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हर हाल में कम करना होगा जल-जंगल-जमीन का दोहन
पर्यावरण पर संकट का सीधा मतलब मानव सभ्यता पर संकट है. विकास के लिए लालायित मानव जिस रफ्तार से जल-जंगल-जमीन का दोहन कर रहा है, उससे यह संकट लगातार गहरा हो रहा है. 1940 से अब तक दुनिया की आबादी करीब दो गुनी हुई है, लेकिन पानी की खपत चार गुनी बढ़ गयी है. प्राकृतिक […]
पर्यावरण पर संकट का सीधा मतलब मानव सभ्यता पर संकट है. विकास के लिए लालायित मानव जिस रफ्तार से जल-जंगल-जमीन का दोहन कर रहा है, उससे यह संकट लगातार गहरा हो रहा है. 1940 से अब तक दुनिया की आबादी करीब दो गुनी हुई है, लेकिन पानी की खपत चार गुनी बढ़ गयी है.
प्राकृतिक संपदा के ऐसे दोहन के भयावह परिणाम मौसमों के बदलने, बाढ़ और सूखे की त्रासदी तथा सामाजिक-आर्थिक तनाव के रूप में सामने आ रहे हैं. हालत यह है कि अब तक के 15 सबसे गर्म वर्षों में से 12 पिछले 15 सालों (2001-15) में ही रहे हैं. विश्व पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण से जुड़ी प्रमुख चिंताओं पर नजर डाल रहा है यह विशेष पेज.
हिमांशु ठक्कर
पर्यावरणविद्
हमारे पर्यावरणीय संसाधनों में हवा, जल-जंगल-जमीन, नदियां-समंदर और पहाड़ आदि आते हैं. ये सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं. पिछले कुछ दशकों में देश में इन संसाधनों की जरूरतें बेतहाशा बढ़ी हैं, जिससे इनका बड़ी तेजी से दोहन हुआ है. इन संसाधनों की सबसे ज्यादा बलि विकास के नाम पर चढ़ाई गयी है.
हम विकास, परियोजनाएं और नीतियों के नाम पर इन संसाधनों के इस्तेमाल का विकल्प तो चुनते हैं, लेकिन हम यह समझने की कोशिश नहीं करते कि आगे चल कर पर्यावरण पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा. मसलन, अगर हम कोई सड़क बनाते हैं, उद्योग-कंपनियां लगाते हैं, भवन-निर्माण करते हैं या कोई इंडस्ट्रियल कॉरीडोर बनाते हैं, तो इन्हें बनाने से पहले यह अच्छी तरह से देखना चाहिए कि इससे पर्यावरण को कोई नुकसान तो नहीं होने जा रहा है. विडंबना है कि इस मामले में हमारे नीति-निर्माता गंभीरता से नहीं सोचते. अगर पर्यावरण को बचाना है, तो इस बारे में सोचना ही पड़ेगा.
हमारी जरूरतों के िलहाज से नदी का बाप होता है जंगल!
पर्यावरण का मामला सीधे-सीधे हमारे समाज से जुड़ा मामला है. जब पर्यावरण प्रभावित होता है, इसके साथ ही लोग भी प्रभावित होते हैं. हर पर्यावरणीय संसाधन के ऊपर समाज का कोई-न-कोई समुदाय निर्भर है. पर्यावरण को नुकसान होगा, संसाधनों का बेजा दोहन होगा, तो इन संसाधनों से जुड़े लोगों का जीवन प्रभावित होगा ही.
हमारी सरकारें मानती है कि जंगल का मतलब पेड़ों का समूह है. जंगल की यह एक गलत व्याख्या है. जंगल का अर्थ सिर्फ पेड़ों का समूह नहीं है, एक जंगल अनेक प्रकार के जीव-जंतुओं के लिए आश्रय स्थल भी होता है. प्राकृतिक जंगल में पोड़ों के साथ-साथ बहुत सारी वनस्पतियां भी होती हैं. जंगल बारिश के पानी को रोक कर उसे ठहराव देता है. जंगल ऑक्सीजन को बढ़ाता है, कार्बन डाइऑक्साइड को कम करता है, जिससे पर्यावरण संतुलन बना रहता है. जहां जंगल होता है, वहां बारिश भी अच्छी होती है और आसपास की नदियां सदानीरा रहती हैं.
