वीणा वत्सल सिंह
अपने पूर्वजों के प्रति जुड़े रहने की गारंटी देने के लिए एक परंपरा को निभाने की बात को लेकर एक मुहल्ले के सभी सदस्यों की मीटिंग चल रही थी. मुद्दा था – पितृपक्ष में घर की छत पर कौवों का न मिलना. जाहिर सी बात है परंपरा के अनुसार अगर श्राद्ध के अन्न को कौवे ने नहीं खाया, तो श्राद्ध मान्य नहीं होगा.
पर, इस कंक्रीट के जंगल को कौवों ने अपने अनुकूल न जान वहां जाना अब लगभग त्याग ही दिया था. लोगों की चिंता धीरे-धीरे बहस का रूप लेती जा रही थी कि एक सज्जन ने सुझाया -‘क्यों न हम मुहल्ले से थोड़ा हट कर बने पार्क में श्राद्ध के लिए जायें? मुहल्ले के पार्क में तो यह संभव नहीं, क्योंकि वहां कई महंगे पेड़ और करीने से सजा-धजा लॉन है, जहां हमारे बच्चे खेलते हैं या हम भी कभी वहां घूमने ही चले जाते हैं. अत: वहां गंदगी फैलाना उचित नहीं.’
दूसरे ने उनकी हां में हां मिलाते हुए कहा – ‘बिलकुल सही कह रहे हैं आप. मुहल्ले के बाहर वाला पार्क ही ठीक रहेगा. वहां बेतरतीब पेड़-पौधे भी खूब हैं और आसपास झुग्गियां ही हैं, तो कौवे तो मिलेंगे ही. गंदगी फैले या न फैले, इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडेगा़ ‘
इस बात से हर किसी ने सहमति जतायी. नतीजतन, फैसला हुआ कि कमेटी द्वारा अगले दो दिनों के अंदर पितृ-पक्ष शुरू होने से पहले पार्क के एक छोटे से हिस्से की साफ-सफाई करा दी जाये, ताकि लोग अपनी सुविधानुसार या श्राद्ध की तिथि के अनुसार वहां जाकर कौवों को अन्न खिला, पितरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें.
इन्हीं झुग्गियों में एक झुग्गी बस अभी-अभी बनी ही थी. रमेश, उसकी पत्नी और पांच वर्ष का उनका एक बेटा अभी कुछ दिनों पूर्व ही गांव से आ कर रोजगार की तलाश में यहां बस गये थे. रमेश एक विशाल शॉपिंग माॅल में मजदूरी करने लगा था और उसकी पत्नी अंजू अन्य महिलाओं की तरह एक घर में चौका-बरतन, साफ-सफाई आदि करने लगी थी. उनका बेटा गोकुल, जब तक मां दूसरे घरों के काम निबटाती, पास-पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता रहता.
ऐसी ही दिनचर्या के साथ एक सुबह गोकुल अपनी झुग्गी के पास बैठा हुआ था. उसके पास ही कुछ दूरी पर एक बड़ी-सी चमचमाती कार आकर रुकी और वह कुछ समझ पाता, इससे पहले ही उस कार से एक भारी-भरकम डील-डौल वाले रेशमी कुरते-पायजामे में सजे-धजे एक सज्जन निकले. उनके एक हाथ में एक बड़ा-सा कई खानों वाला टिफिन था और दूसरे में एक प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान. सज्जन ने कागज के बने चमकीले प्लेट्स निकाले तथा टिफिन खोल उस में एक-एक कर खीर, पूड़ी और सब्जी रखना शुरू किया.
इतना बढ़िया खाना देख गोकुल के मुंह में पानी आ गया. कुछ देर में जब सज्जन ने पूरी थाली सजा ली, तो खड़े हो कर आसमान की और देखने लगे. मिनट-दो मिनट के बाद उन्होंने जोर-जोर से बोलना शुरू किया – ‘कोबस कोबस …….’ और लगातार आसमान की ओर देखते रहे. करीब पंद्रह-बीस मिनटों के बाद एक कौवा उड़ता हुआ वहां आया. सज्जन कौवे को देख खिल गये और हाथ जोड़ कर उसे प्रणाम कर दो कदम पीछे हट गये. कौवा थोड़ी देर तक खाने के ऊपर मंडराता रहा. फिर थाली के पास बैठ कर उसने खीर का एक दाना चोंच में उठा लिया. कौवे को ऐसा करते देख सज्जन धन्य हो गये और धीरे से बोले – ‘अब चलता हूं, वैसे ही काफी देर हो चुकी है.’ फिर, लंबे-लंबे डग भरते हुए वहां से चले गये.
