
अगर सोनिया और राहुल गांधी पीछे मुड़कर देखें और नुकसानों पर नज़र डालें तो कांग्रेस से ममता बनर्जी के बाहर जाने को सबसे बड़ा नुकसान मानेंगे.
करीब दो दशक में राजनीतिक गठबंधनों के उतार चढाव को देख चुकीं सोनिया का भरोसा अपनी ही धारणा कि ‘ममता बनर्जी एक शानदार नेता हैं’ पर मज़बूत हुआ होगा.
कांग्रेस अध्यक्ष 22 दिसंबर, 1997 की उस रात सक्रिय राजनीति में नहीं थीं. बावजूद इसके उन्होंने ममता को कांग्रेस में शामिल रखने के लिए हरसंभव प्रयास किए थे.
सोनिया ने तब के कांग्रेस प्रमुख सीताराम केसरी से ममता को कांग्रेस में बनाए रखने की अपील की थी और मध्यरात्रि में 10, जनपथ के दरवाजे खुलवाए थे.
जब ममता बनर्जी सोनिया गांधी से मिलने पहुंची थीं तब उन्होंने कहा था कि ‘वे राजीव गांधी के लिए कुछ भी कर सकती हैं लेकिन कांग्रेस में नहीं रहेंगी क्योंकि प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस में ममता विरोधी धड़ा खोल रखा है.’

ममता ने 10, जनपथ से बाहर निकलने से पहले सोनिया से कहा था, “अब बहुत देर हो चुकी है. जब आपने मध्यस्थता शुरू की तो मैंने नौ दिनों तक इंतज़ार किया. लेकिन पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी मुझे केवल कैंपेनिंग कमेटी का मुखिया बनाने की बात कह रहे हैं, मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं. तृणमूल कांग्रेस इसका करारा जवाब देगी.”
उस दौर में ममता बनर्जी कहा करती थीं कि सोनिया अगर पार्टी की ज़िम्मेदारी संभालेंगी तो वो कांग्रेस में लौट आएंगी.
लेकिन जब सोनिया ने कांग्रेस की जिम्मेदारी मार्च, 1998 में संभाली तब तक ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के सुप्रीमो के तौर पर जम चुकी थीं.
सालों से सोनिया ये मानती रहीं कि ममता वह कर सकती हैं जो उनके पार्टी के लेफ्टिनेंट नहीं कर सकते- यानी वाम मोर्चे को बंगाल की सत्ता से बाहर करने का कारनामा.
इतना ही नहीं सोनिया का ममता बनर्जी से एक तरह का व्यक्तिगत लगाव भी रहा है.
सोनिया के ममता के प्रति इस लगाव की दुर्लभ झलक 18 साल पहले दिखी थी. राष्ट्रपति भवन में एनडीए मंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद ममता बनर्जी सीधे सोनिया की तरफ बढ़ीं थी, सोनिया पहली पंक्ति में बैठी हुई थीं.

दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया था, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी सहित दूसरे नेता अचरज भरी नज़रों से देखते रहे थे.
सोनिया ने संक्षेप में ममता को बधाई दी थी और पूछा था कि तुम कांग्रेस में लौटोगी? हालांकि दोनों ये महसूस कर रहे थे कि ये एक भावनात्मक अपील भर थी और ममता अपनेपन के साथ मुड़ गई थीं.
ममता बनर्जी ने इसके बाद सोनिया का तब साथ दिया जब उन्होंने विदेशी मूल के व्यक्ति के देश के सबसे बड़े पद पर बैठने पर रोक वाले एनडीए विधेयक को पारित नहीं होने दिया.
इस विधेयक पर एनडीए सरकार की पहली कैबिनेट बैठक के दौरान चर्चा हो रही थी.
2000 में ममता बनर्जी ने बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से तहलका टेप मुद्दे पर केंद्रीय रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. इसके बाद उन्होंने राज्य विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस से हाथ मिलाया लेकिन वाम मोर्चे से चुनाव हार गईं.

इसके बाद बंगाल में वाम मोर्चे के ख़िलाफ़ महाजोत (तृणमूल-कांग्रेस-बीजेपी) को लेकर प्रणब मुखर्जी के लगातार विरोध से तंग आकर ममता बनर्जी ने जनवरी 2004 में एनडीए सरकार में कोयला मंत्री के तौर पर अपनी वापसी कर ली.
मई 2004 में हुए चुनाव में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए चुनाव हार गई थी. तब वाम मोर्चे ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले यूपीए का समर्थन किया था.
ममता सरकार से अलग रहीं, हालांकि उन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें कांग्रेस से हाथ मिलाया और बंगाल में अच्छा प्रदर्शन किया.
यूपीए–2 के समय में कई गड़बड़ियां हुईं और उनमें से एक था कांग्रेस का तृणमूल के साथ रिश्तों का ख़राब होना.
ममता बनर्जी ने 2011 में कैबिनेट छोड़कर बंगाल विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल की और 34 साल बाद वाम मोर्चे को बंगाल की सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया.
लेकिन कांग्रेस इससे प्रभावित नहीं हुई.
ममता को उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री के तौर पर उनके शपथ ग्रहण समारोह में सोनिया और राहुल दोनों मौजूद होंगे लेकिन दोनों समारोह से नदारद रहे.

वजह दी गई कि राष्ट्रीय नेता, राज्यस्तरीय नेताओं के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद नहीं होते.
इससे ममता बनर्जी बुरी तरह आहत हुईं, उन्हें सोनिया से बेहतर बर्ताव की उम्मीद थी. ये माना जाता है कि प्रणब मुखर्जी ने सोनिया को कोलकाता नहीं जाने की सलाह दी थी.
लेकिन कांग्रेस के पुराने दिनों के समर्थकों को भरोसा था कि राहुल ममता को मना लेंगे और अपने निजी संबंधों के बल पर बंगाल में भविष्य की राजनीति का रास्ता बनाएंगे, जो कांग्रेस के लिए बेहतर होगा.

ऐसा मौका 2016 में आया भी था, जब ममता बनर्जी की नीतीश कुमार के आवास पर राहुल गांधी से अचानक मुलाकात हो गई. तब ममता बनर्जी ने राहुल गांधी से अपील की थी कि वे वाम मोर्चे के साथ गठबंधन नहीं करें और तृणमूल को सहयोगी मानें.
राहुल ने इस पर ठंडी प्रतिक्रिया दी और प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया, उस प्रस्ताव को जो आज कांग्रेस को विजयी गठबंधन का हिस्सा बना सकता था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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