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बैंकरप्सी बिल : द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड लोकसभा में पारित
बैंकों को चूना लगा कर मौज करना होगा मुश्किल किसी कारोबारी द्वारा बैंकों का कर्ज चुकता न किये जाने से न सिर्फ बैंकों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी कमजोर होती है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के नुकसान की भरपाई अंततः सरकारी खजाने से करनी पड़ती […]
बैंकों को चूना लगा कर मौज करना होगा मुश्किल
किसी कारोबारी द्वारा बैंकों का कर्ज चुकता न किये जाने से न सिर्फ बैंकों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी कमजोर होती है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के नुकसान की भरपाई अंततः सरकारी खजाने से करनी पड़ती है. यह खजाना देश की सामूहिक आय, नागरिकों द्वारा दिये गये कर और बचत की राशि से बनता है.
इसका मतलब यह है कि परोक्ष रूप से डूब चुके कर्ज की राशि जनता की जेब से ही भरी जाती है. कंपनियों के दिवालिया होने के बढ़ते चलन और इन कंपनियों में विभिन्न बैंकों के लाखों करोड़ रुपये के डूबते कर्जों से उपजी चिंताओं के बीच लोकसभा ने बीते गुरुवार को ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2015’ (दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता) को पास कर दिया.
ज्वाइंट पार्लियामेंटरी पैनल द्वारा सुझाये गये संशोधनों के आधार पर नये रूप में तैयार इस बैंकरप्सी बिल को बीते 27 अप्रैल को लोकसभा में पेश किया गया था. इससे पहले यह बिल 21 दिसंबर, 2015 को लोकसभा में पेश किया गया था, जिसके बाद इसे समीक्षा के लिए संसद की संयुक्त समिति के पास भेजा गया था. अब लोकसभा में पारित बिल को राज्यसभा में पेश किया जायेगा. माना जा रहा है कि इस बिल के कानून का रूप लेने पर भारत में कारोबार करने से जुड़ीं कई मुश्किलें आसान होंगी.
साथ ही, इससे जहां नयी कंपनियां खोलने से संबंधित नियम आसान होंगे, वहीं घाटे में चल रही कंपनियों को कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत बंद करने, कर्मचारियों के बकाया वेतन के भुगतान और बैंकों के कर्जों की रिकवरी की राह भी आसान होगी. इसके महत्वपूर्ण पहलुओं पर नजर डाल रहा है संडे इश्यू.
जानें बैंकरप्सी बिल से जुड़ी कुछ खास बातों को
द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2015’ जिसे संक्षेप में बैंकरप्सी बिल कहा जा रहा है, के कानून का रूप लेने पर बैंकरप्सी से संबंधित अलग-अलग कानून एक साथ सुव्यवस्थित हो जाएंगे. इस कानून के बनने पर बीमार कंपनियों को दिवालिया घोषित करने से संबंधित कानूनी जटिलताएं कम होंगी. घाटे से जूझ रही कंपनी को बंद कर उसकी परिसंपत्तियों को बेचने और देनदारों का भुगतान करने जैसे कदम पहले की तुलना में जल्दी और आसानी से उठाये जा सकेंगे.
एक नये नियामक-इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बोर्ड ऑफ इंडिया- के गठन का प्रस्ताव है, जिसके जरिये कंपनी के दिवालिया होने से जुड़ी तमाम प्रक्रियाओं को अंजाम दिया जायेगा. इसके तहत एक औपचारिक दिवाला समाधान प्रक्रिया का निर्माण किया जायेगा. साथ ही एक ‘इनफॉर्मेशन यूटिलिटी’ भी बनायी जायेगी, जो बैंकों को कर्ज लेनेवालों के बारे में जरूरी सूचनाएं मुहैया करायेगी. ये सूचनाएं नियमित रूप से अपडेट होंगी. इनफॉर्मेशन यूटिलिटी बैंकरप्सी बोर्ड के अधीन काम करेगी. इसके अलावा देश में रजिस्टर्ड इन्सॉल्वेंसी प्रैक्टिसनर का एक नया सिस्टम शुरू होगा.
