-हरिवंश-
चेग्वेरा को हमने धर्मयुग (हिंदी की साप्ताहिक पत्रिका, जो मुंबई टाइम्स ऑफ इंडिया से प्रकाशित होती थी) से जाना. विद्यार्थी दिनों में धर्मयुग प्रति सप्ताह छह से सात लाख प्रतियां बिकनेवाली पत्रिका थी. घर में पहले कौन पढ़े, इसे लेकर छीना-झपटी होती थी, इस पत्रिका के लिए. जीवन का संयोग कितना अजीब होता है कि वर्षों बाद धर्मयुग से ही नौकरी शुरू की. वहां नौकरी के दिनों में प्रखर चिंतक-पत्रकार (जो डॉ धर्मवीर भारती के बाद धर्मयुग के संपादक हुए) गणेश मंत्री जी ने मुझे दो श्वेत-श्याम तसवीरें भेंट की थी.
एक गांधी की. आधी तसवीर में काली छाया (शैडो), शेष में सफेद बादल जैसी छाया. तसवीरों में भी प्राण होते हैं, यह इससे जाना. दूसरी तसवीर चेग्वेरा की. लंबा सिगार पीते. बोलती आंखें. अंदर तक भेदनेवाली नजर. गंभीर, पर आकर्षक चेहरा. बाद में जाना, यह हवाना सिगार है. मंत्री जी मुंबई एशियाटिक लाइब्रेरी के सदस्य थे. उनसे ही चेग्वेरा पर अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तकें लीं, एशियाटिक लाइब्रेरी से उधार लेकर.
चे (इसी नाम से तब लोग पुकारते थे) हमारी पीढ़ी के लिए चुंबक जैसे थे. पूरी दुनिया के युवा उनके दीवाने थे. आज जब विद्यार्थी जीवन, युवापन पीछे छूट गये हैं, तब उन दिनों का मानस याद आता है. आज 14 जून चे का जन्मदिन है. ग्लोबल बनती दुनिया में चे को कितने लोग याद करेंगे, नहीं पता. पर जब दुनिया ग्लोबल नहीं थी. भाषा-संस्कृति-संवाद के स्तर पर दूरी थी, दुनिया की संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी प्रतिष्ठित नहीं हुई थी, तब महज 38 वर्ष 8 महीने में एक इंसान तूफान की तरह दुनिया में छा गया.
एक अलग कल्ट (पंथ) बन कर. खासतौर से युवाओं के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करते हुए. वह चे थे. अपनी शानदार शहादत के बाद चे एक अग्निपुंज की तरह अंधकार में डूबे संसार को रोशनी दे रहे थे. उनकी कीर्ति-यश महाद्वीपों की सीमाओं, समुद्रों को लांघ कर दुनिया के बुझे दिलों, हताश चेहरों को नयी ऊर्जा-तेज से भर रहे थे.
आज दो दशकों बाद सोचता हूं, चे में कौन-सा तेज-पुंज था, जिसने एक नयी आस्था दी. जीने का नया संदेश-अर्थ दिया. जीवन को सोद्देश्य बनाया. तेजस्वी युवाओं-प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को अपनी आस्था पर चलने की ताकत दी. संपन्न घरों से निकले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की पीढ़ी, गरीबों के घरों में पहुंच गयी.
कैसी थी वह प्रेरणा…
नक्सली आंदोलन ने सामाजिक बदलाव की एक गंभीर आहट पैदा की, उसके पीछे सीमा पर बहुत दूर से आनेवाले चे जैसे लोगों की प्रेरणा भी थी. चे का जीवन ही संदेश की तरह फैला.वह जीवन क्या था? अपने आदर्शों-मान्यताओं के लिए जीना. एक व्यक्ति जीते-जी किंवदंती बन जाता है. अर्जेंटीना में पैदा होता है, पेरू, कोलंबिया, वेनेजुएला आदि मुल्कों में जा कर कुष्ठ रोगियों के बीच काम करता है. डाक्टरी की पढ़ाई करते हुए ग्वाटेमाला जाता है. मार्क्सवाद पढ़ता है. क्यूबा के क्रांतिकारियों से मिलता है.
सीआइए ग्वाटेमाला में तख्तापलट करवाता है, चे भाग कर मेक्सिको जाते हैं. वहीं फिदेल कास्त्रो से मुलाकात होती है. चार वर्षों के कठिन संघर्ष के बाद क्यूबा में कास्त्रो-चे सत्ता संभालते हैं. चे भारत भी आते हैं. दक्षिण-अफ्रीका-लातिनी अमेरिका के गरीब देशों में जाते हैं.
क्यूबा के सरकारी पद-सरकार उन्हें बांध नहीं पाते हैं. वह दुनिया के थके, हारे और गरीबों की मुक्ति के लिए निकल पड़ते हैं. मंत्री पद, सुविधा, सब कुछ छोड़ कर. पूरी दुनिया में अर्जित अपने यश-लोकप्रियता से आंखें मूंद कर. वह कांगो के मुक्ति-संग्राम में शरीक होते हैं. विफल होते हैं. बोलिविया जाते हैं. अंतत: मौत अपरिहार्य जान कर भी लड़ते हैं और शहीद होते हैं.
