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‘मैनेज ’ और ‘प्लांट’ होने लगी है पत्रकारिता

-हरिवंश- भ्रष्टाचार की नदी के स्रोत से हिंदी इलाकों में भी ऐसा मध्यवर्ग उभर आया है. हिंदी के बड़े अखबार (जो करोड़ों पाठक का दावा करते हैं या जो धड़ाधड़ नये संस्करण खोल रहे हैं) भी हिंदी के इसी नव समूह वर्ग की पत्रकारिता कर रहे हैं. क्योंकि यही क्रेता, उपभोक्ता व विज्ञापनदाता हैं. अब […]

-हरिवंश-

भ्रष्टाचार की नदी के स्रोत से हिंदी इलाकों में भी ऐसा मध्यवर्ग उभर आया है. हिंदी के बड़े अखबार (जो करोड़ों पाठक का दावा करते हैं या जो धड़ाधड़ नये संस्करण खोल रहे हैं) भी हिंदी के इसी नव समूह वर्ग की पत्रकारिता कर रहे हैं. क्योंकि यही क्रेता, उपभोक्ता व विज्ञापनदाता हैं.
अब मालिक ही अखबार के नाम का दोहन नहीं कर रहे हैं या भुना रहे है. उनके नये प्रबंधक भी रातोंरात अमीर बनने के लिए अखबार को उपयोगी औजार मान रहे हैं. यह उसी तरह हो रहा है, जैसे राजनीति में हुआ. राजनीतिज्ञ पहले अपराधियों का इस्तेमाल करते थे. अपराधियों को लगा कि राजनीति के सीधे लाभ वे खुद क्यों न लें ? अब दोनों ले रहे हैं. यही पत्रकारिता में हो रहा है. मालिकों के साथ-साथ बड़े पत्रकार बड़े प्रबंधक भी इस फन में माहिर हो गये हैं. इस कमाई का स्रोत-सूत्र, जानना रूचिकर होगा.
सच तो यह है कि आज पूरी सभ्यता और दुनिया संकट से घिरी है. गांधी, जिस मशीनी संकट की चर्चा करते हैं, उसे मशीनी टेकनोलॉजी संस्कृति की असली चुनौती आज आप देख-सुन और भुगत रहे हैं, उपभोक्ता संस्कृति के संकट, अनैतिक होने के संकट, अनेक पहलू हैं इस मूल संकट के भारतीय समाज-संघ (फेडरल स्ट्रक्चर) और राजनीति भी आज गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं. पत्रकारिता, समाज से अलग नहीं है. इसलिए उसमें भी भटकाव है. अब हम हिंदी पत्रकारिता की संकट की बात कर रहे हैं.
हिंदी पत्रकारिता अपनी जड़ से कट रही है. वह हिंदी में उभरे मध्य वर्ग (जो टेस्ट-संस्कार-जीवनशैली में अंग्रेजी मध्यवर्ग जैसा है) की पत्रकारिता बन रही है.

सौंदर्य, फैशन, पॉलिटिक्ल गॉसिप और बेडरूम की पत्रकारिता. अंग्रेजी अखबारों में पत्रकारिता की एक नयी धारा चल पड़ी है, पेज तीन की पत्रकारिता, यह क्या है ? बड़े महानगरों में रोज शाम होनेवाली कॉकटेल पार्टियों की खबरें, तसवीरें ? इन पार्टियों में कौन लोग शरीक होते हैं ? फैशन, फिल्म, राजनीति, दलाली, नौकरशाही, उद्योग के शीर्ष नाम और चेहरे. इनकी बातचीत के विषय क्या होते हैं ? सौंदर्य, सेक्स, धनार्जन की शैलियां, महंगे कपड़े, लेटेस्ट फैशन, गहने, प्रेम प्रसंग, परदे के पीछे के राजनीतिक के चक प्रसंग, महंगे ड्रिंक्स वगैरह- वगैरह. ऐसी पार्टियों में निमंत्रण के लिए लोग मचलते हैं. विशाखापट्टनम की उनकी हाल की पार्टी में पटना से लालू प्रसाद गये. अमर सिंह की ऐसी पार्टियों में जाना स्टेटस सिंबल है.

