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पत्रकारों की साझेदारी से गैरकानूनी काम कानून हो जाते हैं?

– दर्शक- सवाल – पूर्व विधानसभाध्यक्ष और मंजे राजनेता गुलाम सरवर ने विधानसभा में हुई नियुक्तियों (जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दी है) के संबंध में कहा है कि इसमें सभी वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व दिया गया है. पत्रकारों को भी. उल्लेखनीय है कि गुलाम सरवर ने ही ये नियुक्तियां की थीं. – […]

– दर्शक-

सवाल

– पूर्व विधानसभाध्यक्ष और मंजे राजनेता गुलाम सरवर ने विधानसभा में हुई नियुक्तियों (जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दी है) के संबंध में कहा है कि इसमें सभी वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व दिया गया है. पत्रकारों को भी. उल्लेखनीय है कि गुलाम सरवर ने ही ये नियुक्तियां की थीं.
– बिहार कॉलेज सेवा आयोग द्वारा नियुक्तियों के संबंध में यह कहा जा रहा है कि पत्रकारों के नुमाइंदे भी इसमें शामिल किये गये हैं.बिहार के इन दोनों प्रकरणों में पत्रकारों का ऐसा उल्लेख गंभीर बात है. गुलाम सरवर अगर यह कहना चाहते हैं कि उन्होंने पत्रकारों के प्रत्याशियों को भी नौकरी दी, तो इसके दो अर्थ निकलते हैं. पहला, पत्रकारों के प्रत्याशियों को शामिल कर लेने से नियुक्तियों की पूरी प्रक्रिया मान्य व वैधानिक हो गयी.

क्या पत्रकारों को ‘उपकृत’ करने से गलत चीज भी सही हो जाती है? क्या पत्रकार पारस पत्थर हैं कि उनके स्पर्श से पत्थर भी सोना बन जाता है? दूसरा, गुलाम सरवर जैसे चतुर लोगों के एक-एक शब्द अर्थवान हैं. निश्चित रूप से पारस पत्थर के प्रसंग में वह पत्रकारों का उल्लेख नहीं कर रहे हैं. उनके कहने का आशय है कि जब लाभ लेनेवालों में पत्रकार भी हैं, तो वे इस सवाल पर क्यों बेचैन हैं? साफ है कि पत्रकारों को शासक वर्ग या राजनेता अपना हिस्सा सिद्ध करने पर तुले हुए हैं, ताकि उनकी गलतियों पर परदा पड़े रहे.

नियुक्तियों का मान्य परंपरा है. सरकार या सार्वजनिक संस्था में खाली पद के अनुसार विज्ञापन निकलते हैं. आरक्षण के प्रावधानों के तहत. फिर सार्वजनिक विज्ञापनों द्वारा आमंत्रित आवेदन आते हैं तथा योग्यता के अनुसार उनकी जांच-परख होती है. तय कसौटियों पर छंटाई. फिर उपयुक्त लोगों को लिखित परीक्षा का साक्षात्कार के लिए न्योता जाता है. साक्षात्कार लेनेवाले विशेषज्ञों की गोपनीय टीमें बनती हैं. फिर सेलेक्शन (नियुक्ति) होता है. नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी तथा गोपनीय भी होती है, ताकि उसमें लोक आस्था कायम रहे. राजतंत्र, सामंत या नवाब भी कुछ सामाजिक मर्यादा मानते थे. वे अपनी मरजी को कानून नहीं मानते थे. अंगरेजों के शासन में भी किसी गवर्नर या आला पद पर बैठे व्यक्ति ने अपनी मरजी से ऐसी नियुक्तियां नहीं की होंगी. ऐसे घोर गलत काम करने के बाद पश्चाताप करने की जगह राजनेता कह रहे हैं कि इसमें पत्रकारों को भी महत्व दिया गया है.
इस नियुक्ति ने क्या संदेश दिया है? हर दल में जो ताकतवर राजनेता हैं (चाहे जिस भी जात या कौम का हों), उनके लोगों की नियुक्ति हुई है.

अफसरों के लाड़ले या स्वजन रखे गये हैं. स्पष्ट है कि शासक वर्ग के लोगों का चयन हुआ है. इसी मुट्ठी भर शासक वर्ग के बाहर गरीबों या सामान्य लोगों की करोड़ों-करोड़ों की जमात है, पर उनके बच्चों को नौकरी नहीं मिली, क्योंकि उनके घर का कोई सदस्य शासक वर्ग में नहीं था. क्या यह सही है? क्या यह देश तय संविधान-कानून के तहत चलेगा या नेताओं की इच्छा के अनुसार? पत्रकार संगठनों को चाहिए कि वे मांग करें कि विधानसभा या व्याख्याता पद पर किन-किन पत्रकारों के लोगों को उपकृत किया गया है, इसकी सार्वजनिक सरकारी सूची जारी हो. पत्रकार संगठन और अखबार यह स्टैंड लें कि कुछ पत्रकारों के लोगों को उपकृत कर पूरी पत्रकारिता को बदनाम करने की यह साजिश गलत है.

