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कोटा में डर पैदा करता बिहार टाइगर
कोटा में लगभग सभी राज्यों के छात्र हैं. पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक. फर्क इतना है कि बिहार, यूपी और झारखंड के छात्रों की अधिकता है, पर बिहार के छात्रों को लेकर अलग तरह की धारणा है. दूसरे किसी भी राज्य के छात्रों के बारे में कोई शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी, […]
कोटा में लगभग सभी राज्यों के छात्र हैं. पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक. फर्क इतना है कि बिहार, यूपी और झारखंड के छात्रों की अधिकता है, पर बिहार के छात्रों को लेकर अलग तरह की धारणा है. दूसरे किसी भी राज्य के छात्रों के बारे में कोई शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी, जबकि बिहार के छात्रों को लेकर शिकायतें आम हैं. यह बिहारियों के लिए आत्मचिंतन का विषय है.
कोटा से अजय कुमार
कोटा में ‘देश’ दिखता है. पर चरचा बीटी (बिहार टाइगर) गैंग की होती है. यह कोई कुख्यात संगठित आपराधिक गिरोह नहीं है, पर कोटा के आम जीवन में इसका खौफ है. वर्ष 2000 के आसपास बिहारी छात्रों ने इसका गठन इस मकसद से किया था कि अपने राज्य से आये स्टूडेंट्स को कोचिंग संस्थानों में एडमिशन में सहायता, उन्हें हर तरह का समर्थन और पढ़ाई-लिखाई में मदद मिले. लेकिन, इन दिनों बीटी का मतलब मारपीट, हंगामा, उदंडता और मनुष्येत्तर व्यवहार करने वाला गैग है. बिहार से आये कुछ छात्रों (सभी नहीं, बहुत थोड़े) का एक ग्रुप है जो दबंगई करता है. यही दबंगता अापराधिक गतिविधियों में कब बदल जाती है, इसका पता नहीं चलता. यह धारणा के स्तर पर कुछ ज्यादा है.
12 मई को बिहारी छात्रों के दो गुटों की लड़ाई में एक छात्र की हत्या के बाद बीटी गैंग सुर्खियों में आया. इस गैंग को चलानेवाला हत्या के इसी मामले में जेल में है. वह 2010-11 में समस्तीपुर से कोटा आया था. किसी प्रतियोगी परीक्षा में पास नहीं हो सका. उसने छोटा-मोटा क्राइम करना शुरू किया.
फिर बिहारी छात्रों का स्वयंभू नेता बन गया. पुलिस ने जब उसे गिरफ्तार किया, तो उसके पास से दो दर्जन मोबाइल और कई लैपटॉप बरामद हुए थे. स्थानीय जानकारों के मुताबिक, बीटी गैंग के डेढ़-दो सौ मेंबर हैं, जो एक इशारे पर इकट्ठा होकर कहीं भी पहुंच जाते हैं. इनके पास महंगी मोटर साइकिल, मोबाइल वगैरह होना भी कई सवाल खड़े करता है. वर्ष 2000 के गठन के बाद से बीटी गैंग की कमान बदलती रही है.
हर महीने लाखों का चंदा: बीटी गैंग बिहारी छात्रों से चंदे के रूप में हर महीने लाखों की उगाही करता है. आम छात्र बिहारी बोध से प्रेरित होकर कुछ पैसे बतौर चंदा देते हैं. यह गैंग बिहार से गये छात्रों को प्रोटेक्शन देने के नाम पर चल रहा है.
एडमिशन कराने, रियायती दर पर हॉस्टल और मेस की सुविधा दिलाने में इस गैंग के मेंबर ‘मदद’ करते हैं. आम कोटा वालों की नजर में कुछ छात्रों के चलते बिहार को बदनामी झेलनी पड़ रही है. ये ऐसे छात्र हैं,जिन्हें पढ़ने-लिखनेसे मतलब नहीं है. हालांकि अनेक बिहारी छात्रों ने कहा कि उनका बीटी से कोई वास्ता नहीं है और वे चंदा वगैरह भी नहीं देते.