भारत का यह वर्ग सही रूप में ग्लोबल दुनिया (अमेरिकी दुनिया सही शब्द है) का हिस्सा है. अंग्रेजी के बड़े अखबार (अपवाद भी हैं) ऐसी चर्चित पार्टियों की भरपूर खबरें तस्वीरें छाप कर इसी वर्ग की पत्रकारिता कर रहे हैं. भ्रष्टाचार की नदी के स्रोत से हिंदी इलाकों में भी ऐसा मध्यवर्ग उभर आया है. हिंदी के बड़े अखबार (जो करोड़ों पाठक का दावा करते हैं या जो धड़ाधड़ नये संस्करण खोल रहे हैं) भी हिंदी के इसी नव समूह वर्ग की पत्रकारिता कर रहे हैं. क्योंकि यही क्रेता, उपभोक्ता व विज्ञापनदाता है. कोई गंभीरता से इन हिंदी अखबारों का कंटेंट एनालिसिस (सामग्री विश्लेषण) करे, तो पायेगा कि हिंदी पत्रकारिता, रयूमर, गॉसिप, सेनसेशन, क्राइम और घटिया पालिटिक्स के घेरे में कैद हो रही है.

हिंदी पत्रकारिता का यह पहला गंभीर संकट है. अपनी जड़, विरासत और मिट्टी से कटना. हिंदी समाज की मूल समस्याएं पत्रकारिता की विषयवस्तु नहीं है. एक दूसरा गंभीर संकट. याद करिए हिंदी साहित्य का हिंदी समाज को योगदान. हिंदी के लेखकों ने आजादी के पहले, आजादी के बाद, ‘74 के छात्र आंदोलन तक हिंदी समाज को दुनिया में हो रहे बड़े बदलावों से जोड़ा. सपने जगाये. बदलाव का साहित्य रचा. समाज विज्ञान वगैरह में दुनिया में जो कुछ हो रहा था, हिंदी साहित्य में वह छप रहा था. महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्रिका ‘सरस्वती’ में मार्क्स के लेखन के अनुवाद छप रहे थे.

रूसी क्रांति, फ्रांस क्रांति पर सामग्री आ रही थी. पिछले 10 वर्षों का हिंदी लेखन देखिए, दुनिया में हो रहे बदलावों, सूचना क्रांति के असर वगैरह पर कितनी चीजें आ रही हैं ? इस देश के राज्य, आर्थिक मोरचे पर क्या नया कर रहे हैं, कितने हिंदी पाठक जानते हैं ? ‘नान फिशनल’ विषयों पर जब तक अधिकाधिक चीजें हिंदी में हम पाठकों को नहीं देंगे, हिंदी समाज का ठहराव नहीं टूटेगा. ठीक ऐसा ही हिंदी पत्रकारिता में हो रहा है. पुराने हिंदी पत्रकारों ने हमें गौरव दिया, विधा को सम्मानित बनाया, कंटेंट से, त्याग से, हिंदी पत्रकारिता को समृद्धि दी.

खासतौर से पिछले 15 वर्षों से बड़े हिंदी अखबारों की पत्रकारिता ‘फिक्शनल और सेंसेशनल’ हो रही है. भ्रष्टाचार की दुनिया से उसका आत्मीय ताल्लुक रहा है. गरीबी, बढ़ती विषमता, बेरोजगारी, नवधनाढ्यों के जुल्म, जड़ से कटती और आपराधिक बनती राजनीति, पिछ़डापन, 21वीं शताब्दी की नयी दुनिया, उसके ‘फोक्स’ के विषय नहीं रहें.

पत्रकारों का चरित्र संकट, तीसरा गंभीर पहलू है. हालांकि यह पूरे समाज राजनीति का संकट है. पर पत्रकारिता पर समाज को इस संकट से उबारने की नैतिक जिम्मेवारी है. हमारा पेशेगत धर्म-दायित्व है. हिंदी पत्रकारिता के इस चरित्र संकट के उत्स में है, पूंजी का अभाव, प्रतिभा की कमी, प्रोफेशनलिज्म न होना, पत्रकारिता का उद्योग न बनना और पत्रकार की भूमिका से अपरिचित पत्रकारों का उदय, अज्ञानत, अध्ययन से छत्तीस का रिश्ता.