जिन पत्रकारों ने लाभ लिये हैं, उनके खिलाफ संबंधित अखबारों को कार्रवाई करने के लिए पत्रकार जगत विवश करे, अन्यथा राजनेता, पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने समकक्ष सिद्ध करने पर तुले हुए हैं. अगर राजनेता व पत्रकार या राजनीति व पत्रकारिता में तालमेल हुआ, तो फिर बोफोर्स, शेयर घोटाला, बैंक घोटाला, चीनी घोटाला, झामुमो रिश्वत प्रकरण, यूरिया घोटाला (राव के घोटाला युग) और बिहार के पशुपालन, सिंचाई, शिक्षा, अलकतरा वगैरह में हुए घोटाला की निष्पक्ष सूचनाएं पाठकों तक कैसे पहुंचेगी?

बिहार कॉलेज सेवा आयोग द्वारा हुई नियुक्तियों में भी ऐसे ही सवाल उठे हैं. क्या पत्रकारों के वार्ड शामिल कर लेने से यह तथ्य नैतिक और सही हो जाता है कि प्रभावी पदों पर बैठे लोगों के स्वजनों की हुई नियुक्ति सही हैं? क्या एक-एक जिम्मेवार व्यक्ति के आठ-दस सगे-संबंधी एक साथ व्याख्याता हो सकते हैं? बिहार के नौ करोड़ लोगों की दुनिया जिम्मेवार पदों पर बैठे लोगों और उनके स्वजनों के बाहर भी बसती है? क्या यही सामाजिक न्याय है? या यह शासक वर्ग का शासितों को तोहफा है. अगर जनता दल के 12 सक्रिय कार्यकर्ता एक साथ व्याख्याता बन सकते हैं, तो कांग्रेस, भाजपा, समता, झामुमो, वामपंथी वगैरह ने क्या गुनाह किया है? क्यों सारे बड़े प्रभावी पदों पर बैठे लोगों के पुत्रों-स्वजनों की प्रतिभाएं एक साथ इस तरह लेक्चरर परीक्षा में ही प्रस्फुटित हुईं. अगर ये योग्य हैं (जैसा दावा किया जा हा है), तो इनमें से एक-एक को बताना चाहिए कि बिना पैरवी के उन्हें कितनी नौकरियां अब तक मिल चुकी हैं?
शिक्षा के कंधे पर चढ़ कर ही बिहार 21वीं शताब्दी में इसके आगे बढ़े राज्यों की बराबरी में बैठ सकता है. आज बिहार देश के अन्य राज्यों में मजदूर (लेबर) सप्लाई करनेवाला सबसे बड़ा राज्य है. दूसरी ओर शिक्षा की ऐसी दुर्गति कहीं और नहीं है. विश्वविद्यालय-कॉलेज अविद्या के केंद्र बन गये हैं. इसके बावजूद व्याख्याताओं की नियुक्ति में ऐसी धांधली, शिक्षा और राज्य को कहां पहुंचायेगी? कहावत है, ‘एक त नीम, ऊपर से तितलौकी.’
दुनिया बड़ी क्रूर है. औद्योगिकीकरण, खगोलीकरण और बाजार व्यवस्था में वही राज्य, समाज टिकेगा, जिसमें आंतरिक ताकत और स्पर्धा में ठहरने की योग्यता है. पैरवी या पिछले दरवाजे से आनेवालों में अक्सर प्रतिभा, योग्यता, श्रम और क्षमता का अभाव होता है. ऐसे लोगों के मन में यह भी होता है कि वे शासक वर्ग के नुमाइंदे हैं. नहीं पढ़ायेंगे, तो उनका कौन क्या बिगाड़ लेगा? अगर पत्रकारों के नुमाइंदे भी इस चयन में शामिल हैं, तो क्या इससे स्थिति सुधर जायेगी?
पत्रकारों को इन मामलों में चौकस रहना पड़ेगा; पशुपालन घोटाले में भी जब-जब पत्रकारों की भूमिका की चर्चा होती है, बेहतर तो यह होता कि सरकार या अधिकृत संगठन सिर्फ आरोप या बयानबाजी के आधार पर नहीं, बल्कि प्रामाणिक ढंग से हर मामले में उपकृत पत्रकारों की सूची सप्रमाण जारी करते, फिर पत्रकारों पर नैतिक दबाव कायम होता. पत्रकारिता की ताकत सिर्फ नैतिक है. पाठकों की अदालत में अब तक वह नैतिक चमक के साथ मौजूद है, उसके प्रति आस्था रहेगी, अन्यथा उसकी स्थिति भी राजनीति की तरह हो जायेगी. पत्रकारों को पत्रकारिता का राजनीतिकरण नहीं होने देना है, यही आज सबसे बड़ी चुनौती है.

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