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कांग्रेस में निष्ठा की अनूठी पहल!

कांग्रेस के मौजूदा हालात को देख कर गालिब का एक मशहूर शेर याद आता है- ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती/ कोई सूरत नजर नहीं आती’. चुनावी मैदान में में हार-जीत होती रहती है और पिछले मुकाबले से सबक लेकर सियासी पार्टियां अगले मोर्चे पर जुट जाती हैं. लेकिन, कांग्रेस में ऐसा होता नहीं दिखता. साल […]

कांग्रेस के मौजूदा हालात को देख कर गालिब का एक मशहूर शेर याद आता है- ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती/ कोई सूरत नजर नहीं आती’. चुनावी मैदान में में हार-जीत होती रहती है और पिछले मुकाबले से सबक लेकर सियासी पार्टियां अगले मोर्चे पर जुट जाती हैं.
लेकिन, कांग्रेस में ऐसा होता नहीं दिखता. साल 2014 के आम चुनाव के बाद से पार्टी कई राज्यों में सत्ता गंवा चुकी है, पर उसके रंग-ढंग पुराने ढर्रे के ही बने हुए हैं. हर हार के बाद आत्ममंथन का बयान तो आता है, पर होता कुछ नहीं. सोनिया-राहुल और उनके इर्द-गिर्द जमा बड़े कांग्रेसी नेता अपनी जिम्मेवारियों से मुकर जाते हैं. विचारधारा, कार्यक्रम और रणनीति के स्तर पर भ्रम निरंतर बना हुआ है. पार्टी को बस एक चीज की परवाह है- गांधी परिवार के प्रति वफादारी. इसका दिलचस्प उदाहरण कांग्रेस की पश्चिम बंगाल इकाई ने विधायकों से सोनिया और राहुल गांधी के प्रति वफादारी का हलफनामा लेकर पेश किया है.
जो पार्टी इस देश में लोकतंत्र को बहाल करने की प्रक्रिया की अगुवा रही है, वही आज चाटुकारिता और परिवारवाद के कारण लोकतांत्रिक प्रणाली को अंगूठा दिखा रही है. यह रवैया पार्टी के लिए न सिर्फ आत्मघाती साबित हो रहा है, बल्कि राजनीतिक संस्कृति के लिए भी खतरा बनता जा रहा है. बंगाल के शपथ-पत्र प्रकरण के आलोक में कांग्रेस के मौजूदा रवैये और भविष्य पर पढ़ें वरिष्ठ विश्लेषकों का नजरिया…
लगातार चुनावी पराजय और नेताओं-विधायकों के दूसरे दलों में जाने के सिलसिले से कांग्रेस का परेशान होना स्वाभाविक है. लेकिन, पश्चिम बंगाल में विधायकों के टूटने की आशंका से पार्टी इस कदर डरी हुई है कि उसने नव-निर्वाचित विधायकों से 100 रुपये के स्टांप पेपर पर शपथ लेने का एक अजीबोगरीब उपाय ढूंढा है. राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने इस अनूठे शपथ पत्र पर बंद कमरे में विधायकों के हस्ताक्षर लिये, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के प्रति पूर्ण निष्ठा जताने की बात कही गयी है.
जब यह मामला प्रकाश में आया, तब विपक्ष ने स्वाभाविक रूप से इसका मजाक उड़ाना शुरू किया और इसे कांग्रेस की बेचैनी का प्रमाण कहा. ऐसे में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के पास इस मसले से हाथ धोने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
बहरहाल, यह पूरा प्रकरण कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति लंबे समय से चली आ रही समर्पण और चाटुकारिता का ही परिणाम है. इसी प्रवृत्ति के कारण शीर्ष नेतृत्व को किसी भी तरह की आलोचना और उत्तरदायित्व से परे रखा जाता है. किसी छोटी जीत का सेहरा भी सोनिया-राहुल के सिर पर बांधा जाता है, लेकिन बड़ी हार की जिम्मेवारी उनकी नहीं होती है, भले ही प्रचार से लेकर उम्मीदवारों के चयन में उनका सीधा दखल हो.
इस शपथ-पत्र प्रकरण में यह भी दिलचस्प है कि कांग्रेस नेताओं को इतनी भी जानकारी नहीं है कि दलबदल विरोधी कानून के तहत ऐसे दस्तावेजों का कोई मतलब नहीं है. इस पत्र में वर्णित बिंदुओं को देख कर सहज ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस परिवारवाद और चापलूसी की संस्कृति से किस हद तक घिर चुकी है.