पूरे सशस्त्र अभियान में वह अपनी डायरी लिखते हैं. कहते हैं, ‘बहुत लोग मुझे दुस्साहसी(एडवेंचरर) कहेंगे, मैं हूं. लेकिन भिन्न तरीके का. अपने उसूलों के लिए अपनी जान खतरे में डालनेवाला.’ वह बताते हैं, ‘हमने बलिदान चुना है, जिस मुक्ति की नींव हम डाल रहे है, यह उसकी कीमत है.’ उन्हें युवा शक्ति पर अटूट भरोसा था. अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘हमें जो बनाना है, उसकी आधारभूत मिट्टी युवाओं के अंदर है. हम अपनी आशाएं उनमें रखें और कमान अपने हाथ में लेने के लिए उन्हें तैयार करें.‘ वे कहते हैं, ‘एक अकेला व्यक्ति जनता को संगठित करने और नेतृत्व करने में अपनी भूमिका निभा सकता है, यदि उसमें उच्चतम मूल्यों और जन-आकांक्षा का मूर्तन हो और पथ से विचलित न होता हो.’ अपने उसूलों के पक्के चे सोवियत ब्यूरोक्रेसी की आलोचना करने में भी पीछे न रहे. आम जनता के हित में पार्टी लाइन की भी उन्होंने परवाह न की.
आज खुद से सवाल करता हूं, उसूलों पर जीना, उसके लिए कुरबानी करना, इस ग्लोबल दुनिया में क्या अर्थ रखता है? वह कौन-सी ताकत थी, जिसने चे को क्यूबा का सबसे ताकतवर सरकारी मंत्री पद छोड़ कर जंगलों में जाने के लिए प्रेरित किया? जब वह संयुक्त राष्ट्र संघ में बोलने आये, तो अमेरिकी युवक-युवतियां उनके दीवाने हो गये. उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी. माओ, ख्रुश्चेव, नेहरू समेत दुनिया के बड़े नेताओं के सम्मान और आकर्षण का केंद्र बने.
पर वही चे राजपाट छोड़ कर जंगलों की खाक छानने चले गये. जीवन का आकर्षण छोड़ कर विचारों के लिए जीने मुक्ति-संग्राम में चले गये. वह प्रेरणा क्या थी? वह कन्विक्शन (आस्था) कैसा था? वह आग कैसी थी, जो वसूलों पर चलने और मौत को गले लगाने के लिए प्रेरित करती है? जो व्यक्ति नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां पॉल सार्त्र, सीमोन-द-बूआ, रेजिस देब्रे जैसे महान चिंतकों-लेखकों का आकर्षण केंद्र था, वह दुनियावी यश, मोह, माया से इतना वीतरागी कैसे था? उस पीढ़ी की प्रेरणा क्या थी, जिसने साधन और साध्य के अनुरूप जीवन को जीया? आस्था के अनुसार जीने की ताकत कहां से मिली?
आज ग्लोबल दुनिया का मानस, विचारों के लिए शहादत, आस्था के लिए कुरबानी का गणित किस सूत्र से समझेगा? अब तो सारा उद्योग कुछ पाने के लिए है. एक आंदोलन का ही अर्थ हो गया है, उसकी कीमत वसूलना. सत्ता, पद, पैसा पाना.पराजय अपरिहार्य देख कर भी पराजय के लिए कुरबानी, ताकि दुनिया देख सके कि उसूलवाले कैसे जीते हैं? अंतिम दिनों में चे और उनके साथियों को महीनों-महीनों खाने को नहीं मिलता था. दमे का प्रहार अलग से, दुश्मन की घेराबंदी अलग, फिर भी उत्साह से मुकाबला? ऐसे लोगों का मानस कैसा होता है? रवींद्र बाबू की कविता आपातकाल में बड़ी प्रेरणादायी बनी कि ‘एकला चलो रे.’ पर अकेले चलने का संकल्प और साहस, लाभ-हानि के सूत्र से हर चीज तौलनेवाले समाज में कहां से मिलेंगे?
चे जैसे लोगों का व्यक्तित्व कैसे बनता है? जो सिद्धांत-उसूलों की बलि चढ़ाता नहीं. जो सुनिश्चित हार जान कर भी कर्म पर अग्रसर होता है. जो सत्ता का शीर्ष छोड़ कर समाज के अंतिम आदमी के साथ जीना चुनता है. यह मानस, समझने के लिए नयी दृष्टि चाहिए.आज छल, षडयंत्र, झूठ, पाखंड, आदर्शों की दुहाई, किसी कीमत पर पद, पैसा, सत्ता पाना जब हमारा राष्ट्रीय चरित्र हो गया हो, लोग उसूल पर जीने को मूर्खता मानते हों, तब चे का स्मरण कोई अर्थ रखता है या नहीं, यह आप तय करें.