बल्देव भाई शर्मा
दो दिन बाद देश में गंगा दशहरा की धूम होगी. ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी को हर वर्ष गंगा दशहरा मनाया जाता है. पुराणों में वर्णित कथाक्रम के अनुसार माना जाता है कि इसी दिन धरती पर गंगा मैया का अवतरण हुआ था. ऋग्वेद में कहीं-कहीं गंगा का उल्लेख आया है, लेेकिन पुराणों में तो गंगा अवतरण की कथा का बड़ा रोमांचक वर्णन हुआ है.
महाप्रतापी राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ संपन्न कर अश्वमेघ का घोड़ा छोड़ने की तैयारी की. यह घोड़ा चारों तरफ दूर-दूर के राज्यों में घूम कर यदि वापस अपनी राजधानी में लौट आये और किसी के द्वारा पकड़ा न जाये, तो माना जाता था कि अश्वमेघ करने वाला राजा चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि वाला हो गया. इसके विपरीत यदि किसी राजा ने उस घोड़े को पकड़ लिया, तो इसे चुनौती मान कर घोड़े की पीछे चल रहा सैन्य दल उस राजा से युद्ध करता था और उसे पराजित कर घोड़े को मुक्त करा आगे बढ़ता था. यदि सैन्य दल उस राजा को परास्त कर घोड़ा नहीं छुड़ा सकता, तो अश्वमेघ करने वाला राजा का चक्रवर्ती होना संभव नहीं था.
जब राजा सगर अश्वमेघ का घोड़ा छोड़ने की सारी तैयारी पूरी कर चुके तो उससे पहले रात्रि में ही देवराज इंद्र ने राजा की अश्वशाला से घोड़े को चुरा लिया. सगर के पराक्रम से इंद्र डरा हुआ था कि यदि वह चक्रवर्ती सम्राट बन गया तो आगे चल कर कहीं वह स्वर्ग पर भी कब्जा कर इंद्रासन न छीन ले. इसलिए अश्वमेघ में बाधा डालने के लिए इंद्र ने घोड़ा चुरा कर दूर कपिल मुनि के आश्रम में घोड़े को चुपके से बांध दिया. इधर सुबह घोड़ा छोड़ने के समय देखा तो घोड़ा नदारद. अफरातफरी मच गयी कि आखिर घोड़ा कहां गया. घोड़े की खोज में सैन्य दल निकल पड़े अलग-अलग दिशाओं में.
उल्लेख आता है कि सूर्य वंशी राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे. वे भी अलग दल बना कर पिता के सम्मान की रक्षा के लिए घोड़े की खोज में निकल पड़े. खोजते-खोजते धरती का छोर आ गया और सामने देखा तो समुद्र का अथाह जल दूर-दूर तक फैला था. आस-पास उन्होंने खोज की तो पाया कि वहां एक आश्रम में कोई ऋषि तपस्या में ध्यानमग्न हैं और वहीं घोड़ा बंधा है. सगर के पुत्रों ने घोड़ों को पहचान लिया और अपना क्रोध व्यक्त करने लगे. इसी क्रोध में एक पुत्र ने ऋषि को ललकारा कि घोड़ा चुरा कर अब यहां तप कर रहे हो. इस हंगामे के बीच मुनि का ध्यान टूटा और जैसे ही उन्होंने आंखें खोलीं, आंखों से निकले तेज से सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गये.
इधर राजा सगर परेशान था कि सैन्य टुकड़ियां वापस लौट आयीं, पर घोड़े का कहीं पता नहीं. घोड़े की खोज में गये साठ हजार पुत्र भी वापस नहीं लौटे. चिंतित राजा ने अपने पौत्र अंशुमान से मन की व्यथा व्यक्त की और पुत्रों की खोज में जाने को कहा. ढूंढ़ते हुए जब अंशुमान भी उसी आश्रम में पहुंचा तो चारों ओर राख का ढेर देख चौंक गया. उसने ऋषि को देख कर प्रणाम किया और अपनी चिंता बतायी.
ऋषि ने कहा मैं कपिल मुनि हूं और ये जो राख के ढेर तुम देख रहे हो, ये राजा सगर के पुत्रों की भस्म है. कह कर ऋषि ने पूरा वृतांत अंशुमान को बता दिया. अंशुमान ने कहा कि ये तो सब अकाल मौत मरे हैं, इनकी मुक्ति कैसे होगी. कपिल मुनि ने उपाय सुझाया कि स्वर्ग से गंगा को लाने पर ही उसके पवित्र स्पर्श से इनकी मुक्ति संभव है.
ऋषि ने बताया कि विष्णु के चरणों से निकली गंगा ब्रह्माजी के कमंडल में विराजमान हैं. ब्रह्मा की स्तुति करने से ही वह प्रसन्न होकर गंगा को धरती पर भेजेंगे. अंशुमान ने खूब कठिन तप किया, लेकिन ब्रह्मा प्रसन्न नहीं हुए. उनके बाद इसी साधना में अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप ने भी अपने तप से ब्रह्मा को प्रसन्न करने की कोशिश की. अंतत: पिता के बताये तप को पूरा करने के लिए भगीरथ ने बीड़ा उठाया. आखिरकार ब्रह्मा प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा, तब राजा भगीरथ ने अपने पुरखों की मुक्ति के लिए गंगा को धरती पर भेजने की प्रार्थना की.
