
वो किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं. उनका नाम और चेहरा एक समय घर-घर में बस चुका था. वो इतनी कुशल वक़्ता हैं कि अच्छे अच्छे राजनेता भी उनके सामने घबराते हैं.
राजनीति में प्रवेश किए उन्हें भले ही ज़्यादा समय नहीं हुआ है, लेकिन आज उनकी गिनती देश के शीर्ष नेताओं में होने लगी है. संभवत: यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री पेश करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है.
‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ टीवी सीरियल के जरिए वे हर घर की मानों सदस्य ही बन गई थीं. फिर वे बीजेपी में शामिल हुईं और 2004 में दिल्ली के चांदनी चौक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और कांग्रेस के कपिल सिब्बल से क़रीबी लड़ाई में हार गईं.
नितिन गडकरी ने उन्हें बीजेपी महिला मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया. लेकिन उनके असली राजनीतिक तेवर देखने को मिले 2014 के लोकसभा चुनाव में, जब उन्हें अमेठी से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ख़िलाफ़ उतारा गया. उन्हें मात्र 15 दिन प्रचार करने का समय मिला, लेकिन अपनी परंपरागत सीट पर भी राहुल को जीतने के लिए बहन प्रियंका का सहारा लेना पड़ा था.
स्मृति चुनाव तो नहीं जीत पाईं, लेकिन अमेठी से उन्होंने संबंध क़ायम रखा. हर दुख-तकलीफ़ में शामिल होने का प्रयास किया. भले ही अमेठी के सांसद राहुल गांधी हों, लेकिन जब अमेठी के एक गाँव में आग लगी तो राहुल से पहले स्मृति वहाँ पहुँची.

हाल ही में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोधी नारों के मामले में संसद के दोनों सदनों मे हुई बहस मे उन्होंने मायावती समेत अन्य विपक्षी दिग्गजों को जमकर जवाब दिए. समृति ईरानी ने कहा कि उनकी जाति के बारे में किसा को पता ही नहीं है, तो कोई उनपर दलित विरोधी होने का आरोप कैसे लगा सकता है? प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर संसद में भाषण के लिए उन्हें बधाई दी थी.
पिछले कुछ दिनों से स्मृति ने अपना कार्यक्षेत्र अमेठी से बढ़ाकर लगभग पूरा यूपी कर लिया है. पिछले सप्ताह वे गोरखपुर में कार्यकर्ता सम्मेलन संबोधित करने गई थीं. उससे पहले वो वाराणसी गई थीं.
माना जा रहा है ‘जातिहीन’ स्मृति ईरानी यूपी की जातिगत राजनीति में ऐसा मोहरा होंगी कि विपक्षी उसकी काट ढूंढ़ते रह जाएंगे. वो अपनी ‘तुलसी विरानी,’ की आदर्श बहू की छवि के साथ जनता के बीच पैठ बना लेंगी.

उत्तर प्रदेश की उनकी दावेदारी में केवल एक संदेह जताया जा रहा है कि क्या उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन और सहयोग मिलेगा? अभी तक संघ ने इस बारे में अपना स्पष्ट मत प्रकट नहीं किया है, लेकिन प्रधानमंत्री के मत से वह कितना अलग जा सकता है, इसमें संदेह है.
वैसे भी मोदी के क़रीबी माने जाने वाले संघ के संगठन मंत्रीसुनील बंसल और ओम माथुर फिलहाल उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए बीजेपी के प्रभारी हैं. अगर ईरानी को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के बजाए बतौर प्रचार प्रमुख पेश किया जाता है तो वह रणनीति के तहत होगा, संघ के दबाव में नहीं.
लेकिन बीजेपी के पास ईरानी के अलावा मुख्यमंत्री पद के लिए कोई जाना पहचाना चेहरा नहीं है. प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी ने केशव प्रसाद मौर्य जैसे नए व्यक्ति को नियुक्त किया है. बिना चेहरे के केवल मोदी के नाम पर लड़ने का अंजाम, वह बिहार और दिल्ली में देख चुकी है.

अगर बीजेपी 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना चाहती है तो 403 विधानसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश उसके लिए बहुत अहमियत रखता है. आख़िर इस प्रदेश ने ही 2014 में 80 में से 73 सीटें एनडीए की झोली में डालकर बीजेपी को पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल करने में बड़ी भूमिका निभाई थी.
हर लोकसभा सीट में वहाँ औसतन पाँच विधानसभा क्षेत्र आते हैं, यानी इस हिसाब से 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को यूपी में 365 सीटें जीतना चाहिए. लेकिन राजनीति में दो और दो चार कभी नहीं होते हैं. पिछले दो सालों में इस सूबे की राजनीति इतने करवट ले चुकी है कि माना जाने लगा है कि अगली मुख्यमंत्री बहुजन समाज पार्टी की मायावती होंगी हालाँकि उनकी पार्टी एक भी लोकसभा सीट जीतने में सफल नहीं हुई थी.
इसीलिए बीजेपी ने अगले साल फ़रवरी-मार्च में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है. पिछले सप्ताह सहारनपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के साथ पार्टी ने चुनावी बिगुल बजा दिया है.
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