-हरिवंश-
नवभारत टाइम्स (नभाटा, पटना संस्करण) के बंद होने पर एक राष्ट्रीय दल के बड़े नेता ने बड़े समाचार समूह के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति को फोन किया. पूछा नवभारत टाइम्स (पटना) के लोगों के लिए हम क्या कर सकते हैं? बहुत संजीदगी से उस व्यक्ति ने परामर्श दिया. आरंभ में तकरीबन सात करोड़ लगा कर अखबार निकालने का संस्थान बनाइए. मशीन, कंप्यूटर वगैरह लगाइए. कागज और वेज बोर्ड की मौजूदा दर स्थिर मान कर प्रतिमाह 30-40 लाख घाटा, कई वर्षों तक उठाने की व्यवस्था करिए. हां एक चीज का ध्यान रखिएगा कि कागज के भाव और वेज बोर्ड में जैसे-जैसे परिवर्तन हों, उसी अनुपात में घाटे की भरपाई के लिए तैयार रहिएगा. अगर यह तैयारी हो सकती है, तो दूसरा अखबार निकालिए, इसी तरह आप नवभारत टाइम्स के पत्रकारों-कर्मचारियों की मदद कर सकते हैं.
यह सुझाव, बिहार की हिंदी पत्रकारिता, उद्योग जगत की सही झलक है. नवभारत टाइम्स (नभाटा) बंद होने के संदर्भ में प्रबंधन का कहना है कि सालाना घाटा बढ़ कर करोड़ों में पहुंच गया था. प्रसार संख्या में लगातार गिरावट आ रही थी. प्रबंधन के बयान के अनुसार (देखें इंडिया टुडे – 15 अप्रैल पेज-34-35) ‘पिछले तीन-चार वर्षों से यह अखबार लगातार 15-17 लाख रुपये प्रतिमाह के घाटे पर चल रहा था. इसे लाभप्रद बनाने के तमाम प्रयास विफल रहे, तो इसे बंद कर देना ही श्रेयस्कर समझा गया.’
हिंदी के शुभचिंतक और पत्रकार नभाटा के बंद होने से चिंतित हैं. राजनेता भी चिंतित होने का दिखावा कर रहे हैं. मामला संसद में उठा. ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में, जहां प्रधानमंत्री और टाइम्स मैनेजमेंट के चेयरमैन अशोक जैन समेत टॉप लोग मौजूद थे, वहां शोर-शराबा हुआ. धरना-आंदोलन चल रहे हैं. पर इनमें अब अगति है. मुख्यमंत्री की हैसियत से लालू प्रसाद ने बयान दिया कि ‘शेषन ने नवभारत टाइम्स को बंद करा दिया, क्योंकि वह अखबार सच लिख रहा था.
मैंने कर्मचारियों से कहा है कि वे पेपर खुद चलायें. यदि मालिक हस्तक्षेप करते हैं, तो मैं उन्हें जेल भेज दूंगा.’ उन्होंने श्रमायुक्त को इस मामले को देखने का खास निर्देश दिया है. टाइम्स ऑफ इंडिया भवन के आगे जब पत्रकार वगैरह धरने पर बैठे, तो अंगरेजी टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार का कामकाज प्रभावित होने लगा. पहले पुलिस मूकदर्शक रही. टाइम्स ऑफ इंडिया के लोगों ने राज्यपाल से शिकायत की, तब पुलिस 21 पत्रकारों को पकड़ कर थाने ले गयी. थाने में लालू प्रसाद, नीतीश कुमार समेत अनेक नेता पहुंचे. मुख्यमंत्री देर तक वहां रहे. जिलाधिकारी को आदेश दिया कि वह जांचें कि पत्रकार कैसे पकड़े गये? पत्रकारों को जुटे रहने को कहा?
नवभारत टाइम्स (पटना) के प्रसंग में ऐसे अनेक तथ्य होंगे या हैं, जो जाने या अनजाने हैं. पर कुल मिला कर सवाल उठ रहे हैं कि 1. अखबार क्यों बंद हुआ? 2. यह हिंदी के साथ अन्याय है. 3. अखबार के मालिक को किसी भी स्थिति में अखबार चलाना चाहिए, नहीं तो सरकार विवश करेगी. ऐसे कुछ और तीखे सवाल हैं. पर इन सवालों को संदर्भों से काट कर नहीं समझा जा सकता.