ऋण नहीं चुकानेवाली कंपनियों पर आरंभिक अवस्था में ही शीघ्र और समयबद्ध कार्रवाई की राह आसान होगी है, जिससे अधिकतम राशि की वसूली की संभावना बनेगी. नियामक को किसी कंपनी को रिवाइव करने या बंद करने के बारे में फैसला 180 दिन के भीतर लेना होगा, जिसके लिए 75 फीसदी कर्जदाताओं की सहमति जरूरी होगी.
इससे कर्जदाताओं को पैसा वसूलने में आसानी होगी. कंपनी की संपत्ति बेचने की लिए एक्सपर्ट्स की खास टीम बनायी जायेगी, जो कंपनी के मैनेजमेंट की जगह लेगी. इसके लिए फास्ट ट्रैक अप्लीकेशन को 90 दिन में निपटाना होगा.
द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बिल पर विचार के लिए बनी संसदीय कमेटी ने सिफारिश की है कि दिवालिया या बंद होने पर कंपनी की परिसंपत्तियों पर पहला हक कर्मचारियों का होना चाहिए. कंपनी की संपत्ति बेचने से प्राप्त होनेवाली रकम से सबसे पहले कर्मचारियों की पिछले दो साल की बकाया सैलरी का भुगतान किया जाना चाहिए. सरकार के बकाये की अदायगी का नंबर इसके बाद आता है.
सरकार जानबूझ कर बैंकों का कर्ज नहीं लौटानेवालों (विलफुल डिफॉल्टर) की विदेशी संपत्ति भी जब्त कर सकेगी. हालांकि इसके लिए सरकार को दूसरे देशों से संधि करनी पड़ेगी.
लोकसभा में बिल पर चर्चा के दौरान वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने बताया कि सरकार ने इस संबंध में कई देशों से पहले ही बात की थी, तब उन्होंने कहा था कि पहले भारत में इसके लिए कानून होना चाहिए. उधर, संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि संपत्ति बेचने की यह शर्त भारत में कारोबार करनेवाली विदेशी कंपनियों पर भी लागू होनी चाहिए.
जानबूझ कर बैंकों का कर्ज नहीं लौटानेवालों के खिलाफ सिर्फ बैंकरप्सी कानून के तहत कार्रवाई नहीं होगी, बल्कि अगर दूसरे कानूनों के तहत भी मामला बनता है तो वह भी चलेगा. मसलन, यदि सरकार को पता चलता है कि कर्ज लेनेवाले ने पैसे का कहीं और या गलत इस्तेमाल किया है, तो जांच एजेंसियां उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज कर सकती हैं.
इस समय किसी कंपनी को बंद करने की प्रक्रियाओं से जुड़े कई कानून हैं. जैसे- पार्टनरशिप एक्ट 1932, सेंट्रल एक्साइज एक्ट 1944, कस्टम एक्ट 1962, इन्कम टैक्स एक्ट 1961, द रिकवरी ऑफ डेट्स ड्यू टू बैंक एंड फाइनांशियल इंस्टीट्यूशंस एक्स 1993, सिक इंडस्ट्रियल कंपनीज रिपेल एक्ट 2003, पेमेंट एंड सेटलमेंट सिस्टम एक्ट 2007, लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप एक्ट 2008 और कंपनीज एक्ट 2013 आदि. इन कानूनों के कई प्रावधानों को संशोधित रूप में इस बिल में शामिल किया गया है. माना जा रहा था कि पुराने कानूनों के प्रावधान जटिल हैं, जिनकी कार्रवाहियों को पूरा करने में लंबा वक्त लग जाता था. नया बिल कानून बनने पर पुराने पड़ चुके बैंकरप्सी कानूनों का स्थान लेगा.
