यू में प्रकाशित होती हैं. उन्हें अपनी कहानियों के लिए नेशनल मैगजीन एवार्ड, ओ हेनरी एवार्ड, द स्टोरी प्राइज, फोलियो प्राइज, ब्रैम स्टोकर एवार्ड मिल चुका है. उन्हें वर्ष 2006 में मैकआर्थर फेलोशिप और वर्ष 2013 में पेन/मलामुड पुरस्कार प्राप्त हुआ है.