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असाध्य रोग के रोगियों को मौत मिले सुकून की
भारत में पैलिएटिव केयर के सूत्रधार डॉ राजागोपाल की कोशिश डॉ एमआर राजागोपाल सहानुभूति आधारित और प्रशामक (पैलिएटिव) यानी दर्द कम करने वाले उपचार की सुविधाएं बढ़ाने की मांग तेज हो रही है, पर भारत इस मामले में काफी पीछे है. लेकिन 68 वर्षीय डॉ एमआर राजागोपाल सन् 1993 में केरल के कोझीकोड में देश […]
भारत में पैलिएटिव केयर के सूत्रधार डॉ राजागोपाल की कोशिश
डॉ एमआर राजागोपाल
सहानुभूति आधारित और प्रशामक (पैलिएटिव) यानी दर्द कम करने वाले उपचार की सुविधाएं बढ़ाने की मांग तेज हो रही है, पर भारत इस मामले में काफी पीछे है. लेकिन 68 वर्षीय डॉ एमआर राजागोपाल सन् 1993 में केरल के कोझीकोड में देश का पहला पैलिएटिव केयर यूनिट, इंस्टीट्यूट ऑफ पैलिएटिव मेडिसीन, शुरू कर असाध्य रोगों से जूझ रहे मरीजों को सुकून की मौत पाने में मदद कर रहे हैं.
मौत की कगार पर पहुंच रहे लोगों की अच्छी देखभाल की मांग दुनियाभर में बढ़ रही है, क्योंकि पुरानी बीमारी से जूझ रहे ऐसे मरीज ज्यादा जीते हैं. ऐसे इलाज में कैंसर, एचआइवी और दौरा पड़ने की वजह से होने वाले दर्द और परेशानी को कम करने पर जोर दिया जाता है.
सहानुभूति आधारित और प्रशामक (पैलिएटिव) यानी दर्द कम करने वाले उपचार का मरने की प्रक्रिया की गुणवत्ता से सीधा संबंध है. देश में मरीजों की हालत पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने और आखिरी दौर से गुजर रहे मरीजों की बात मान कर उन्हें राहत देने का चलन बहुत पिछड़ी स्थिति में है. इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि चयनित जन नीतियां पेश होने के बावजूद बजट आवंटन की कमी के कारण इस दिशा में कुछ खास नहीं हो सका. वर्ष 2015 में इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (इआइयू) ने जीवन रक्षा समापन सेवा (इओएलसी) के क्षेत्र में 30 विकसित और 10 विकासशील देशों की तुलना की थी. इस अध्ययन के मुताबिक मौत की गुणवत्ता के मामले में भारत 40वें पायदान पर था और ब्रिटेन को मरने के लिए सबसे अच्छी जगह बताया गया.
भारत में स्थिति निराशाजनक है, जहां अधिकांश भारतीयों को जिन्हें दर्द कम करने वाले इलाज की जरूरत होती है, उन्हें यह नहीं मिलता और वो भयानक दर्द सहते हुए मर जाते हैं. भारत में विशेषज्ञों, जागरुकता और सुविधाओं की भारी कमी है. लेकिन केरल इसका अपवाद है. इस राज्य में इस तरह की देखभाल के लिए जितने केंद्र हैं, उतने कुल मिला कर पूरे देश में भी नहीं हैं. यह कार्यक्रम इसलिए सफलतापूर्वक चल रहा है, क्योंकि हजारों लोग स्वेच्छा से उन लोगों की देखभाल के लिए अपना समय देते हैं जो असाध्य बीमारियों से पीड़ित हैं, बिस्तर पर हैं और जिनकी मौत नजदीक है.
इस मुहिम की शुरुआत करने का श्रेय जाता है डॉ एमआर राजागोपाल को, जिन्होंने असाध्य रोगों से जूझ रहे लोगों को उनके आखिरी दिन सुकून से बिताने का मौका दिलाते हैं.