नये बिल में द नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) और द डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल (डीआरटी) के गठन का प्रस्ताव है. एनसीएलटी कंपनियों के दिवाला होने से संबंधित विवादों पर फैसले सुनायेगा. डीआरटी व्यक्तिगत ऋणों की उगाही से संबंधित विवादों पर फैसले देगा. इससे बैंकरप्सी से जुड़े मामलों को निपटाने में अदालतों का बोझ कम होगा और समय भी बचेगा.
इस बिल को अब राज्यसभा में पेश किया जायेगा. वहां से मंजूरी मिलने के बाद यदि कानून बनने की सभी प्रक्रियाएं 31 मई, 2016 तक पूरी कर ली जाती हैं, तो विश्व बैंक की ओर से जारी होनेवाले ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस इंडेक्स’ (कारोबार करने में सुविधा इंडेक्स) में भारत की स्थिति बेहतर हो सकती है. अभी दिवालिया घोषित होने के पैमाने पर 189 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर है.
इस बिल को अब राज्यसभा में पेश किया जायेगा. वहां से मंजूरी मिलने के बाद यदि कानून बनने की सभी प्रक्रियाएं 31 मई, 2016 तक पूरी कर ली जाती हैं, तो विश्व बैंक की ओर से जारी होनेवाले ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस इंडेक्स’ (कारोबार करने में सुविधा इंडेक्स) में भारत की स्थिति बेहतर हो सकती है. अभी दिवालिया घोषित होने के पैमाने पर 189 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर है.
एनपीए कम करने में मिलेगी मदद
एक्सपर्ट व्यू : बैंकरप्सी बिल अच्छा, मगर इसके प्रभावी होने में लगेगा वक्त
सुनील सिन्हा
डायरेक्टर, पब्लिक फाइनांस एंड प्रिंसिपल इकोनाॅमिस्ट
बैंकरप्सी बिल की कुछ महत्वपूर्ण बातों को देख कर यह उम्मीद तो जगती है कि अर्थव्यवस्था को इसका फायदा मिलेगा, लेकिन बिल को कितने कारगर तरीके से लागू किया जायेगा, इस बारे में अभी पक्के तौर पर कुछ कहना मुश्किल है. अभी तो इस बिल को कानून बनना है. उसके बाद भी यह कहना मुश्किल है कि कितने समय बाद सुधार दिखेगा, क्योंकि किसी कानून के प्रभावी होने में भी समय लगता है.
किसी भी अर्थव्यवस्था में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था की गतिविधियां कई कारकों से प्रभावित होती हैं. समय-समय पर उद्योग-व्यापार में भी घाटा-मुनाफा आता रहता है. उद्योग-व्यापार को बढ़ावा देने के लिए बैंक कंपनियों को लोन देते हैं.
कंपनियों के घाटे के चलते अगर बैंक के लोन एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) में बदल जाते हैं, तो कंपनियों और बैंक दोनों के लिए मुश्किल की स्थिति बन जाती है. फिलहाल, एनपीए बढ़ने की स्थिति में कंपनियों के लिए खुद को रीस्ट्रक्चर करना और बैंकों के लिए कंपनियों को दिये लोन की वसूली कर पाना एक मुश्किल और पेचीदा मामला है, क्योंकि हमारे देश में बैंकरप्सी कोड जैसी कोई चीज नहीं है, जैसा कि अमेरिका में है.
कई बार ऐसा होता है कि कंपनियों का बिजनेस नहीं चल पाने की स्थिति में कंपनियां खुद को समेट कर बंद हो जाना चाहती हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पातीं, क्योंकि हमारे देश का कानून इसकी इजाजत नहीं देता. ऐसे स्थिति में कंपनियां खुद को किसी तरह घाटे में ही चलाने की कोशिशें करती रहती हैं और उनके द्वारा लिया गया लोन एनपीए में बदल जाता है. अगर कंपनियां दिवालिया होने से पहले ही समय रहते अपने एसेट्स (परिसंपत्तियां) बेच दें, तो पैसे की कुछ भरपाई हो सकती है और वे कुछ हद तक बैंक कर्ज चुका कर खुद को समेट सकती हैं, और इससे एनपीए जरूर कुछ कम होगा.
