फ़र्ज़ कीजिए आप शौच के लिए सुबह में खेत में जाएं और आपका पड़ोसी आप पर टॉर्च मारकर और पास के बच्चे सीटी बजा कर आपको हैरान कर दें.
फिर शौच के लिए आप जो पानी लाएं हों, उस लोटे को हाथ से लेकर पलट दें. और फिर समझाएं कि आपको खेत में नहीं बल्कि आपके घर में बने शौचालय में जाना चाहिए.

उत्तर प्रदेश के फ़िरोज़ाबाद ज़िले के एक गांव में जब मैं सुबह चार बजे पहुंची, तो यही नज़ारा देखने को मिला.
यहां घरों में शौचालय होने के बावजूद शौच के लिए खेतों में जा रहे गांववालों को इस नायाब तरीक़े से रोकने की मुहिम चल रही है.

मैंने जब 15 साल के हरीओम को रोका तो वो झेंप गया. मैंने उनसे पूछा, घर का शौचालय छोड़ यहां क्यों आए हो?
हरी ने कहा, ”हमें पसंद नहीं है. गर्मी लगती है, उल्टी आती है और गैस होने लगती है.”
बच्चे हों या बुज़ुर्ग, गांवों में शौच के लिए खेत जाने की आदत इतनी पुरानी है कि सरकारी मदद से शौचालय बनाने के बावजूद इसे बदलना बहुत मुश्किल रहा है.

दुनियाभर में एक अरब लोग शौच के लिए खेतों में जाते हैं. इनमें से क़रीब 60 फ़ीसद लोग भारत में रहते हैं.
सरकार पिछले 30 सालों से टॉयलेट बनाने की स्कीमें चला रही है, लेकिन देशभर में ऐसे हज़ारों शौचालय बेकार पड़े हैं.
प्रधानमंत्री हर घर में शौचालय होगा: मोदी ने 2014 में गांधी जयंती पर ऐलान किया था कि सरकार 2019 तक हरबनने थे 25 लाख, बने सिर्फ़ 6 लाख टायलेट बनवा देगी.

ये शौचालय नालियों (सीवर लाइन) से नहीं जोड़े जाते और पानी का कम इस्तेमाल करते हैं. मल इनके नीचे बने बड़े गड्ढों में इकट्ठा होकर समय के साथ खाद बन जाता है. लेकिन असली चुनौती इन शौचालयों को इस्तेमाल करवाना है.
यही समझते हुए ‘मोदी का झाड़ू उठाना पब्लिसिटी स्टंट नहीं’ के तहत पहली बार शौचालय बनाने की मुहिम का केंद्र समुदाय को बनाया गया.

अब नए शौचालय बनाने से पहले स्वयंसेवकों को खुले में शौच से सेहत को होने वाले नुक़सान बताए जाते हैं.
इसके बाद वो गांववालों के साथ सभाएं करते हैं और सुबह टॉर्च, सीटियों और थाली पीटते हुए गश्त लगाना शुरू करते हैं.
हरेंद्र पाल सिंह यहां इन स्वयंसेवकों के नेता हैं. वो बताते हैं कि सेहत से ज़्यादा गांववालों को औरतों की इज़्ज़त से जुड़ी दलील समझ में आती है.

हरेंद्र कहते हैं, ”हम उन्हें कहते हैं कि जब अपने घर की औरतों से अपनी इज़्ज़त जोड़ते हो, तो जब वो खेत में जाती हैं और उन्हें हर अजनबी, ग़ैर आदमी देखता है, तब लाज और शर्म कहां चली जाती है.”
हरेंद्र इस मुहिम की अहमियत समझते हैं. वो पढ़े-लिखे हैं. कॉलेज की पढ़ाई के बाद अब वो सरकारी नौकरी के लिए परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं.
पर नया बांस नार्की गांव में शिक्षा का स्तर बहुत कम है. खेती के अलावा यहां के ज़्यादातर लोग दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं.

इस गांव में बने जो शौचालय शौच के लिए इस्तेमाल नहीं हो रहे हैं, हमें उनमें गोबर के कंडे, कपड़े, रसोई का स्टोव और बरतन तक रखे मिले.
पूनम कुमारी भी शौचालय बने होने के बावजूद खेतों में जाती हैं. उनके पिता अक्सर बीमार रहते हैं और भाई घर ख़र्च के लिए बहुत कम पैसे देता है.
उन्होंने बारहवीं तक पढ़ाई तो पूरी की है. लेकिन रोज़गार के नाम पर खेत में दिहाड़ी मज़दूरी करती हैं.

वो बताती हैं, ”खेत में जाने के लिए एक मग पानी चाहिए पर टॉयलेट के लिए एक बाल्टी, और पानी का पंप लगाने के पैसे नहीं हैं, इसलिए हम खेत में जाते हैं.”
घर में भैंसों के लिए, रसोई के लिए और पीने के लिए पानी भरने वो ही जाती हैं. हैंडपंप आधे घंटे की दूरी पर है. पूनम अपनी मेहनत कम करने के लिए पंप की मांग करने से हिचकिचाती हैं.
वो कहती हैं, ”इसलिए सुबह-सुबह मैं मां के साथ निकल पड़ती हूं क्योंकि रोशनी होने पर लड़के घूमने लगते हैं.”

भारत में शौच के लिए खेतों की ओर जा रही औरतों केशौचालय का वो ख़तरनाक रास्ता… की कई वारदातें हुई हैं.
पर इसे देखने-समझने वाले और घर के ख़र्चों से जुड़े फ़ैसले लेने वाले पुरुष अब भी शौचालय को अहमियत नहीं देते हैं.
फ़िरोज़ाबाद में स्वच्छ भारत मिशन चलाने की ज़िम्मेदारी वहां की ज़िला मजिस्ट्रेट निधि केसरवानी की है.

वो मानती हैं कि ग़रीब परिवारों में पानी से जुड़ी परेशानियां हैं. वो कहती हैं कि उनसे निपटने के लिए पानी से जुड़ी सभी योजनाओं और मौजूदा धनराशि को उपयोग में लाने की क़वायद चल रही है.
वो कहती हैं, ”ये एक भेड़चाल जैसा है, मेरा अनुभव है कि लोग एक-दूसरे को देखकर सोचने पर मजबूर हो रहे हैं. उनपर दबाव बन रहा है और वो अपने लिए अपनी आदतें बदलने की ज़रूरत को समझ रहे हैं.”
मिशन का लक्ष्य महत्वाकांक्षी ज़रूर है, पर निधि को भरोसा है कि सरकार की ये स्कीम सिर्फ़ काग़ज़ पर नहीं रह जाएगी.
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