पतन की राह पर बेपरवाह कांग्रेस
पराजयों के बावजूद अपने ढर्रे पर ही चलती रहेगी पार्टी
वीरेंद्र कपूर
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
हालिया विधानसभा चुनावों के नतीजों से कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह से परेशान होना चाहिए था. असम और केरल में बड़ी हार तथा तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में चिंताजनक प्रदर्शन उसकी चिंता के बड़े कारण होने चाहिए थे. लेकिन, जनमत के आदर और आत्ममंथन के बेपरवाह बयानों के अलावा ऐसा कोई संकेत नहीं दिखता है कि नेतृत्व का इरादा इन नतीजों से कोई सही सीख लेने की है.
पार्टी पहले की तरह ही चलती रहेगी, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. नेतृत्व के मुद्दे पर कोई बहस नहीं हो सकती है, क्योंकि शीर्ष पर विराजमान गांधी द्वय हर तरह के दोष से परे हैं और उनकी कोई जवाबदेही नहीं है. ऐसे में कोई आत्ममंथन हो नहीं सकता है, न ही उनके प्रभार में हुई किसी हार के कारणों पर चर्चा की जा सकती है. उन कांग्रेसियों से सिर्फ सहानुभूति ही जतायी जा सकती है, जिन्होंने पार्टी को कैरियर के विकल्प के रूप में चुना है.
कोई चाहे कितना प्रतिभावान, मेधावी और मेहनती क्यों न हो, पार्टी के शीर्ष पद उनकी पहुंच से परे हैं. उन पदों पर सिर्फ उस महान परिवार के सदस्य ही काबिज हो सकते हैं. बतौर नेता ये लोग बुरी तरह से असफल हो सकते हैं, उनमें नेहरू और पटेल की 125 साल पुरानी पार्टी का नेतृत्व करने की क्षमता की कमी हो सकती है, लेकिन पार्टी के शीर्ष पर स्थित उनके स्थायी आसन से गांधी परिवार को हटाया नहीं जा सकता है.
ऐसा इसलिए है कि इस परिवार ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर कभी न खुल सकनेवाला ताला लगा कर उसकी चाबी कहीं फेंक दी है. समस्या का सारांश यही है. जब तक कांग्रेस के लोग साफ बोलने का साहस नहीं जुटायेंगे, इन पराजयों के बावजूद पार्टी अपने ढर्रे पर चलती रहेगी.
सोनिया गांधी में अन्य गुण जो भी हों, कम-से-कम उन्हें अपनी सीमाओं का ज्ञान है और वे पार्टी के अनुभवी और समझदार लोगों की सलाह सुनती हैं. अगर पार्टी आज भी बची हुई है, तो इसका कारण यह है कि वे अहमद पटेल, एके एंटनी, मोतीलाल वोरा और अन्य कुछ वरिष्ठों के मार्गदर्शन पर चलती हैं.
दूसरी ओर, उनके पुत्र ने अपनी मां के नजदीकी लोगों से किनारा कर अपनी अलग मंडली बना ली है. मुश्किल यह है कि इस मंडली के लगभग सभी सदस्यों में राजनीतिक जड़ों का अभाव है, और इससे भी बुरी बात यह है कि उनमें पार्टी के उन पुराने धुरंधरों के लिए कोई धैर्य नहीं है, जिन्होंने इस काम के उतार-चढ़ाव में अपना जीवन खपाया है.
राहुल और उनके दोस्तों के लिए राजनीति एक शौकिया खेल है, जिसे शानदार जगहों पर लंबी छुट्टियां मनाने के बीच में खेला जा सकता है, और अन्य शौक पूरा करने के बाद पैसे बनाने का काम भी किया जा सकता है. इस उत्तराधिकारी के पास वरिष्ठ नेताओं के लिए समय नहीं है, राजनीति के मैदान से वे लंबे समय के लिए गायब हो जाते हैं, राष्ट्रीय महत्व के लोगों और मुद्दों में उनकी रुचि बहुत कम है, वे कांग्रेसियों को नियमित रूप से अपमानित करते हैं- असम के हेमंत विस्व सर्मा इस बारे में बेहतर बता सकते हैं, जो कांग्रेस छोड़ कर भाजपा के पाले में चले गये और इस वजह से राज्य में कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई.