लेकिन ऐसा करने में भी काफी वक्त लगता है, क्योंकि बैंक दिवालिया कंपनियों को अगर अपने कब्जे में ले भी लें, तब भी कंपनियों के एसेट्स को बेचने में इतना वक्त लग जाता है कि तब तक पुराने पड़ चुके ढांचागत एसेट्स की कीमत काफी कम हो जाती है. इसीलिए ऐसे मामलों में एक प्रभावी कानून या लीगल चैंबर की जरूरत थी, जो यह बैंकरप्सी कोड काफी हद तक इसका पूरा हो सकता है. इस बैंकरप्सी कोड के कानून बन जाने के बाद कंपनियों और बैंक दोनों को कुछ सहूलियतें मिल जायेंगी, जिससे एनपीए कम करने में मदद मिलेगी.
जहां तक डिफाल्टरों से पैसा वसूलने की बात है, तो यह इस चीज पर निर्भर करता है कि हमारा कानून कैसा बनेगा और उसके प्रावधान कितने त्वरित तथा कारगर तरीके से प्रभावी होंगे.
किसी भी देशी-विदेशी कंपनी की संपत्ति अगर इस देश में है, तो उस पर यह कानून काम करेगा. लेकिन, अगर भारतीय कंपनी की संपत्ति विदेश में है, तो उस पर यह कानून काम कर पायेगा कि नहीं, यह अभी एक पेचीदा मामला है. सिर्फ पेचीदा ही नहीं, बल्कि ऐसा कर पाना नामुमकिन-सा लगता है, भले ही वह संपत्ति छिपायी गयी हो या जाहिर हो.
दरअसल, देश में जो मौजूदा बिल हैं, उनके तहत कंपनी के दिवालिया होने की स्थिति में उसको बंद करना या संपत्तियों को समय रहते बेचने की काफी मुश्किलें आती हैं. इन मुश्किलों को कम करने में यह नया बिल प्रभावी होगा. हालांकि, ऐसा कहा जा रहा है कि अगर यह बिल राज्यसभा से भी पास हो जाता है, तो एक-दो साल के अंदर बैंकों के एनपीए काफी कम हो जायेंगे, लेकिन मेरे ख्याल में यह इतना जल्दी नहीं होगा. किसी कानून के आने और उसके प्रभावी इस्तेमाल के बाद उसका परिणाम आने में एक लंबा वक्त लगता है. ऐसा नहीं होगा कि आज बिल पास हुआ, तो कल से सारी चीजें दुरुस्त हो जायेंगी.
जहां तक कर्मचारियों के हितों का सवाल है, तो मैं समझता हूं कि यह बिल कर्मचारियों के नजरिये से अच्छा है. अब तक ऐसा होता रहा है कि बिना कर्मचारियों की सैलरी दिये या बिना बैंकों का कर्ज चुकाये कंपनियां खुद को दिवालिया घोषित कर देती थीं. अगर कंपनियों ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, तो उनकी संपत्ति को जप्त करने में काफी मुश्किलें आती थीं.
लेकिन इस बिल के तहत कंपनी के बंद होने के लिए एक निर्धारित समय-सीमा होगी और कर्जदाताओं की अनुमति भी जरूरी होगी. उसके बाद उसकी संपत्तियों को बेच कर सबसे पहले कर्मचारियों की सैलरी का ही भुगतान किया जायेगा. इसलिए मैं समझता हूं कि कंपनियों, उनके कर्मचारियों और कर्जदाताओं के बीच बैलेंस स्थापित करेगा यह बिल. कंपनियों को लंबे अरसे तक कानूनी खींचतान से बचायेगा, कर्मचारियों की बकाया सैलरी का भुगतान करायेगा और कर्जदाताओं के लिए वसूली की राह आसान बनायेगा.