कुछ खराब, बदनाम होता है बिहार : कॅरियर संबंधी प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग चलाने वाले अशोक सिंह और आरिफ मोहम्मद का मानना है कि दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार के छात्रों को लेकर नजरिया ठीक नहीं है.
दरअसल, बिहार के कुछ छात्रों की वजह से पूरा बिहार बदनाम हो रहा है. ये ऐसे छात्र हैं, जो दो-तीन अटेम्ट में परीक्षा नहीं निकाल सके. उनके लिए घर जाना मुश्किल होता है. वे यहीं रहकर किसी को एडमिशन, हॉस्टल दिलाने जैसे काम के बहाने अपने राज्य के छात्रों से पहचान बढ़ाते हैं. वे मानते हैं कि सारे बिहारी बच्चे खराब नहीं हैं. बिहार के बच्चों से ही कोचिंग कारोबार में रोनक हैं. लेकिन कुछ बच्चों के चलते बदनामी होती है.
छात्रों का रिकॉर्ड जुटा रही पुलिस : बीटी गैंग की सक्रियता और हत्या की घटना के बाद पुलिस यहां के हॉस्टल और पीजी में रहने वाले छात्रों का रिकॉर्ड जुटा रही है. इसके लिए एक प्रोफार्मा हॉस्टल के संचालकों के पास भेजा गया है. कोचिंग संस्थानों से भी छात्रों का ब्योरा मांगा गया है. पुलिस यह पता करना चाहती है कि कौन छात्र लंबे समय से कोटा में रह रहा है. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि किसी भी जगह के छात्र आपसी जान-पहचान होने या एक क्षेत्र का होने के चलते ग्रुप बना लेते हैं. आम लोग हों या पुलिस के अधिकारी, सब कहते हैं, कुछ बिहारी छात्रों के चलते उनका काम बढ़ गया.
अभिभावक होते सतर्क, तो ऐसी नौबत नहीं आती : स्थानीय अखबार के संपादक प्रदीप पांडेय कहते हैं, पुलिस रिकॉर्ड में बिहार टाइगर गैंग का अस्तित्व है.
राजस्थान के डीजीपी ने भी कोटा में चलनेवाले बिहारी लड़कों के गैंग का हाल ही में उल्लेख किया था. पर फोकस इस बात पर होनी चाहिए कि बिहार के छात्रों ने ऐसा संगठन क्यों बना लिया. इसके लिए अभिभावकों को अपने बच्चों पर लगातार निगरानी रखनी होगी. उनकी काउंसिलिंग होनी चाहिए. उन्हें समझना होगा कि वह क्या कर सकता है और क्या नहीं? इसे समझे बगैर पैरेंट्स अपने बच्चों को देखा-देखी में यहां भेज देते हैं. वे बताते हैं कि आखिर बिहार के छात्रों की छवि ऐसी क्यों हैं?
हां, बिहार टाइगर है यहां: भाजपा विधायक
बिहार के छात्रों के बारे में दिये गये अपने विवादास्पद से चरचा में आये भाजपा के स्थानीय विधायक भवानी सिंह राजावत कहते हैं: बिहार टाइगर फोर्स का गठन वहां के कुछ लड़कों ने किया है. वे बिहारी छात्रों को प्रोटेक्शन देने की बात करते हैं. हॉस्टल वगैरह थोड़े कम पैसे में दिलाते हैं. नामांकन कराते हैं. आप कैसे कह सकते हैं कि बिहार के छात्रों ने गैंग बनाया है?