गोकुल, जब सज्जन के चले जाने की बात से आश्वस्त हो गया तो बाहर निकल कौवे को भगा, थाली के पास वहीं बैठ जल्दी-जल्दी खीर-पूड़ी और सब्जी खाने लगा. इतना स्वादिष्ट खाना उसके अल्प जीवन में उसे पहली बार नसीब हुआ था. अभी उसे बैठे कुछ ही समय हुआ था कि एक और सज्जन लक-दक लिबास और बड़ी-सी टिफिन के साथ आये. इस बार गोकुल निश्चिंत बैठा रहा. उसकी बालक बुद्धि ने उसे उस सज्जन का सच बता दिया था.
‘कोबस-कोबस’ की आवाज जैसे ही गोकुल के कानों में पड़ी, वह खिलखिला उठा. पर, इस बार उसने थोड़ी समझदारी का परिचय दिया और घर के अंदर जा एक थाली ला उस सज्जन के जाने की प्रतीक्षा करने लगा. ये सज्जन कुछ जल्दी ही पार्क से निकल, गाड़ी स्टार्ट कर रवाना हो गये. गोकुल तेज-तेज चलता हुआ पार्क के अंदर गया और थाली की सारी खाद्य-सामग्री अपनी थाली में डाल वापस आ, प्यार से उसे घर में रख खुशी-खुशी खेलने चला गया.
आज उसने एक नया शब्द सीखा था ‘कोबस-कोबस’. इस शब्द से उसे लगाव भी हो गया था क्योंकि इस शब्द के प्रभाव से उसे आज दो बार उत्तम खाने की थाल मिली थी. अत: वह लगातार कोबस-कोबस बोलता जा रहा था. जब दोस्तों ने उससे इस शब्द का माने पूछा, तो हंसते हुए चतुराई से उसने बताया – ‘यह एक जादू का शब्द है, जिससे खूब सारा बढ़िया खाना मिल जाता है’. यह सुन कर सारे बच्चे ‘कोबस-कोबस’ कह खेलने लगे. बिना यह जाने कि यह शब्द ‘काग भक्ष’ का अपभ्रंश रूप है, जो पितृ-पक्ष में कौवा रूपी पितरों या पितरों के प्रतिनिधि रूप कौवे को बुलाने के लिए प्रयुक्त होता है.
रोजाना मां के काम से आने से पहले वह खीर, पूड़ी और सब्जी खा तृप्त हो जाता. मां खाने को कहती, तो बहाने बना देता. माता-पिता दोनों पुत्र के नहीं खाने से दुखी रहने लगे. गोकुल को लेकर अंजू और रमेश मौलवी साहब के पास भी गये.
मौलवी साहब का दिया पानी पिलाया और पूरी श्रद्धा से उनका दिया ताबीज भी बांध दिया. इत्तेफाक की बात इसके दो दिनों बाद ही पितृ-पक्ष समाप्त हो गया और गोकुल अब पहले की तरह घर का खाना खाने लगा. लिहाजा मौलवी साहब को उसके ठीक करने का यश मिल गया.
समय अपनी चाल से चलता गया. गोकुल का नामांकन पास के एक सरकारी स्कूल में करवा दिया गया. पर, पितृ-पक्ष के आते ही पंद्रह दिनों के लिए उसके व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ जाता. मौलवी साहब के गंडे-ताबीज भी अब बेअसर होने लगे थे. माता-पिता ने उन पंद्रह दिनों से हार मान ली थी और पुत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया. ऐसे ही एक शाम गोकुल अपने मित्रों के साथ खेल रहा था, तभी उसके पिता के साथ काम करने वाले एक साथी ने आकर उसे बताया कि उसके पिता एक ऊंची बिल्डिंग पर काम करते हुए नीचे गिर गये हैं.