व्यापार-उद्योग की दृष्टि से देखें, तो यह कोई जरूरी नहीं कि अगर आज धंधा अच्छा चल रहा है, तो कल भी ऐसे ही चलता रहेगा. दिन-प्रतिदिन प्रतियोगिता बढ़ रही है. नित नयी कंपनियां और उद्योग खड़े हो रहे हैं. किसी कंपनी का किसी चीज पर एकाधिकार तो रहेगा नहीं, इसलिए प्रतिस्पर्धा तेज होगी.
इस प्रतिस्पर्द्धा में जो पिछड़ जायेंगे, वही दिवालिया की स्थिति को प्राप्त होंगे. दिवालिया होंगे तो एनपीए बढ़ेगा ही. ऐसे में एक प्रभावी बिल की जरूरत थी, ताकि जल्द से जल्द ऐसे मामलों का निपटारा हो सके. ऐसे में इस बिल का आना एक अच्छा कदम माना जा सकता है, लेकिन हमें इसे जादू की छड़ी की तरह नहीं, बल्कि लंबे समय के लिए एक प्रभावी कानून की तरह देखना चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
नये कानून से जानबूझ कर कर्ज नहीं चुकानेवाले लोगों और कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई और उनकी संपत्ति जब्त करने में आसान होगी. नया कानून इससे संबंधित पुराने कानूनों की जगह लेगा, जिनमें से कई तो सौ साल से भी ज्यादा पुराने थे.
– जयंत सिन्हा, वित्त राज्य मंत्री, बिल पर चर्चा के दौरान
यह बिल आर्थिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. हमारी अर्थव्यवस्था को इसकी जरूरत है.
– सुष्मिता देव, कांग्रेस
बैंकरप्सी कानून को किंगफिशर एअरलाइंस जैसे मौजूदा मामलों पर लागू करना कठिन हो सकता है. यह सही दिशा में उठाया गया सराहनीय कदम है. पर इसे भावी मामलों में किस तरह सफलतापूर्वक लागू किया जायेगा, यह देखा जाना अभी बाकी है. इसका प्रभावी होना दूसरे देशों के साथ अनुकूल समझौतों तथा भारतीय प्राधिकरणों की क्षमता पर निर्भर करेगा.
– राकेश नांगिया, बाजार विश्लेषक
बहुत जरूरी था यह बिल
अंजन रॉय
पूर्व आर्थिक सलाहकार, फिक्की
अमेरिका, इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस आदि के साथ ही दुनिया के कई अन्य विकसित देशों में बैंकरप्सी कोड है, जिससे वहां की कंपनियों के दिवालिया होने पर उन्हें जल्दी से बंद करने और उसकी संपत्तियों को बेच कर कर्ज चुकाने में आसानी होती है. भारत में बैंकरप्सी कोड अभी तक नहीं है, इसलिए यहां किसी कंपनी के बंद होने की स्थिति में उस पर ताला लगा कर ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाता है. इससे न तो बैंक का कर्जा चुकता है और न ही कंपनी के कर्मचारियों की बकाया सैलरी ही मिल पाती है.