ऐसे तथ्य इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं कि वास्तविक प्रमुख होने के बाद भी उनमें वांछित परिपक्वता और उत्तरदायित्व के साथ अपने कर्तव्यों के निर्वाह में उनकी कोई रुचि नहीं है. इसलिए, कांग्रेस जितनी जल्दी इस अनिच्छुक और लापरवाह मुखिया से पीछा छुड़ा ले, पार्टी के भविष्य के लिए उतना अच्छा होगा. राहुल गांधी के व्यवहार तथा संसद और चुनावी मैदान में उनकी पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए कोई अन्य निष्कर्ष निकाल पाना संभव नहीं है.
हां, परिवार के मालिकाने की अन्य पार्टियां भी हैं. लेकिन, वे सभी क्षेत्रीय दल हैं और उनका इतिहास बहुत दीर्घ तथा गौरवपूर्ण नहीं है. जबकि कांग्रेस वह पार्टी है जो देश की आजादी के आंदोलन से निकटता से जुड़ी रही थी और इसके खेमे में एक मुद्दे पर सभी तरह के लोग जमा हुए थे.
मौजूदा स्थिति में राजनीतिक मैदान में बहुत भीड़ है और इसमें ऐसे नये खिलाड़ी हैं जो इस खेल में गांधी परिवार से कहीं अधिक माहिर हैं. देश की इस सबसे पुरानी पार्टी को नयी ताजगी चाहिए, एक नया नेतृत्व चाहिए, जो टेलीविजन के मौजूदा युग में भरोसे को प्रोत्साहित कर सके, जो राजनीति में समान विचार के तत्वों के बीच पुल बना सके.
यह उल्लेखनीय है कि बिहार, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस कनिष्ठ सहयोगी थी और इसने अच्छा परिणाम हासिल किया. असम में यह अकेली थी और बुरी तरह से पराजित हुई. इसका अर्थ यह है कि पार्टी में नेतृत्व का अभाव है, जहां किसी और पार्टी ने राहुल गांधी का हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाया, कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा. निष्कर्ष स्पष्ट है- राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने का सपना छोड़ देना चाहिए.
गांधी परिवार को मतदाताओं की आवाज को सुनना चाहिए. अब मतदाता उन्हें ‘जन्मजात शासक’ के रूप में नहीं देखते हैं.किसी भी स्थिति में, चाहे वह राजनीति में हो या व्यापार, उत्तराधिकार तीन या चार पीढ़ी से अधिक चल पाना असाधारण है. व्यापारिक या राजनीतिक दुनिया का सर्वेक्षण कर आप इस दावे की सत्यता को जान सकते हैं.
यदि गांधी-द्वय पद से हटने का संकेत नहीं देते हैं, तो पार्टी के प्रति कांग्रेसियों यह जिम्मेवारी है कि वे गांधी परिवार को जवाबदेह बनाये, उनसे कुछ कड़े सवाल पूछें. उन्हें सामूहिक रूप से आवाज उठानी होगी, और इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, स्थिति को संभालने के लिए उसका बेहतर उपयोग हो. देश को कांग्रेस की जरूरत है.
भाजपा के अलावा सिर्फ यही एक राष्ट्रीय पार्टी है. अगर यह पार्टी भी क्षेत्रीय बन जाती है, जो कि राहुल के नेतृत्व के जारी रहने की स्थिति में निश्चित रूप से बन जायेगी, तो यह राजनीति के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा. भाजपा को मुस्तैद रखने के लिए कोई तो चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(आलेख एबीपी लाइव ब्लॉग से साभार)
इतना कमजोर कभी नहीं था कांग्रेस का आत्मविश्वास
राशिद किदवई
राजनीतिक विश्लेषक
प्रथमदृष्टया, पश्चिम बंगाल के कांग्रेसी विधायकों द्वारा निष्ठा का हलफनामा देने की घटना हास्यास्पद है, लेकिन इसकी एक पृष्ठभूमि है. दरअसल, साल 1997 में कांग्रेस पार्टी के एक धड़े को ममता बनर्जी अपने साथ लेकर चली गयी थीं. तब से तृणमूल कांग्रेस और बंगाल कांग्रेस के बीच राजनीतिक खींचातानी जारी है. जब ममता बनर्जी का कांग्रेस के साथ गंठबंधन था, उस दौरान भी बंगाल कांग्रेस के कुछ नेता-कार्यकर्ता ममता की ओर खिंचे चले जाते थे.