फिलहाल उन्हें पास के एक सरकारी अस्पताल में भरती कराया गया है. मां काम पर गयी थी. यह सुनते ही गोकुल भागता हुआ अपनी मां को बुला लाया. रमेश बुरी तरह से जख्मी हो गया था और बेहोश था. उसके सिर में काफी चोट आयी थी. डॉक्टर ने कहा – ‘अगर चौबीस घंटों के अंदर इसे होश आ जाता है तो ठीक, वरना कुछ कह नहीं सकते.’ होनी को कौन टाल सकता है? दूसरे दिन दोपहर होते-होते रमेश ने दम तोड़ दिया.
अंजू पर दुखों के पहाड़ के साथ-साथ अचानक पुत्र की सारी जिम्मेवारी आ गयी थी. जी कड़ा कर उसने यथासंभव विधि-विधान से रमेश का क्रिया-कर्म संपन्न कराया. गोकुल लगातार स्कूल जाता रहे, इस बात को ध्यान में रख उसने कई और घरों के काम पकड़ लिया.
मां-बेटे के साथ संघर्ष का समय ऐसे ही बीतता जा रहा था. एक बार समय-चक्र के अनुरूप फिर पितृ-पक्ष आया. लेकिन, गोकुल अब मन से बड़ा हो गया था. अब ‘कोबस-कोबस’ की आवाज से उसके कदम पार्क की ओर नहीं जाते, वह चुपचाप गंभीर मुद्रा बनाये स्कूल जाता. मां मन ही मन खुश थी कि इस बार इस महीने में पुत्र के ऊपर का साया खुद-ब-खुद हट गया. इसके साथ उसे एक चिंता भी खाये जा रही थी कि चार-पांच दिनों के बाद पति के श्राद्ध के लिए कहां से पैसे आयेंगे.
श्राद्ध वाले दिन अंजू सुबह जल्दी उठ कर खीर, पूड़ी और सब्जी बनाने लगी, तो गोकुल खाने की ओर लालच भरी नजरों से देख, कुछ पूछना चाह कर भी चुप ही रहा. खाना लेकर वे पार्क पहुंचे़
मां ने बताया था कि यह खाना उसके मृत पिता के लिए है, जो कौवे के रूप में आकर उसे ग्रहण करेंगे. अंजू थोड़े समय के अंतराल पर ‘कोबस-कोबस’ बोले जा रही थी. लेकिन एक भी कौवा आसपास नहीं फटक रहा था. गोकुल की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी.
अंतत: जब उसकी बेचैनी सीमा पार हो गयी, तो उसने विह्वल हो जोर से कहा – ‘कोबस-कोबस’. उसके इतना कहते ही न जाने कहां से एक कौवा मंडराता हुआ कांव-कांव करता आ, थाली के पास बैठ उसमें से ग्रास लेकर खाने लगा. अंजू का चेहरा खुशी से खिल उठा. कुछ सेकेंड वहां खड़े रह, वह झुग्गी की ओर चली गयी. घर के दरवाजे पर पहुंचकर उसने पुत्र को संबोधित कर कहा – ‘बेटा चलो अब तुम खा लो. मैंने तुम्हारे लिए थोड़ा-सा बचा रखा है.’
लेकिन, अपनी बात का कोई जवाब न पा उसने पीछे मुड़कर देखा तो गोकुल वहां न था. वह भागते हुए पार्क में पहुंची, तो सन्न रह गयी. गोकुल कौवे की दूसरी ओर बैठा थाली में रखा खाना खाने में व्यस्त था और कौआ थोड़ी दूर पर चुपचाप बैठा देख रहा था. यह दृश्य देखते ही अंजू की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी. जब थाली का सारा खाना समाप्त हो गया तो गोकुल का ध्यान सामने खडी मां की ओर गया.
उसने देखा, मां का चेहरा आंसुओं से भरा है. अपराध-बोध से भर वह उठ मां से लिपट, फफक पडा. मां ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए आसमान की ओर देख कहा – ‘तुम्हारा श्राद्ध तो अब जाकर सही मायने में पूरा हुआ गोकुल के बापू, है ना!’ ऊपर मंडराता कौआ ‘कांव-कांव’ कर उठा. जैसे अंजू की बातों का वह समर्थन कर रहा हो.