दूसरी बात यह कि कंपनी शुरू करनेवाला भी इस स्थिति में कुछ भी नहीं कर सकता है, क्योंकि मौजूदा कानून उसको इस बात की इजाजत नहीं देते. इस स्थिति से पार पाने के लिए देश में बैंकरप्सी कोड यानी बैंकरप्सी लॉ की जरूरत अरसे से महसूस की जा रही थी. पिछले दिनों लोकसभा में बैंकरप्सी बिल के पास हो जाने के बाद अब अगर यह बिल राज्यसभा में भी पास हो जाता है, तो यह बहुत अच्छा कदम माना जायेगा. इस कदम से सबसे ज्यादा लाभ बैंकों और बंद होनेवाली कंपनी के कर्मचारियों को होगा. इस बिल के प्रावधानों के तहत बंद पड़ी कंपनी चाहे जिस हालत में है, एक निर्धारित समय-सीमा में उसकी संपत्तियों को बेच कर पैसे की उगाही की जा सकेगी.
दरअसल, हमारे देश में िबजनेस शुरू करना तो आसान होता है, लेकिन बिजनेस के फेल हो जाने के बाद की स्थितियों से निपटने की नीति हमारे पास नहीं है. बिजनेस खड़ा करने में जो पैसा लगाया जा रहा है, चाहे वह लोन लेकर लगाया जा रहा हो या किसी अन्य स्रोत से, बिजनेस के फेल होने के बाद इसकी भरपाई कैसे होगी, इसी बात को बैंकरप्सी बिल में रेखांकित किया गया है. अच्छी बात यह है कि अगर कोई खुद को दिवालिया घोषित कर दे, तो इसके प्रावधान के तहत वह खुद भी जल्दी से अपने कंपनी के एसेट्स को बेच सकता है और कोई नया बिजनेस शुरू कर सकता है.
(बातचीत पर आधारित)
जान-बूझ कर कर्ज हड़पनेवालों के आगे असहाय हैं बैंक
वर्ष 2013 से 2015 के दौरान सरकार के स्वामित्ववाले 29 बैंकों द्वारा 1.14 लाख करोड़ रुपये के डूबे हुए कर्ज माफ करने संबधी इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने बीते मार्च में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को जान-बूझकर दिवालिया हुए (विलफुल डिफॉल्टर) लोगों की सूची जारी करने का निर्देश फिर से दिया था. रिजर्व बैंक के अनुसार विलफुल डिफॉल्टर वे कर्जदार हैं, जो समुचित नगदी और परिसंपत्तियों के मालिक होने के बाद भी जान-बूझकर बैंकों से लिये गये कर्ज नहीं चुकाते हैं.
इससे पहले न्यायालय ने 16 दिसंबर, 2015 को रिजर्व बैंक के उस तर्क को खारिज कर दिया था कि ऐसी सूची जारी करने से रिजर्व बैंक, विभिन्न बैंकों और उन ग्राहकों के बीच भरोसे के संबंध को नुकसान पहुंच सकता है. बहरहाल, रिजर्व बैंक ने गोपनीयता बरतने के निवेदन के साथ सीलबंद लिफाफे में ऐसे दिवालियों की सूची सौंपी है, जिनके पास सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 500 करोड़ रुपये या इससे अधिक बकाया हैं. लेकिन कर्ज के बारे में सूचना संग्रहित करनेवाली एजेंसी ‘सिबिल’ (सीआइबीआइएल) ने अपनी रिपोर्ट में दिसंबर, 2015 तक के ऐसे लोगों के बारे में जानकारी दी है. ये सूचनाएं इस प्रकार हैं
बैंकों द्वारा कर्जमाफी
1,14,182 करोड़ रुपये के डूबे कर्ज माफ किये 29 सरकारी बैंकों ने 2013-15 के बीच, जो इस अवधि के पहले के नौ वर्षों के दौरान दी गयी माफी से बहुत अधिक है. वर्ष 2004 से 2015 के बीच कुल 2.11 लाख करोड़ रुपये के कर्ज माफ किये.
52,542 करोड़ की राशि थी डूबे कर्ज के रूप में मार्च, 2015 तक, रिजर्व बैंक के अनुसार. जबकि मार्च 2012 में डूबे कर्ज की राशि मात्र 15,551 करोड़ रुपये थी.(स्रोत : द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट)
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