अब जब पश्चिम बंगाल में चुनाव हो चुका है और कांग्रेस वहां विपक्ष की भूमिका में है, ऐसे में बंगाल कांग्रेस को फिर वही डर है कि उसके विधायक कहीं ममता बनर्जी की ओर न खिंचे चले जायें. इस परिप्रेक्ष्य में हलफनामे की यह घटना घटी. इस हलफनामे की राजनीति में कोई अहमियत नहीं है, सिवाय यह दिखाने के लिए कि कांग्रेसी विधायक भरोसेमंद हैं, क्योंकि अगर वे विधायक कहीं और जाना चाहें, तो कोई उन्हें नहीं रोक सकता. ऐसे में इस हलफनामे का क्या मतलब रह जाता है?
कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि कांग्रेसी विधायकों द्वारा भरोसे का हलफनामा देना हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, क्योंकि सांसदों-विधायकों में अनुशासन व मर्यादा के साथ ही उनकी अपनी स्वतंत्रता और उनका अपना विवेक होना चाहिए. यह सही है. ये बातें सैद्धांतिक रूप से कहने को तो अच्छी हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं है. अगर आप मौजूदा भारतीय राजनीति को देखें, तो हर पार्टी के सांसद-विधायक को पार्टी लाइन पर ही चलना होता है, पार्टी लाइन से बाहर जाने पर राजनीतिक गतिरोध का खतरा बना रहता है.
साल 1974 में तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी के लिए ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा दिया था, जो आगे चल कर चाटुकारिता का मुहावरा बन गया. लेकिन, जब 1977 में इंदिरा गांधी हार गयीं, तब उसी देवकांत बरुआ ने साल 1978 में शाह कमीशन ऑफ इन्क्वॉयरी में इंदिरा गांधी के खिलाफ गवाही दी.
अगर इंदिरा गांधी जीत गयी होतीं, तो शायद बरुआ उनके खिलाफ गवाही नहीं देते. कहने का अर्थ है कि हमारे देश में पार्टियों की जो अंदरूनी राजनीति है, उसमें किसी को भी स्वतंत्रता नहीं है. आज भारत में एक नेता ही पार्टी को चलाता है, कोई पार्टी कई नेताओं को आगे बढ़ाती नजर नहीं आती है.
मौजूदा कांग्रेस पार्टी में अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं नजर आ रही है, इसलिए पार्टी में आत्ममंथन जैसी कोई स्थिति नहीं बन रही है. कांग्रेसी नेता-कार्यकर्ता राहुल गांधी और सोनिया गांधी की ओर देख रहे हैं कि शीर्ष नेतृत्व कोई पहल करे, तो वे उसे आगे बढ़ाएं. दूसरी ओर, राहुल गांधी और सोनिया गांधी यह सोच रहे हैं कि कांग्रेसीजनों में उत्साह जगे, तो पार्टी में ऊर्जा का संचार हो. यानी शीर्ष नेतृत्व और कांग्रेसीजन दोनों तरफ से पार्टी के भविष्य को लेकर कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा है. एनडीए सरकार को बने दो साल बीत गये, इस बीच प्रधानमंत्री मोदी की प्रसिद्धि की एक बहुत बड़ी वजह कांग्रेस पार्टी ही है.
आज कांग्रेसीजनों में इतना भी नैतिक या राजनीतिक साहस नहीं है कि वे पार्टी में बदलाव के लिए शीर्ष नेतृत्व पर कोई दबाव डालें. वहीं कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपना अस्तित्व बचाने में ही जुटा हुआ है, जिस कारण वह पार्टी में कोई भारी फेरबदल करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है. यानी हर राजनीतिक मोर्चे पर कांग्रेस कमजोर नजर आ रही है, जिसका फायदा दूसरी पार्टियों को हो रहा है. कांग्रेस अब भी नहीं संभली, तो इसके गंभीर राजनीतिक परिणाम सामने आ सकते हैं.