राजावत कहते हैं: यह पुलिस रिकॉर्ड में हैं. चाहे तो आप पुलिस से पूछ सकते हैं. लेकिन आपने बिहारी छात्रों को भगाने की बात क्यों कह दी? राजावत कहते हैं, मेरी बात गलत तरीके से रखी गयी. हमने सभी आपराधिक प्रवृत्ति के छात्रों को कोटा से बाहर करने की बात कही थी. पर उसे केवल बिहार के संदर्भ में देखा गया. बिहार के बच्चे बेहद इंटेलीजेंट होते हैं. भला मैं क्यों कहूंगा कि बिहारियों को कोटा से भगाओ? इन्हीं छात्रों के भरोसे कोटा का विकास हो रहा है.
बिहार टाइगर का कोई वजूद नहीं: एसपी
कोटा के एसपी सबाई सिंह गोदारा कहते हैं, बीटी गैंग के अस्तित्व में होने की बातें पूरी तरह बकवास है. पर जब हमने उनसे कहा कि कोटा के अनेक लोग बातचीत में ऐसा ही मानते हैं, तो एसपी गोदारा की प्रतिक्रिया थी: मीडिया के चलते यह धारणा बनी है. इसके जिम्मेदार आपलोग (मीडिया वाले) हैं. उनका कहना है, ‘ कोटा में बिहार के जो बच्चे पढ़ने आते हैं, उनमें आपराधिक प्रवृत्ति अन्य राज्यों के बच्चों की तुलना में ज्यादा हो, ऐसा कतई नहीं है. लाखों की संख्या में यहां बच्चे रहते हैं, उनमें आपराधिक प्रवृत्ति या अपराध करने से इनकार नहीं किया जा सकता.
उन्होंने कहा कि हाल की घटना को छोड़ दें, तो किसी चेन स्नैचिंग या दूसरी आपराधिक घटनाओं में बिहार के छात्रों का नाम नहीं आया है. बिहारियों ने तो बिहार टाइगर नाम से संगठन बनाया है और न ही कोई गैंग चल रहा है. उनका दावा है कि होने वाली आपराधिक घटनाओं में बिहारी छात्रों का नाम (एकाध घटनाओं को छोड़ कर) नहीं आया है.
कोचिंग क्लासेस, लौटकर पढ़ाई, फिर क्लासेस…
विद्यार्थी का नजरिया- 3
सोनम बाला
इस भागमभाग की जिंदगी में खुद के लिए वक्त मिलना बहुत मुश्किल होता है. अगर कोई दिन खाली मिलता, तो वह होता रविवार का दिन. क्लास से छुट्टी. मगर, हर अगले रविवार नियमित रूप से परीक्षा होती और परीक्षाफल आधुनिक तकनीक के जरिये घर भिजवा दिये जाते. नंबर देख कर कई बार डांट-फटकार
मिलती, पर घर से कभी इतना दबाव नहीं डाला गया. अंततः सब मुझ पर छोड़ा गया था, क्योंकि आगे जीवन भी मेरा था. शिक्षक भी कमजोर से कमजोर विद्यार्थी को कम नंबर आने के बावजूद उत्साहवर्धन करते रहते थे. बचपन से हर बात में खुली छूट दी गयी थी. कोई अनावश्यक रोक-टोक नहीं. हां, जरूरत से ज्यादा उड़ान भरने पर बाद में डांट जरूर मिली, फिर भी पर नहीं कतरे गये. शायद इसी परवरिश का नतीजा था कि एक अनजान शहर में खुद को संभाले रखने की हिम्मत ने कभी जवाब नहीं दिया. पर, हर घर इतनी खुली सोच नहीं रखता, इसका पहला एहसास कोटा जाकर हुआ. व्यवहार जल्दी ही घुलने-मिलने वाला था, सो नये दोस्त बनने में देर नहीं लगे. जितने नये दोस्त बने, उतनी नयी बातें सीखने को मिलीं, पर सबमें एक बात समान. हर किसी को अपनी एक मेडिकल की सीट पक्की चाहिए थी.
