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रेस्टॉरेंट के अंदर टीवी फ़ुल वॉल्यूम पर चल रहा है. पाकिस्तानी टीवी ऐंकर पूरे जोश के साथ चिल्ला रहा है.
और वहां बैठे दो साहब लगभग उतने ही जोशोख़रोश के साथ मुर्ग़े की टांग नोच रहे हैं. नज़र टीवी पर गड़ी हुई है और हड्डियां चबाते-चबाते बीच-बीच में सियासतदानों पर लानत भी बरसा रहे हैं.
ये है अमरीका के लिटिल पाकिस्तान की एक तस्वीर.
अब चलते हैं मिनी इंडिया. मिठाई की दुकान में हिंदुस्तानी टीवी ऐंकर भी उतनी ही ज़ोर से चीख़-चिल्ला रहा है. मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बनकर अमरीका आ रहे हैं. दुकान में चाय और मठरी के बीच मोदीजी की वाहवाही हो रही है.
अमरीका में न जाने कितने ऐसे लिटिल और मिनी मुल्क बसे हुए हैं. जो जहां से उखड़ा वहां के कुछ क़तरे साथ ले आया और उन्हें यहां बिखेरकर अपने जड़ों को ज़िंदा रखने की कोशिश करने लगा.
इन इलाक़ों की दुकानों में और अड्डों पर अमरीका कहीं से नहीं नज़र आता. नवाज़ शरीफ़ और पनामा पेपर्स की बात हो या भारत से नए घोटाले की ख़बर आ रही हो, यहां रहनेवालों को उसकी पूरी ख़बर रहती है, कई बार तो शायद भारत-पाकिस्तान में रहनेवालों से भी ज़्यादा.
लेकिन यहां सीएनएन, फ़ॉक्स न्यूज़, न्यूयॉर्क टाइम्स या वाशिंगटन पोस्ट नहीं दिखते, उर्दू, हिंदी और गुजराती अख़बार नज़र आते हैं.
तो ऐसे में जब वहां अमरीकी चुनावों की बात करने पहुंचिए तो सवाल-जवाब कुछ यूं होता है.
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जनाब, आपलोगों के लिए इस चुनाव में अहम मुद्दा क्या है?
–बस जी, मुद्दा-वुद्दा कोई नहीं. अल्ला का शुकर है सब कुछ ठीक-ठाक है.
तो यहां जो ट्रंप साहब इमिग्रेशन पर बातें कर रहे हैं, मुसलमानों को यहां आने से रोकने की बात कर रहे हैं, नौकरियां सिर्फ़ अमरीकियों को देने की बात कर रहे हैं उस बारे में क्या ख़याल है आपका?
–ग़लत बात है जी.
तो वोट डालने जाएंगे या नहीं?
पूरे जोश के साथ कहते हैं – हां जी बिल्कुल जाएंगे.
वोट किसे देंगे?
– हैरी क्लैंटन को.
क्यों?
– क्योंकि वो पाकिस्तान के लिए सही है जी. पाकिस्तान का भला करेगी वो.
फिर मुलाक़ात हुई दो भारतीय मूल के अमरीकियों से जो पूरे ज़ोर-शोर के साथ ट्रंप का साथ दे रहे हैं.
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क्यों?
जवाब आता है – क्योंकि वही है जो पाकिस्तान को सबक़ सिखा सकता है.
थोड़ा और कुरेदने पर कहते हैं – ये ओबामा भारत-भारत करता है, मोदी से गले मिलता है और पाकिस्तान को एफ़-16 बेचता है. डेमौक्रैट्स ने आज तक भारत का भला नहीं किया, रिपबलिकन जॉर्ज बुश ने जो हमारे लिए किया वैसा किसी ने नहीं किया.
यानि चुनाव अमरीका में और मुद्दे भारत-पाकिस्तान के.
मुझे लगता है हम देसी वैसे भी बहुत सारा सामान लेकर चलने के लिए बदनाम हैं. एयरपोर्ट हो, रेलवे स्टेशन हो आमतौर पर सबसे बड़े सूटकेस और गठरियां हमारी ही होती हैं, अक्सर एक्स्ट्रा बैगेज की फ़ीस के लिए बकझक करते हम ही नज़र आते हैं.
और साथ में हम सत्तर साल से एक अलग बैगेज ढो रहे हैं जो लगता है जैसे हर गुज़रते दिन के साथ और भारी ही होता जा रहा है. अमरीका में अमेरिकन ड्रीम के पीछे भाग रहे होते हैं लेकिन साथ ही वो पुरानी गठरी भी ढो रहे होते हैं.
यहां डॉनल्ड ट्रंप के चाहनेवालों में एक भारतीय सिख और एक पाकिस्तानी मुसलमान भी हैं – जसदीप सिंह और साजिद तर्रार – दोनों का ज़िक्र मैं पहले भी कर चुका हूं. दोनों बहुत अच्छे दोस्त हैं और काफ़ी कामयाब बिज़नेस है यहां उनका.
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बातचीत के दौरान जसदीप सिंह ने एक बात कही थी जो मेरे साथ रह गई.
उन्होंने कहा, "बंटवारे के दौरान हम दोनों ने एक दूसरे पर बहुत ज़ुल्म किए. लेकिन ज़रा सोचिए सत्तर बरस के बाद भी कभी हमने एक दूसरे से उसके लिए माफ़ी नहीं मांगी."
भारतीय जेल में बरसों बंद रहे और पुलिस की यातना से गुज़रे एक अमरीकी क़ैदी ने अपनी किताब में एक बात लिखी थी – "अगर मैं माफ़ नहीं करता तो भूल नहीं पाता. इसलिए मैने उन पुलिसवालों को माफ़ कर दिया."
सोच कर देखिएगा. तीन चार जंगें कर लीं, हर दूसरे-तीसरे महीने बातचीत की कोशिशें भी कर लेते हैं, फिर एक दूसरे को कभी दिल्ली से तो कभी इस्लामाबाद से तो कभी यूएन के हेडक्वार्टर से खरी-खोटी भी सुना डालते हैं लेकिन कुछ नहीं बदलता.
क्या पता एक दूसरे से माफ़ी मांग लें, तो शायद आप और हम भी भूल सकें. कुछ ज़्यादा ही सिंप्लिस्टिक सा नुस्ख़ा है, लेकिन क्या पता किसी जड़ी-बूटी की तरह काम कर जाए.
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