जहां जंगल कटे, नदियां भी सूख जाती हैं. यही कारण है कि पुराने लोग और पर्यावरणविद् भी कहते हैं कि जंगल नदी का बाप होता है. स्पष्ट है कि जंगल मानव समुदाय के लिए बेहद उपयोगी है. इसलिए अगर हम विकास की नीति बनाएं, तो इस बात पर जरूर विचार कर लें कि उसके तहत होनेवाले निर्माण से पर्यावरण प्रभावित न हो. ऐसी नीति बनाने के लिए निर्णय कौन लेगा, किस प्रक्रिया के तहत लेगा, इसमें किसको सहभागी बनायेगा और किस प्रक्रिया के तहत सहभागी बनायेगा, इन सवालों पर भी सरकारें विचार करें. विडंबना है कि इन सवालों को प्रामाणिकता के साथ हम दो-ढाई दशक पहले भी नहीं पूछते थे और आज भी नहीं पूछ पा रहे हैं.
प्रामाणिक अध्ययन के बिना प्रोजेक्ट को न मिले मंजूरी
पिछले दिनों दो नदियों (केन और बेतवा) को जोड़ने को लेकर केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट पर पर्यावरण मंत्रालय की महत्वपूर्ण एक्सपर्ट अप्रेजल कमेटी की बैठक में इस बात पर विचार किया गया कि केन-बेतवा प्रोजेक्ट को पर्यावरणीय मंजूरी मिलनी चाहिए या नहीं. ऐसे प्रोजेक्ट को पर्यावरणीय मंजूरी देने से पहले इससे होनेवाले पर्यावरणीय नुकसान का एक प्रमाणिक आकलन होना चाहिए. इन नदियों से जुड़े समुदायों के जीवनयापन के नुकसान-फायदों का आकलन होना चाहिए.
लेकिन, मंत्रालय ने अभी ऐसा कुछ नहीं किया है. अब सवाल है कि बिना किसी प्रामाणिक अध्ययन के अगर इस प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल जाती है और अगर आगे चल कर इसके पर्यावरणीय दुष्परिणाम सामने आते हैं, तो इसके लिए कौन जिम्मेवार होगा? फिलहाल, जल-जंगल-जमीन के मामले में सरकार की लगभग सारी नीतियां बिना किसी प्रामाणिक अध्ययन के बनायी जा रही हैं, जिसका परिणाम आज देश में पर्यावरण संकट के रूप में सामने है और दर्जनभर राज्यों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है.
जल संरक्षण को लेकर सरकारी तंत्र लापरवाह
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में ही नहीं दुनियाभर में पर्यावरण संकट जारी है. जल-जंगल-जमीन खतरे में हैं. आजादी के बाद देश में यह सबसे भीषण सूखे का दौर है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में दर्जनभर राज्यों में सूखा है और 33 करोड़ लोग इससे प्रभावित हैं, लेकिन एक अन्य आकलन के हिसाब से तकरीबन 45-50 करोड़ लोग सूखे से किसी न किसी तरह से प्रभावित हैं.
सूखे का कारण समझें
यह समस्या क्यों पैदा हुई? सरकार इसके कई कारण गिनाती है. एक तो यह कि बारिश कम हुई इसलिए सूखा पड़ा. दूसरा यह कि भूमिगत जल-स्तर नीचे जा रहा है. तीसरा यह कि तापमान बढ़ रहा है, जिससे पानी की मांग बढ़ रही है. चौथा यह कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन संसाधन तो सीमित हैं. पांचवां यह कि बारिश के होने का पैटर्न बदल गया है, जिससे जो थोड़ी-बहुत बारिश गिरती भी है, उसका इस्तेमाल नहीं हो पाता है.
लेकिन, इन सबके अलावा एक और कारण है, जिसे सरकार नहीं मानती है. वह यह है कि सितंबर 2015 में हमको पता था कि देश के किस क्षेत्र में कितनी बारिश हुई है, किस क्षेत्र में भूमिगत जल-स्तर कितना है, और किस क्षेत्र में जून-जुलाई 2016 तक कितने पानी की जरूरत होगी. हमें ये सभी जानकारियां पता थीं, लेकिन हमारी सरकारों ने इसके लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया. अगर समय रहते सरकार कदम उठायी होती, तो आज जो अकाल का स्वरूप है, वह बहुत हद तक कम होता. राज्य और केंद्र सरकारों की लापरवाही की वजह से अकाल का स्वरूप भीषण हो गया है. आज हमें यह स्वीकार करना होगा कि पानी का सबसे बड़ा स्रोत भूमिगत जल ही है, इसलिए इसके संरक्षण के लिए हमें हर-संभव प्रयास करने की जरूरत है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
पर्यावरणीय संकट का तात्कालिक नहीं, स्थायी हल तलाशें
मान लीजिए झारखंड के किसी गांव में जरा भी पानी नहीं है. वहां पानी पहुंचाने को लेकर कई विकल्प सामने आ सकते हैं.कोई कहेगा- गांव में तालाब खुदवा देते हैं, कोई कहेगा- नदी का पानी गांव तक ले आने की व्यवस्था करते हैं, कोई कहेगा- हेलीकॉप्टर या ट्रेन से पानी पहुंचाने की व्यवस्था करते हैं, या फिर कोई कहेगा- बारिश के पानी का संरक्षण करते हैं ताकि अकाल की समस्या ही न आये. विकल्प तो चारों हैं, लेकिन हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन सबसे बढ़िया और स्थायी विकल्प है. उस बढ़िया विकल्प के साथ यह भी देखना होगा कि कहीं इसके पर्यावरणीय नुकसान तो नहीं हैं, या इससे लोगों के जीवन में कहीं कोई मुश्किल तो नहीं आयेगी. ऐसे ही निर्णय के लिए अध्ययन जरूरी है.