अंदरूनी तौर पर कांग्रेस के तकरीबन डेढ़ सौ प्रमुख नेता, जिनमें कांग्रेस कार्यसमिति में शामिल नेता और सांसदों-विधायकों के साथ ही राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष या प्रभारी के पदों पर बैठे हुए कांग्रेसीजन हैं, ये सभी अपने स्वार्थ के हिसाब से यह देख रहे हैं कि पार्टी में कोई बड़ा फरेबदल न हो, तो ही उनका पद-प्रभाव कायम रहेगा. वहीं राहुल गांधी की टीम यह चाहती है कि उसको फ्री हैंड यानी खुल कर काम करने की आजादी मिले, लेकिन कांग्रेस परिवार ऐसा कभी नहीं चाहेगा.
इन्हीं सब खींचतान के बीच कांग्रेस बुरी तरह से फंसी हुई है और उसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आ पा रहा है. हाल के चुनावों में कांग्रेस की हार की बात छोड़ दें, तो कांग्रेस पहले भी चुनाव हारती रही है, लेकिन इसके पहले उसका आत्मविश्वास इतना कमजोर नहीं था, जितना कि वर्तमान में है. कांग्रेसीजनों को इन सब चीजों से उबरना होगा, तभी संभव है कि वे पार्टी को आगे बढ़ा पायेंगे.
(बातचीत पर आधारित)
‘पूजावाद’ के चंगुल में फंसी है कांग्रेस
मोहन गुरुस्वामी
वरिष्ठ िटप्पणीकार
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में पूरी निष्ठा का पश्चिम बंगाल के विधायकों से अनूठे शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर कराना लोकतांत्रिक तौर पर बहुत ही गलत है.
ऐसा करने के लिए दिल्ली नेतृत्व का आदेश था या खुद विधायकों ने अपनी ओर से ऐसा किया था, पक्के तौर पर मैं यह बात नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता, लेकिन इतना जरूर है कि देश की एक बड़ी और पुरानी पार्टी होने के नाते कांग्रेस में ऐसी ‘पूजावादी परंपरा’ नहीं शुरू होनी चाहिए थी. मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने के लिए विधायकों को दिल्ली से कोई आदेश गया होगा. इस बात की उम्मीद ज्यादा है कि विधायकों ने चाटुकारिता के चलते ही ऐसा कदम उठाया होगा. हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों में ‘परिवारवाद’ की गहरी जड़ों का होना कोई आज की बात नहीं है. यह तकरीबन हर पार्टी में है. राजनीति अब एक विचारधारा पर आधारित न होकर व्यक्तिपूजा हो गयी है.
सभी पार्टियों पर व्यक्तियों के बढ़ते प्रभाव के चलते ही देश में अब चुनाव पार्टियों के नाम पर नहीं, बल्कि व्यक्तियों के नाम पर लड़े जा रहे हैं. हम अब किसी पार्टी की सरकार नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुनने लगे हैं. देश में सरकारें व्यक्ति के नाम पर बनने लगी हैं. ‘अबकी बार मोदी सरकार’ नारा इसका बेहतरीन उदाहरण है. लेकिन, किसी पार्टी में ‘पूजावाद’ इस कदर हावी हो जायेगा, इसकी मिसालें कांग्रेस के जरिये अब मिलने लगी हैं.
देश में फिलहाल दो तरह की राजनीतिक अपसंस्कृति मजबूत हो रही है- परिवारवाद की राजनीति और पूजावाद की राजनीति. दुर्भाग्य से, कांग्रेस इन दोनों की शिकार है. कांग्रेस इनसे उबर पायी तो ठीक, नहीं तो उसके भविष्य के बारे में कुछ सकारात्मक कह पाना अभी मुश्किल है.
पिछले दिनों एक चुनाव के दौरान मैंने एक कांग्रेसी नेता से पूछा था कि देश की जनता को लेकर आपकी क्या राय है, तो उस नेता ने कहा कि जो राहुल गांधी की राय है, वही हम सबकी राय है. ऐसे पूजावाद के दौर में कांग्रेस नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे लगातार हार रहे चुनावों को लेकर कोई आत्ममंथन या चिंतन-मनन करेंगे.
