यह दुखद किंतु सत्य है कि हमारे लेखकों-बुद्धिजीवियों के सोचने का ढंग, उनकी विचार प्रक्रियाएं, बहुत हद तक पश्चिम-प्रेरित और उपनिवेशीकृत हैं. और, यह जानने-समझने के लिए औपनिवेशिक भारत के इतिहास और दस्तावेजों की खाक छानने की दरकार नहीं, हिंदी के किसी भी समकालीन लेखक-बुद्धिजीवी का कोई भी वैचारिक आलेख, आलोचना या टिप्पणी देख लें, हमारे तमाम नामवर पश्चिमी लेखकों-चिंतकों के उद्धरणों के बिना अपनी कोई बात आत्मविश्वास के साथ कह सकने में खुद को असहाय महसूस करते हैं.
दुर्भाग्यवश हिंदी में स्त्री-विमर्श भी इसी ‘वैचारिक बेचारगी’ का शिकार हो गया. हद तो यह है कि हिंदी साहित्यालोचना में लंबे समय से सक्रिय ज्यादातर स्त्री समालोचकों को भी भारतीय स्त्रियों को केंद्र में रख कर रचे गये साहित्य के मूल्यांकन के लिए जर्मेन ग्रीयर, वर्जीनिया वुल्फ और सिमोन द बोउवार की दरकार पड़ती है. आज भी!
हमारा औपनिवेशिक मानस इसकी वजह हो सकता है. दूसरी वजह शायद इन बौद्धिक स्त्रियों का विश्वविद्यालयों और एकेडमिक दुनिया से जुड़ा होना है, जहां लकीर पीटते रहना ही मौलिक होने का सबसे बड़ा प्रमाण मान लिया जाता है. इसके समानांतर यह भी सच है कि हिंदी में ज्यादातर लेखिकाएं निम्न-मध्यवर्ग/मध्यवर्ग से आती हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं. साथ ही बहुलतावादी भारतीय समाज में अलग-अलग वर्गों, जाति और समुदायों की स्त्रियों के प्रेम, यातना और मुक्ति के संदर्भ एकदम जुदा हैं. सामाजिक न्याय की कहीं विलंबित और कहीं स्थगित हो चुकी प्रक्रिया ने इस पहेली को और भी दुरूह व बहुस्तरीय बना दिया है. बावजूद इसके यह कहने में कोई दुविधा नहीं कि पिछले एक दशक में हिंदी में कई प्रतिभाशाली लेखिकाएं-कवयित्रियां उभरी हैं, जिन्होंने अपने सृजनात्मक लेखन में इस वैविध्य और बहुलता के बीच भारतीय स्त्री के ‘भीतर’ और ‘बाहर’ की जद्दोजहद को बड़ी कुशलता से अभिव्यक्त किया है. इन्हीं में से दो रचनाकारों की रचनाएं ‘साहित्य सोपान’ के इस अंक में आपके लिए. जयश्री रॉय की कहानी ‘पिंजरा’ में घर की चहारदीवारी में कैद शराबी पति के घर लौट आने की प्रतीक्षा में पहाड़-से दिन काटती एक निम्नवर्गीय स्त्री आंगन में टंगे पिंजरे में बंद शोर मचाते तोते को देखती है. तोता सांझ के ललछौंहे आकाश में आजाद पक्षियों को देख व्याकुल है. पिंजरे से तोते को आजाद करते हुए औरत मुक्ति की अपनी अतृप्त प्यास से रूबरू होती है. उसके भीतर की जंग खायी सलाखें मानो यकायक टूट कर बिखर जाती हैं !
स्त्रियां प्रेम में ही जीती हैं, संपूर्णता पाती हैं. स्त्री का पर्यायवाची है प्रेम. रेणु हुसैन की कविता ‘लैंडस्केप’ देखें- ‘मेरे भीतर उमड़ने लगा प्रेम/ तुम्हारी याद के आने से पहले.’ लेकिन वह यातना के घेरों से अनजान नहीं. घेरे तोड़ने की अदम्य जिजीविषा है उसमें. सुपरिचित कथाकार सरिता शर्मा का उपन्यास ‘जीने के लिए’ भारतीय मध्यवर्ग के चारित्रिक दोहरेपन के दुष्चक्र में फंसी एक मामूली औरत के लोमहर्षक यथार्थ की ईमानदार अभिव्यक्ति है. ‘जेरे बहस’ स्तंभ में पढ़िए, उपन्यास पर जयप्रकाश की समीक्षा के संपादित अंश.
ई-मेल :hamarabharat3@gmail.com