68 वर्ष के हो चले डॉ राजागोपाल ने सन् 1993 में केरल के कोझीकोड में देश का पहला पैलिएटिव केयर यूनिट, इंस्टीट्यूट ऑफ पैलिएटिव मेडिसीन, शुरू किया़ उन दिनों डॉ राजागोपाल कोझीकोड मेडिकल कॉलेज में एनेस्थीसिस्ट के रूप में काम कर रहे थे़ वह बताते हैं, तब मैं दर्द से जूझ रहे, खासकर कैंसर के मरीजों का इलाज किया करता था़ तब मुझे महसूस हुआ कि मरीज की कुछ नसों को निष्क्रिय कर उनके दर्द को कम कर देने भर से ही समस्या का समाधान नहीं हो जाता़ डॉ राजागोपाल कहते हैं, हमारा यह प्रयास था कि हम समाज के हर तबके के मरीजों के साथ मिल कर उनकी समस्याएं सुनें और उनके दर्द को कम करने की कोशिश करें. इसके लिए हमने अपने क्लिनिक पर मरीजों को दवाएं लिखनी शुरू की़ लेकिन जब हमने यह जाना कि अधिकांश मरीजों के लिए ये दवाएं खरीदना मुश्किल था, तो हमने उन्हें मुफ्त में मुहैया कराना शुरू किया़
बात यहीं तक सीमित नहीं रही़ लगभग 23 वर्षों पहले एक छोटे से क्लिनिक के रूप में शुरू हुआ पैलिएटिव केयर यूनिट, सन् 2006 से पैलिअम इंडिया के रूप में जाना जाने लगा़ मकसद था पूरे देश भर में असाध्य रोगों से जूझ रहे मरीजों को दर्द कम करनेवाला उपचार मुहैया कराना़ आज की तारीख में पैलिअम इंडिया देश भर के 11 राज्यों में मरीजों को अपनी सेवाएं मुहैया करा रहा है. बड़ी बात यह है कि डॉ राजागोपाल की इस कोशिश को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मान्यता दी है और इससे लाभान्वित होनेवाले लोगों में 82 प्रतिशत मरीज ऐसे हैं, जो समाज के कमजोर तबके से आते हैं.
यहां उपचार का तरीका भी अनोखा है़ मरीजों की सेवा करने और उनका दुख बांटने के लिए वॉलंटियर्स तत्पर रहते हैं और नियमित रूप से इन केंद्रों पर पहुंचते हैं. इस बारे में बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, हर हफ्ते राधा उपासरना जैसे लोग विशेष रूप से प्रशिक्षित डॉक्टरों और नर्सों के साथ मरीजों का घर जाकर इलाज करते हैं.
वो बिस्तर पर पड़े रहने की वजह से होने वाले घाव की जांच करते हैं, खाना पहुंचाते हैं और अक्सर बैठ कर सिर्फ उनसे बातें करते हैं और सुनते हैं. उपासरना कहती हैं कि वह यह न सिर्फ समाज सेवा के लिए करती हैं, बल्कि इससे उन्हें 2014 में अपने पति की मौत के बाद आये अकेलेपन से बाहर आने में भी मदद मिली है. वो कहती हैं, यह काम की तरह नहीं लगता. यह ऐसा कुछ है, जो मैं करना चाहती हूं.
अध्ययन बताते हैं कि करुणा और दया भाव को बतौर विषय पढ़ाया जा सकता है और ब्रिटेन में तो यह गहरी रुचि का विषय है. इसमें कई मूल्य शामिल हैं. मसलन, देख-रेख, सहानुभूति, क्षमता, संचार, साहस, प्रतिबद्धता और कदम, नेतृत्व, सकारात्मक रुख और लोगों के साथ काम करने का उचित कौशल ताकि लोगों को बढ़िया गुणवत्ता वाला उपचार मुहैया कराया जा सके.
इस दौरान समुदायों, लोगों के घरों, चिकित्सकों के कार्यालयों, अस्पतालों आदि जगहों तथा परिचारिका, प्रसाविका, चिकित्सक, मनोविज्ञानी, स्वास्थ्य सहायक, प्रशासक, प्रबंधक आदि की अहम भूमिका होती है. इसके नतीजों में आबादी के सभी वर्गों की स्वास्थ्य सुविधा होती है, खासतौर पर बुजुर्गों की.
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