कई बार तो विद्यार्थियों से ज्यादा अभिभावकों को अपने बच्चों के लिए ललक थी एक मेडिकल सीट की. बच्चे क्या चाहतें हैं किसी ने पूछा ही नहीं. अगर सपने अपने न हों, तो उन्हें अपनाने में वक्त लगता है. एक तो नये शहर में खुद को संभाले रखने का जिम्मा और उससे भी बड़ी जिम्मेदारी अपने अभिभावकों के सपने पूरे करने की. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है इसे निभा पाने की. अधिकतर खो जाते हैं चहल-पहल में. जब होश आता है तो वक्त नहीं रहता, बस दिखाई पड़ता है एक अंधेरा जीवन. ऐसे मुश्किल हालात में जब घर से नंबर कम होने को लेकर फोन आता है, बहुतों की हिम्मत जवाब दे जाती है.
कई बार तो घर से कोचिंग में दिये गये बड़ी रकम और उसके अंजाम का हिसाब मांगा जाता है. कोई आशा की किरण नहीं दिखती. बस ख्याल आता है अपनी नाकामी का. इस भीड़ में सच्चे दोस्त कम ही मिलते हैं. कोई समझाने वाला पास नहीं होता. ऐसे में जब घरवाले भी मुंह मोड़ें तो अधिकतर विद्यार्थी ‘आत्महत्या’ जैसे कठोर कदम की तरफ रूख करते हैं. ये एक ऐसा रास्ता होता है, जहां आगे कोई जवाब नहीं मांगता. उन विद्यार्थियों के ख्याल में ये आजादी का सबसे आसान तरीका होता है. वो आजादी, जो न उन्हें अपना करियर चुनने में मिली, न किसी अन्य फैसले में. जिस कोटा में हजारों बच्चे अपने सपने के साथ शीश झुकाने आते हैं, वही कोटा अब एक गहरा कुआं लगने लगता है.
पर क्या इस हालत का जिम्मेवार वाकई ये शहर है? कोटा के अखबारों में आये दिन ‘सुसाइड नोट’ छपते रहते हैं. बढ़ते आत्महत्याओं को देख कर प्रशासन भी आये दिन कोचिंग संस्थानों को नोटिस भेजता रहता है. संस्थान अपनी ओर से कई कदम उठाते हैं. कई हेल्पलाइन, कई काउंसेलर अवसादग्रस्त बच्चों की मदद में दिन-रात लगे रहते हैं. कई बार काउंसेलर विद्यार्थियों के हॉस्टल तक आते हैं, ताकि बच्चे पर निगरानी रखी जा सके और किसी अनहोनी को टाला जा सके.
‘एलेन’ ने बढ़ते तनाव को देखते हुए एक बार विद्यार्थियों के लिए ‘फन-डे’ का भी आयोजन किया था. एक रात के भीतर इस बड़े आयोजन में विद्यार्थियों के साथ शिक्षक भी जम कर नाचे थे. माहौल खुशनुमा-सा बन गया था. विद्यार्थियों के लिए ‘एलेन’ ने ‘एएसडब्ल्यूएस’ नाम से विद्यार्थियों के लिए एक संगठन भी खोल रखा है, जिसका लक्ष्य विद्यार्थियों की हर परेशानी का समाधान करना है, ताकि विद्यार्थी सारी चिंताएं भुला कर पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर सकें.
अब इन हालात में भी अगर आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, तो इसका कारण कहीं-न-कहीं कमजोर परवरिश और अभिभावकों की ओर से मिलने वाला दबाव है. हमारे समाज की पुरानी आदत है बिना अपने गिरेबान मे देखे, किसी भी चीज पर दोषारोपण करना. आत्महत्याओं के लिए कोटा को जिम्मेदार ठहराना भी ठीक वैसा ही है. जरूरत है एक मजबूत परवरिश की, अपने बच्चों को पूरी आजादी देने की, उन पर भरोसा करने की. आत्महत्याएं खुद-ब-खुद रूक जायेंगीं.
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