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अनाथ बच्चों का सहारा बनीं वंदना

निरभ किशोरगोड्डा की वंदना दुबे ने स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से अनाथ बच्चों के लिए आश्रम बना कर काम करना शुरू किया. स्वामी विवेकानंद अनाथ सुरक्षा आश्रम की शुरुआत उन्होंने 12 जनवरी 2005 में की. आठ बच्चों से शुरू किये गये इस आश्रम में आज 31 बच्चे हो गये हैं. वे इन बच्चों के पालन-पोषण […]

निरभ किशोर
गोड्डा की वंदना दुबे ने स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से अनाथ बच्चों के लिए आश्रम बना कर काम करना शुरू किया. स्वामी विवेकानंद अनाथ सुरक्षा आश्रम की शुरुआत उन्होंने 12 जनवरी 2005 में की. आठ बच्चों से शुरू किये गये इस आश्रम में आज 31 बच्चे हो गये हैं.

वे इन बच्चों के पालन-पोषण के साथ इनकी शिक्षा का भी बंदोबस्त करती हैं. बीए पार्ट वन की पढ़ाई के दौरान ही वंदना के दिमाग में अनाथ बच्चों के लिए कुछ काम कर करने का आइडिया आया. यह प्रेरणा उन्हें स्वामी विवेकानंद की किताब पढ़ने से मिली. उनके आश्रम में पल रहे सभी बच्चे ऐसे बच्चे हैं जिनके मां-बाप ने बचपन में ही छोड़ दिया या फिर अपने नवजात को छोड़ दिया था. इन बच्चों का पालन-पोषण आज वंदना कर रही हैं.

सरकारी सहयोग के बिना चल रहा है आश्रम
वंदना का यह अनाथ आश्रम किसी सरकारी सहायता के बिना ही कुशलतापूर्वक चल रहा है. नौ वर्षो में कई बार वंदना ने कोशिश की कि उन्हें कल्याण विभाग या अन्य सरकारी संस्थाओं से सहयोग मिले. इसके लिए उन्होंने जनप्रतिनिधियों के दरवाजे भी खटखटाये, लेकिन उन्हें अबतक किसी प्रकार की न आर्थिक मदद नहीं मिली है. वंदना कहती हैं कि भगवान ने जिसे जन्म दिया है, उसके पालन-पोषण का प्रबंध वही करता है. उन्हें कई बार नमक-भात तो कई बार सूखी रोटी देकर भी बच्चों को पालना पड़ा है. आश्रम के बच्चों में एक बच्ची वैष्णवी वंदना को मां कह कर पुकारती है,जबकि दूसरे बच्चे उसे दीदी कह कर पुकारते हैं. वैष्णवी स्थानीय नहर चौक पर गाड़ी में मिली थी. आश्रम में सुशीला, मारसिला, बबली, कल्पना, चंदा, पूनम, प्रमीला, गुड़िया, रजनी, रूबी, अनीता, मोनिका, टीना व पूजा सहित 31 लड़के -लड़कियां हैं. बच्चों को पालने के साथ-साथ वे निजी स्कूल में उनका नामांकन करवा कर उन्हें शिक्षा भी दिलवा रही हैं.

क्या कहती हैं वंदना
वंदना कहती हैं कि अनाथ बच्चों को पालने के दौरान कई तरह की विकट परिस्थितियों से गुजरना पड़ा. एक लड़की या महिला जब घर से निकलती है, तो समाज की सोच को देखना, महसूस करना व उससे लड़ना भी पड़ता है. पहले लोग बच्चों को मंदिर में घूसने नहीं देते थे व कुंवारी पूजन से भी मना करते थे. वहीं आज बच्चों के पांव पखार कर पूजते हैं.वदंना कहती हैं – हमने समाज की रूढ़ियों को कम करने में सफलता पायी है. साथ ही मुख्य धारा से अनाथ को जोड़ने में भी सफलता पायी है.

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