ब्रह्मा के कहने पर गंगा स्वर्ग छोड़ कर पृथ्वीलोक में आने को तैयार नहीं थी, तब ब्रह्माजी ने गंगा को लोककल्याण के लिए आैर मानव समुदाय के पाप-ताप से मुक्ति के लिए धरती पर अवतरित होने का अनुरोध किया.
गंगा मान तो गयी, लेकिन स्वर्ग से धरती पर उनके तीव्र वेग को संभालेगा कौन. तब ब्रह्मा के अनुरोध पर महादेव अपनी जटाओं में गंगा को धारण करने को तैयार हुए. इस तरह गंगा शिवजी की जटाओं से होती हुई धरती पर अवतरित हुई. राजा भगीरथ आगे-आगे चलते रहे और गंगा उस मार्ग का अनुसरण करती हई कपिल मुनि के आश्रम पहुंची जहां उनके पवित्र जल का स्पर्श पाकर भगीरथ के पुरखों की मुक्ति हुई.
भगीरथ गंगा को धरती पर लाये इसलिए उनको भागीरथी कहा जाने लगा. सामने समुद्र को देख कर गंगा का विलय हुआ, वह भी एक महान तीर्थ बन गया गंगासागर. बंगाल की खाड़ी में यह गंगा और सागर का संगम हिंदुओं का पुण्य तीर्थ है जिसके महत्व को दरसाते हुए लोकोक्ति बन गयी ‘सारे तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार’ यानी सभी तीर्थों में बार-बार जाने से जो पुण्य मिलता है, यह गंगासागर में एक बार स्नान करने से प्राप्त हो जाता है.
गंगोत्री से गंगासागर तक की यह करीब 2500 किमी की यात्रा गंगा की पवित्रता, निर्मलता, अविरलता और प्रवाहमानता के रूप में अनादि काल से भारत की संस्कृति का तो पोषक रही ही है, मनुष्य जीवन विशेषत: हिंदुओं के लिए जीवन की प्रेरणा मानी जाती है.
गंगा जल जहां मुक्ति का प्रतीक माना गया, वहीं रोगनाशक भी. वर्षों तक रखे रहने पर भी गंगाजल की यह विशेषता है कि वह प्रदूषित नहीं होता. वैज्ञानिकों द्वारा काफी शोध किये जाने पर कई ऐसे तत्व पाये गये जो गंगाजल की शुद्धता दीर्घ काल तक बनाये रखते हैं. इस तरह गंगा के प्रति आस्था धार्मिक ही नहीं, वैज्ञानिक भी मानी गयी. मृत्यु से पूर्व मुंह में गंगाजल डालना व्यक्ति की मुक्ति का प्रतीक बन गया. गंगा स्नान की कामना देश-विदेश में करोड़ों हिंदुओं को उसके सान्निध्य में खींच लाती है.
हरिद्वार और प्रयाग में गंगा किनारे लगने वाला कुंभ हिंदू जन-जीवन का महापर्व बन जाता है. हर अमावस-पूर्णमासी को गंगा किनारे बने तीर्थों पर करोड़ों श्रद्धालु गंगा स्नान करते हैं.
ऐसी गंगा जो भारतीय जन-मन में रच-बस गयी है, गंगा दशहरा पर भी उसके प्रति आस्था प्रकट करने लाखों-लाख लोग उमड़ पड़ते हैं, यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपने पूर्वजों की थाती गंगा के उस पवित्र स्वरूप को संभाल कर नहीं रख सके. गंगा किनारे बसे दर्जनों शहरों का टनों मलबा, मैला और खतरनाक रसायनों से युक्त औद्योगिक अवशिष्ट गंगा की धारा को जहरीला और प्रदूषित कर रहा है. असंख्य गंदे नाले सीधे गंगा में मिलते हैं. गंगा-तीर्थों पर श्रद्धालु कम, सैलानी ज्यादा पहुंचने लगे हैं जो श्रद्धावश कम, मौज मस्ती के लिए ज्यादा आते हैं. ये वहां पर्यावरण प्रदूषण की चिंता किये बगैर ढेरों गंदगी छोड़ जाते हैं. तो गंगा निर्मल कैसे रहेगी. विकास के नाम पर बने बांधों ने गंगा की अविरलता भी बाधित कर दी, तो प्रवाह भी धीमा हो गया.
नदियां भारतीय संस्कृति का स्रोत रही हैं, जीवन की सुचिता व गतिमानता की प्रेरणा भी. घर में बैठ कर ही हम ‘गंगा यमुने चैव गोदावरी सरस्वती/नर्म दे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधि कुरु’ का उच्चारण कर जब स्नान करते हैं तो मानो इन पवित्र नदियों का जल टब या बाल्टी में समाहित हो जाता है. ऐसे देश में नदियों की दुर्दशा पीड़दायक तो है ही, विनाशकारी भी है. गंगा शुद्धि के लिए कई योजनाएं बनीं, अरबों खर्च भी हो गये. परंतु यह विडंबना है कि आज मुक्तिदायिनी खुद अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही है.