फिलहाल, दिल्ली में बैठे इंजीनियर को यह गुमान होता है कि वह सब कुछ जानता है और वह सुझाव देता है कि पास की नदी पर बांध बना कर गांव तक पानी पहुंचा दिया जाये. बिना किसी प्रामाणिक अध्ययन के दिल्ली में बैठ कर ही यह सब तय कर लिया जाता है.
यहीं सवाल उठता है कि क्या कोई दिल्ली में बैठ कर झारखंड के उस गांव तक पानी पहुंचाने की योजना को तय करेगा या फिर स्थानीय स्तर पर पर्यावरणीय फायदे-नुकसान को ध्यान में रखते हुए एक जनतांत्रिक प्रक्रिया के तहत गांव तक पानी पहुंचाने की व्यवस्था की जायेगी? यह भी कि इन सब चीजों के तय होने में ग्रामीण समुदायों की भागीदारी कितनी होगी?
अब भी जाग जायें, तो विनाश से बचा सकते हैं प्रकृति को
राजेंद्र सिंह
जल संरक्षक एवं पर्यावरणविद्
भारत ही नहीं, दुनियाभर में विकास के प्रति एक लालच है, जो बीते कुछ दशकों में तेजी से बढ़ी है. हमारे अंदर विकास की लालच ने घर कर लिया है और हमें लगने लगा है कि इसके बिना हम जी ही नहीं पायेंगे. विकास के प्रति इस लालच ने ही हमारा स्वस्थ रूप में जीना हराम कर रखा है. यह लालची विकास हमारी प्रकृति-धरती और जल-जंगल-जमीन का बुरी तरह से शोषण-दोहन-प्रदूषण और अतिक्रमण कर रहा है. इसी वजह से हमारी धरती बीमार हो रही है, उसको बुखार चढ़ रहा है और मौसम का मिजाज बिगड़ने लगा है.
इसका नकारात्मक प्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में हमारे सामने है. बादलों का फटना, सूखा-बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का बार-बार और विकराल होना आदि सब इसी जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहा है. हालांकि अब भी हालात बहुत ज्यादा नहीं बिगड़े हैं. अगर हम अब भी जाग जायें और जल-जंगल-जमीन को बचाने के हर संभव प्रयास करें, तो जलवायु परिवर्तन को रोका जा सकता है. जिन पंच-महाभूतों से हमारी ये धरती-प्रकृति बनी है, उनके संरक्षण में जुट जायें, तो हम अब भी प्रकृति के इस विनाश से बच सकते हैं.
गलत नीतियाें के कारण आपदाएं
विपरीत पर्यावरणीय परिस्थितियों के उत्पन्न होने के लिए सबसे ज्यादा अगर कोई जिम्मेवार है, तो वह है सरकार की नीतियां. गलत सरकारी नीतियों के कारण ही इस साल देश के एक दर्जन से अधिक राज्य सूखे के संकट से जूझ रहे हैं. यह हमें बताता है कि हमें विकास की नीतियों में बड़े पैमाने पर सुधार करने की जरूरत है. ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है, जिसमें जनता की भागीदारी हो, ताकि जनता खुद अपनी जिम्मेवारी समझ कर जल-जंगल-जमीन की रक्षा-सुरक्षा कर सके. अब पानी को ही लीजिए, इस देश में पानी पर सारा अधिकार सरकार का है.