किसी पार्टी में परिवारवाद और पूजावाद राजनीतिक तौर पर नेताओं और कार्यकर्ताओं की सोचने-समझने की शक्ति को क्षीण बना देते हैं. बहुत से कांग्रेसी लोग जहां राहुल गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने और प्रियंका गांधी के उत्तर प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री बनने की वकालत कर रहे हों, वहां आत्ममंथन की बात ही कहां रह जाती है. परिवारवाद और पूजावाद के चंगुल में फंसे होने के कारण ही कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र नजर नहीं आता है, जिससे सोनिया-राहुल के अलावा पार्टी में कोई बड़ा विकल्प सामने आ सके. जब तक कांग्रेस पर गांधी परिवार का नेतृत्व है, तब तक आत्ममंथन जैसी किसी बात के बारे में सोच पाना निरर्थक है.
हां, इस परिवार के नेतृत्व से हटने के बाद कुछ सोचा जा सकता है, कोई नया नेता उभर कर आ सकता है, लेकिन यह अभी बहुत समय के बाद की बात होगी. दूसरी ओर, कांग्रेसी नेताओं ने भी इस बड़े दल को ऐसे जकड़ा हुआ है कि इसकी लोकतांत्रिक विचारधारा कुंद होती चली जा रही है. इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं को अब जनता से कम, पार्टी के बड़े चेहरों से ज्यादा सरोकार होने लगा है.
एक जमाने में कांग्रेस की एक राजनीतिक विचारधारा हुआ करती थी, लेकिन अब पार्टी में इसका अभाव सा नजर आता है.
राजनीतिक नेतृत्व के लिए बड़ा विजन चाहिए होता है, बड़ी और लोकतांत्रिक सोच होनी चाहिए होती है. प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं और कल्पनाओं से हमारी असहमति हो सकती है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी के पास कल्पना रूपी विजन तो है. मोदी का विजन गलत हो सकता है, लेकिन कांग्रेस के पास तो इस समय ऐसा कुछ भी नहीं है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
विधायकों से शपथ-पत्र लेना हताशा का सूचक
प्रो हरिओम
कन्वीनर, जम्मू फॉर इंडिया
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस द्वारा अपने विधायकों से निष्ठा शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर कराना पार्टी में व्याप्त फासीवादी मानसिकता को प्रदर्शित करता है. पूरी तरह से समर्पण के ऐसे उदाहरण एकाधिकारवादी समझवाले तानाशाहों द्वारा नियंत्रित पार्टियों में ही दिखने को मिलते हैं.
सर्वविदित है कि कांग्रेस के समूचे इतिहास में सच्ची लोकतांत्रिक संस्कृति का अभाव रहा है और पार्टी एक व्यक्ति की अनुगामी रही है. महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक, और अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा उनके पुत्र और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के प्रति समर्पण का कांग्रेस का राजनीतिक व्यवहार सिर्फ दिखावेभर के लिए लोकतांत्रिक रहा है. कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति ऐसी रही है, जिसमें उसके समर्थकों को पदासीन तानाशाह के आदेश को मानना होता है.
पार्टी में बने रहने और ऊपर जाने के लिए सदस्यों को शब्द और कर्म से समय-समय पर अपने समर्पण और निष्ठा को अभिव्यक्त करना होता है. इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व में मौजूदा कांग्रेस अधिक एकाधिकारवादी होती जा रही है.
पार्टी की अघोषित तानाशाह सोनिया गांधी के प्रति समर्पण की भावना प्रदर्शित नहीं करने के कारण कभी वरिष्ठ नेता सीताराम केसरी को उठा कर फेंक दिया गया था. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से उनके कई निर्णयों पर तंज कसा था और उन्हें खारिज कर दिया था. कांग्रेस अब एक फासीवादी संगठन बन चुका है, जिसके ऊपर मां-बेटे द्वारा नियंत्रित लोकतांत्रिक चादर डाला हुआ है. यह एक ऐसी संस्था बनती जा रही है, जो खतरनाक रूप से राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर रही है और देशभर में विभाजनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ा रही है. यह बहुत चिंताजनक बात है.
भारत के निर्वाचन आयोग से मेरा अनुरोध है कि कांग्रेस पार्टी की मान्यता रद्द कर यह संदेश प्रसारित किया जाये कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है. हालांकि, भाजपा भी देश के लिए कोई वरदान नहीं है. वह सत्ता में बने रहने के लिए अवांछित तत्वों के साथ मेल-जोल कर रही है.

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