विरासत बोध से अपरिचय, चरित्र संकट के ही हिस्से हैं. एक कहावत है, करैला वह भी नीम चढ़ा, अज्ञानी और छिछले व्यक्तित्व को ‘पावर’ दे दीजिए, उसका तमाशा देखिए. पत्रकारिता, भारतीय समाज में ‘पावर स्रोत’ का हिस्सा बन गयी है. पर ‘पावर विदाउट एकाउंटबिलिटी’ राजनीतिज्ञों की आलोचना होती है, नौकरशाहों पर कार्रवाई होती है, पर गलत पत्रकारिता करने रिपोर्ट लिखनेवालों के खिलाफ क्या होता है ? इस ‘पावर विदाउट एकाउंटिबिलिटी’ मानस ने अज्ञानी पत्रकारों को अहंकारी बना दिया हैं. अधिसंख्य पत्रकार एरोगेंट (ढीट) हो गये हैं. विनयी, जिम्मेवार और जानकार पत्रकार ड्राइविंग सीट पर कम हैं) नेपथ्य में अर्थशास्त्र में ग्रेशम लॉ है, जो कहता है कि खोटे सिक्के, अच्छे सिक्के को बाहर कर देते हैं. यही भारतीय राजनीति में हुआ है. यही पत्रकारिता में हो रहा है.

91 के बाद एक और बुराई उभर कर आयी है. पत्रकारिता में जातिवाद. बड़े पदों पर बैठे पत्रकार जाति क्षेत्र के आधार पर पत्रकारों का चयन करते हैं. हिंदी के एक करोड़पति पाठक समूहवाले अखबार के विभिन्न विभागों में एक ही जाति के लोगों का वर्चस्व है. ऊपर से नीचे तक वहां चयन का आधार ही जाति क्षेत्र है. एक नयी जानकारी पिछले वर्ष मिली.

हिंदी के एक बड़े घराने के अखबारों में (जिसके कई राज्यों में संस्करण खुल रहे हैं) गाली-गलौज से बात होती है. मालिक भी इसी भाषा में अपने वरिष्ठ साथियों से बात करते हैं. फिर वरिष्ठ लोग सहकर्मियों से इसी भाषा में व्यवहार करते हैं. अब बताइए जातिवाद और गाली-गलौजवाले माहौल में पल-पनप और बढ़ रहे पत्रकार समाज को कौन-सी रोशनी देंगे ?

दुनिया की राजनीति में दो धाराएं हैं. गांधी की धारा और मैकियावेली की धारा. पिछले 2000 वर्षों में दुनिया की राजनीति की मुख्यधारा मैकियावेली के दर्शन से प्रभावित रही है. इस धारा में षड्यंत्र, पाखंड, झूठ, छल, छद्म, राजनीति के स्वाभाविक अंग माने गये है. पश्चिम में जब प्रिंट मीडिया का जन्म हुआ, तो उसने भी इसी राजनीति के संस्कार-मूल्य ग्रहण किये. मानवीय इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि गांधी ने पश्चिमी राजनीति की इस मूल धारा को चुनौती दी. विकल्प भी बताता कि ‘साध्य और साधन’ के सवाल राजनीति में अहम हैं.

इस सूत्र से राजनीति के लिए नयी कसौटियां बनीं. राजनीति में, नीति, शुचिता, मूल्य, सच, नैतिक आयाम के पहलू जुड़े आजादी की लड़ाई में भारतीय राजनीति इन्हीं कसौटियां के ईद-गिर्द घूमती रही. भारतीय क्रांतिकारियों का चरित्र देखिए, सुभाष बाबू, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद या उनके पहले के बाद के क्रांतिकारी, सबका चरित्र, जीवन मूल्य, प्रतिबद्धता, स्वनुशासन, प्रेरित करते हैं. भारत की हिंदी पत्रकारिता (स्वर्णयुग) ने गांधी की इसी राजनीति से ऊर्जा पायी.

मैकियावेली के छल-छद्म से नहीं. खासतौर से उदारीकरण के बाद की हिंदी पत्रकारिता, गांधीवादी राजनीति के अपने मूल जनाधार से कट गया है. वह मैकियावेली के छल-छद्म से ऊर्जा पा रही है. हिंदी के बड़े अखबारों के प्रसंग में कह रहा हूं. प्राय: झूठ छापना और उसी बेशर्मी से उसका खंडन करना आदत बन गयी है. यह एकाध दिन की बात हो, तब भी गंभीर भटकाव है. हर सप्ताह ऐसी गंभीर भूलें हों, छोटी भूलें रोज हो, फिर भी कहीं कोई जवाबदेही नहीं, यह पत्रकारिता की नयी धारा हैं.