इस पूरे प्रसंग को देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति के आलोक में ही समझा जा सकता है. इसे हिंदी इलाके की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में देखना होगा. हिंदी के लिए चिंतित लोगों का असल मानस समझना होगा, अन्यथा ऐसी घटनाएं बराबर होती रहेंगी. हिंदी की दुर्दशा भी होगी. याद करिए, लखनऊ में नवभारत टाइम्स का प्रकाशन स्थगित हुआ, तब भी मुलायम सिंह और हिंदी समर्थकों ने क्या-क्या घोषणाएं की थीं? कितने दिनों तक आंदोलन चला. धरना-प्रदर्शन, उपद्रव हुए. पर क्या हुआ? नभाटा (लखनऊ) खुला? जितने सारे सवाल नभाटा (पटना) के संदर्भ में उठ रहे हैं, वे सब नभाटा (लखनऊ) के बंद होने पर उठे थे, पर क्या उनमें से एक का भी समाधान निकला?
अगर रास्ता यही रहा, तो समाधान न तब निकले थे, और न अब निकलेंगे. क्योंकि हिंदी इलाके के राजनेता, शासक, जनता, नौकरशाह, हिंदी के बुद्धिजीवी, प्रेमी और पत्रकार, कोई भी ऐसी समस्याओं के तह में जाने के लिए तैयार नहीं है. वास्तविकता से लोग आंखें चुरा रहे हैं. सच और तथ्यों से आंखें मूंद कर आंदोलन चलाये जा सकते हैं, पर इससे समाधान नहीं मिलते. इन चीजों से तोड़फोड़-अव्यवस्था फैलायी जा सकती है, पर सृजन नहीं हो सकता, और आज हिंदी इलाके को सृजन चाहिए.
हिंदी राज्यों खासतौर से उत्तरप्रदेश-बिहार में यह सृजन बोध नहीं है. अंग्रेजी में कहें, तो ‘क्रिएटिव रिस्पांस टू क्राइसिस’ (संकट से निबटने के लिए सृजनात्मक कोशिश) हमारे पास नहीं है. क्रूरता, संवेदनहीनता, नफरत और गलत आक्रामकता से समस्याओं का समाधान नहीं होता. इसलिए ऐसे मुद्दों पर आत्ममंथन हो, तो बेहतर. सृजनात्मक प्रयास और संकल्प हो, तो ठीक है. वरना झूठे, आरोप-प्रत्यारोप और आंदोलन से शायद ही राह मिले.वस्तुस्थिति क्या है?
प्रेस काउंसिल जैसी स्वायत्त, निष्पक्ष और संविधान द्वारा स्थापित संस्था ने अपनी स्थापना के बाद पहली बार हाल में कागजों के भावों में लगातार बेतहाशा वृद्धि पर चिंता प्रकट की प्रेस काउंसिल के चेयरमैन न्यायमूर्ति सरकारिया देश के जाने-माने न्यायविदों में से हैं. जब कागज के भावों की वृद्धि की चिंता वह जाहिर कर रहे थे, तब संसद में मौन क्यों था? जो सांसद अब नभाटा के बंद होने से चिंतित हैं, तब वह संसद में क्या सवाल उठा रहे थे? बहुत पहले, 1960 के दशक में ही प्रेस आयोग ने सरकार से कागजों के भावों में स्थिरता रखने का मुकम्मल बंदोबस्त करने को कहा था. दुर्भाग्य है कि इस अनुशंसा के बाद भी 1960 से 1995 तक हमारे सांसद सोते रहे, और कागजों के भावों में बेतहाशा वृद्धि होती रही.
पिछले पांच महीनों में कागज के भाव कितना बढ़े हैं? कितनी बार बढ़े हैं? देशी कागज में 80 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, तो विदेशी कागज में दो गुने से अधिक भाव से बिकने लगे. 1989 में जो कागज 8720 रु टन बिक रहा था, आब ’95 फरवरी में वह 22500 रुपये टन बिक रहा है. सरकारी क्षेत्र के कागज मिलों के भाव देख लीजिए. मात्र चार माह के दौरान नेपा मिल ने चार बार दाम बढ़ाये, जबकि इस मिल ने पांच वर्षों में कागज का मूल्य नौ बार बढ़ाये हैं. 10 अप्रैल के आसपास इन सरकारी मिलों ने पुन: प्रति टन तीन से चार हजार रुपये भाव बढ़ा दिये हैं, जो इस चार्ट में नहीं है.