ऐसे में लोग पोखरों, तालाबों, बावलियों, नहरों, नालों आदि के पानी को लेकर जिम्मेवार नहीं हो पाते. अगर इन सब पर समुदायों का अधिकार सुनिश्चित किया जाये, तो जल-संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा और लोग भी प्राकृतिक संसाधनों को अपना मान कर उनकी हर-संभव हिफाजत की कोशिश करेंगे. जल-जंगल-जमीन से जुड़े समुदायों को अगर जल-जंगल-जमीन पर पूरा अधिकार दे दिया जायेगा, तो वे इन्हें बचाने में पूरी तरह से जुटेंगे, क्योंकि जब समाज को लगता है कि कोई चीज उनकी अपनी है, तभी उसके साथ वह थोड़ा ज्यादा एहतियात रखता है.
बंद हो जल-जंगल-जमीन का शोषण
हमारे देश में औद्योगिक नीति ऐसी है, जो जल-जंगल-जमीन का न सिर्फ शोषण और अतिक्रमण कर रही है, बल्कि प्रदूषण का एक बड़ा कारक भी यही है. हमें ऐसी औद्योगिक नीति की जरूरत है, जिसके तहत उद्योग-कंपनियां लगाने के लिए जल-जंगल-जमीन का शोषण-प्रदूषण-अतिक्रमण न हो. उद्योग लगें, लेकिन प्रकृति का शोषण करके न लगें. हमारे वन कानून में बहुत सी अच्छी बातें कही गयी हैं, जिसका सही-सही पालन किया जाये, तो जंगल का शोषण और अतिक्रमण नहीं हो सकेगा.
लेकिन इसी के साथ विडंबना यह है कि हमारी सरकारें सही नियमों का पालन कराने में नाकाम रहती हैं, जिसका परिणाम बहुत बुरा होता है. बड़े-बड़े उद्योगपति अधिक मुनाफे की लालच के चलते प्राकृतिक संसाधनों को लूटते रहते हैं और हमारी सरकारें लाचार नजर आती हैं. ऐसी स्थिति में यह कहना भी उचित होगा कि हमारे जीवन में सदाचार की भी बहुत जरूरत है, जिससे कि भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है.
अच्छी नीतियों और अच्छे कानूनों का सही-सही पालन न हो पाना भी एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है, जिससे देश को नुकसान उठाना पड़ता है. इसलिए सदाचार लाने और भ्रष्टाचार रोकने का काम जब होगा, तभी प्रकृति के संरक्षण में मदद मिलेगी और जल-जंगल-जमीन का शोषण नहीं हो पायेगा. तब हमारा पर्यावरण, हमारी प्रकृति और हमारा जीवन, सभी खुशहाल बनेंगे.
(बातचीत पर आधारित)
समुद्री जीवों पर भी मंडरा रहे खतरे
बीती पांच सदियों में जमीन की तुलना में समुद्र में बहुत ही कम जीव विलुप्त हुए हैं. पिछले साल ‘साइंस’ में छपे एक अध्ययन में बताया गया है कि 15 समुद्री जानवर हमेशा के लिए समाप्त हो गये हैं, जबकि जैव-तंत्र से 514 जीव विलुप्त हुए हैं. लेकिन खाद्य सामग्री, जैविक ईंधन, खनिज, ऊर्जा और परिवहन के लिए समुद्र के तेजी से हो रहे औद्योगिकीकरण के कारण समुद्री जीवों के लोप का खतरा बढ़ रहा है. विशेषज्ञों के अनुसार, उन्नीसवीं सदी में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के समुद्री पर्यावरण में प्रवेश के आसार से चिंताएं बढ़ गयी हैं.
कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि से खाद्य पदार्थों में पोषण की कमी
वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ने के कारण खाद्य पदार्थों में प्रोटीन और अन्य पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है. इसका नकारात्मक असर फसलों, लोगों, परागण और जैव-तंत्र पर भी हो रहा है.
130 प्रकार के पौधों पर किये गये 7,761 पर्यवेक्षणों में पाया गया है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से पौधों में खनिज की मात्रा में करीब आठ फीसदी की कमी हुई है. इससे आयरन, जिंक, पोटाशियम और मैग्नीशियम समेत 25 खनिज की मात्रा कम हुई है.
– पौधों में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढ़ रही है जिसके फलस्वरूप खाने में चीनी का स्तर भी बढ़ रहा है और प्रोटीन कम हो रहा है.
– पूर्व औद्योगिक काल से अब तक कार्बन की मात्रा बढ़ने से गोल्डेनरॉड पोलेन में प्रोटीन की मात्रा 30 फीसदी तक कम हुई है. परागण पर इसके असर से फसलों की उत्पादकता बहुत कम हो सकती है.
– चूंकि इस संबंध में शोध अभी प्रारंभिक अवस्था में है, इसलिए वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में त्वरित ध्यान की जरूरत को रेखांकित किया है.
(स्रोत : यूएस ग्लोबल चेंज रिसर्च प्रोग्राम)
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