पाठक समाज, व्यवस्था-संस्था किसी के प्रति जवाबदेही नहीं, ट्रांसफर, पोस्टिंग, ठेकेदारी, सरकार बचाने-गिराने की खरीद-फरोख्त में साझेदारी, जब वरिष्ठ पत्रकारों-संपादकों के शगल बन जायें, तो पत्रकारिता का वही होगा, जो आज हिंदी इलाकों में हो रहा है.

इसका एक और कारण है. हिंदी पत्रकारिता में पूंजी आज भी कम हैं. बड़े घरानों के हिंदी अखबार के पत्रकारों को भी वेतन-सुविधा पहले से ही कम रहे हैं. पैसे कम होने से हिंदी पत्रकारिता में प्रतिभाएं नहीं आयी. जो प्रतिभावान लोग हिंदी पत्रकारिता में आये, वे अपनी प्रतिबद्धता-सरोकार के कारण आये. प्रतिबद्ध पत्रकारों की अंतिम जमात तैयार करनेवाला सामाजिक पाठशाला, बिहार आंदोलन था.

समाज, राजनीति से विचार गायब हो गये. इस कारण 1980 के बाद वैचारिक कराह (चाहे मार्क्सवाद या समाजवाद या संघ के ) के पत्रकार निकलने बंद हो गये. टीवी के आने और नये संस्करण खोलने के होड़ ने अब दृश्य बदला हैं. हिंदी के बड़े अखबारों में वेतन काफी बढ़े हैं. सुविधाएं बढ़ी हैं, पर प्रतिभाएं, ज्ञान और विचार सिमट गये हैं. इसलिए पत्रकारों को दलाल बनते या अनैतिक बनने में जरा भी संकोच नहीं है. अपराध बोध नहीं है.


मैंनेजमेंट स्तर पर भी एक संकट है. अधिकतर अखबार उद्योग घरानों के हैं. उद्योग घराने ‘परहित’ के लिए तो अखबार चलाते नहीं. इस सवाल को लेकर आजादी के बाद (जुट प्रेस) से अब तक बहस होती रही है. उद्योग घराने अखबारों के लाभ होते हैं. यह स्थापित सच है. पिछले 15 वर्षों में एक नया फर्क हिंदी इलाकों में आया है. मालिकों के बड़े नौकरों (पहले लोग प्रबंधक कहे जाते थे, जब प्रेसीडेंट, वाइस प्रेसीडेंट वगैरह वगैरह) में भी अखबारों के नाम पर धर्नाजन-लाभ लेने की होड़ मच गयी है. कोई चाय बागान ले रहा है, कोई नया सोने का खान ले रहा है.

चाय की पत्रकारिता, और सोने की पत्रकारिता ……. गहराई में उतरेंगे तो इस पत्रकारिता के अनेक नये, अनजाने विविध रूप मिलेंगे. हिंदी पत्रकारिता की नयी चुनौती यह नया परिवर्तन है. अब मालिक ही अखबार के नाम का दोहन नहीं कर रहे हैं या भुना रहे हैं. उनके नये प्रबंधक भी रातोंरात अमीर बनने के लिए अखबार को उपयोगी औजार मान रहे हैं. यह उसी तरह हो रहा है, जैसे राजनीति में हुआ. राजनीतिज्ञ पहले अपराधियों का इस्तेमाल करते थे. अपराधियों को लगा कि राजनीति के सीधे लाभ वे खुद क्यों न लें ?

अब दोनों ले रहे हैं. यही पत्रकारिता में हो रहा है. मालिकों के साथ-साथ बड़े पत्रकार-बड़े प्रबंधक भी इस फन में माहिर हो गये हैं. इस कमाई का स्रोत-सूत्र, जानना रूचिकर होगा. संक्षेप में कहें तो भ्रष्ट अपराधी, नेता (विधायक, सांसद, मंत्र) नौकरशाह और पत्रकार मिल गये हैं. इन चारों का एकजुट होना सिर्फ पत्रकारिता के लिए ही नहीं, देश-समाज, लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.

इन बदलावों से पत्रकारिता ‘मैनेज’ होने लगी है. ‘प्लांट’ होने लगी है. स्वाभाविक है कि मैनेज्ड पत्रकारिता, सच की पत्रकारिता से दूर होगी ही, आग और बर्फ साथ-साथ रह नहीं सकते. यह अंतरविरोध हिंदी पत्रकारिता का सबसे गंभीर संकट है. वैसे और भी अनेक संकट हैं. भाषा का संकट, इथिक्स का संकट, कोड आफ कंडक्ट पालन न करने का संकट.

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