देश के निजी कागज मिलों द्वारा मनमाने ढंग से की जा रही बढ़ोतरी की बात ही छोड़ दें. इन मिलों के लिए तो स्वर्णयुग है. महीने में दो-दो, तीन-तीन बार कागज की कीमत बढ़ने के बावजूद आज यह नहीं मालूम कि देश में बननेवाले अत्यंत भद्दे, रद्दी और मशीन तोड़क कागजों के भाव कल क्या होंगे? विदेशी कागज के इस्तेमाल का सपना तो छोटे अखबार या प्रकाशन देख ही नहीं सकते.
कागजों के भाव जिस तरह बढ़े या बढ़ाये गये, शायद ही इस तरह की भाववृद्धि किसी दूसरी की इसी अवधि में हुई हो, पर पूरी व्यवस्था, सरकार, राजनीतिज्ञ और कथित बेचैन लोग इस मुद्दे पर चुप रहे. इसकी दो वजहें हो सकती हैं. अखबारविहीन लोकतंत्र, शसकों का सपना रहा है. कागज के दामों में बेतहाशा वृद्धि से अगर अखबार अपने आप बंद हो जाते हैं, तो सरकार या राजनेताओं या अखबारों के लिए इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है? शासक चाहे कांग्रेसी हों या भाजपाई या समाजवादी या साम्यवादी या जनता दल के, किसी को निष्पक्ष, खरा और बेलाग बात कहनेवाला अखबार पसंद नहीं है. इसलिए कागज के भाव बढ़ते रहे, पर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई.
यह तर्क आयेगा कि उन्मुक्त और उदारीकरण के इस दौर में किसी क्षेत्र में कीमत वृद्धि पर अंकुश संभव नहीं है. ऐसी स्थिति में समाज को अपनी प्राथमिकता तय करनी पड़ेगी. अगर समाज-संसद या विधानमंडल तय करते हैं कि निकम्मे राजनेता बगैर कुछ किये राजकोष के खर्चे पर शहंशाह की तरह रहेंगे, बगैर परिश्रम किये पांच सितारा जीवन जीयेंगे, दलाली में करोड़ों-अरबों की हेराफेरी करेंगे, महंगे सरकारी भूखंडों की मामूली कीमत देकर उस पर भव्य अट्टालिकाएं बनवायेंगे, अपने सुरक्षा बंदोबस्त में भारी खर्च करायेंगे और ऐसे अनेक कामों पर सरकारी कोष लुटाएंगे, बहायेंगे, पर कागज के भावों को महंगा करते जायेंगे, पर कागज के भावों को महंगा करते जायेंगे, ताकि लोग हकीकत न जानें. सिर्फ अखबार ही क्यों?
कागज के भाव बढ़ने से पाठ्य पुस्तक-पुस्तिकाएं लगातार महंगी होती जा रही हैं. पर किस राज्य सरकार ने इसकी चिंता की है? मुलायम सिंह की सरकार ने तो पुस्तक विक्रेताओं पर टैक्स ठोक दिया था. अगर सरकार की प्राथमिकता यह है कि राजकोष का बड़ा हिस्सा अनुर्वर (अनप्रोडक्टिव) नेताओं पर खर्च हो, उनकी राजशाही, ठाट-बाट, सुरक्षा पर खर्च हो, पर कागज के भाव बढ़ते रहें, तो ऐसे राजनेताओं को अखबारों के बंद होने पर झूठे आंसू बहाने का अधिकार किसने दिया? अखबारों के कागज के भाव उन्मुक्त रुप से बढ़ें, उन्हें सब्सिडी न दी जाये, वह भी सही. तब साथ यह भी होना चाहिए कि विधायकों, सांसदों की आय, सुरक्षा, तामझाम पर करोड़ों-अरबों सरकारी कोष से न बहाया जाये. देश के नौकरों (नौकरशाही) की लूटपाट और शाही जीवन पद्धति पर रोक लगायी जाये.