Advertisement
सूखे का संकट : एक चौथाई से अधिक आबादी चपेट में
सूखे के कहर से जूझता देश देश के विभिन्न हिस्सों में सूखे का संकट निरंतर गंभीर होता जा रहा है. केंद्र सरकार के अनुसार करीब 33 करोड़ यानी देश की कुल आबादी का 25 फीसदी हिस्सा सूखे की आपदा का सामना कर रहा है. जानकारों के अनुसार यह आंकड़ा इससे कहीं अधिक हो सकता है. […]
सूखे के कहर से जूझता देश
देश के विभिन्न हिस्सों में सूखे का संकट निरंतर गंभीर होता जा रहा है. केंद्र सरकार के अनुसार करीब 33 करोड़ यानी देश की कुल आबादी का 25 फीसदी हिस्सा सूखे की आपदा का सामना कर रहा है. जानकारों के अनुसार यह आंकड़ा इससे कहीं अधिक हो सकता है. सूखा और पीड़ितों को राहत देने से संबंधित एक याचिका पर इन-दिनों सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई भी चल रही है. ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि सरकारें सूखे की समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में ठोस कदम उठायें. जल स्रोतों के समुचित प्रबंधन, वितरण और उपभोग को सुनिश्चित करने के उपायों की जरूरत है. प्रस्तुत है सूखे के मौजूदा संकट, इसके कारणों तथा कारगर समाधान का विश्लेषण…
महाराष्ट्रः रबी फसल पर असर
भयावह सूखे की मार झेल रहे महाराष्ट्र के किसान खरीफ फसल में हुए भारी नुकसान के झटके से उबर ही नहीं पाये हैं कि उन्हें रबी फसलों की उपज में कमी का सामना करना पड़ रहा है. सूखे के कारण रबी के मौसम में खेती के लिए प्रयुक्त भूमि और उत्पादन में कमी आयी है. राज्य में इस वर्ष 62.44 लाख हेक्टेयर भूमि खेती के लिए उपलब्ध थी, पर कृषि विभाग द्वारा मुहैया कराये गये आंकड़ों के अनुसार सिर्फ 77.49 फीसदी हिस्से पर ही रबी फसलों की खेती की गयी जिनमें ज्वार, मक्का, दालें और कपास मुख्य हैं.
खरीफ मौसम में उपलब्ध जमीन का 93 फीसदी हिस्सा खेती के लिए प्रयुक्त हुआ था. दालों के लिए 1.7 मिलियन टन, कपास के लिए सात बिलियन गांठ तथा अनाज के लिए 22.38 मिलियन टन पैदावार का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन सभी फसलों के कुल उत्पादन में 17 फीसदी कमी का अनुमान है. यह भी आकलन लगाया जा रहा है कि प्रति हेक्टेयर भूमि की उर्वरा शक्ति में भी 25 फीसदी की कमी होगी. खरीफ के मौसम में लक्ष्य से 36 फीसदी कम पैदावार हुई थी. पिछले मौसम में मक्के की खेती के रकबे में 27 फीसदी कमी हुई थी और लक्ष्य से 39 फीसदी कम उत्पादन हुआ था. इसी तरह से गेहूं की बुवाई 40 फीसदी कम क्षेत्र में हुई थी और उत्पादन लक्ष्य से 26 फीसदी कम हुआ था. सोयाबीन का रकबा 35 फीसदी कम हुआ था और लक्ष्य से 55 फीसदी कम उत्पादन हुआ था.
महाराष्ट्र का 70 फीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में है जिसमें 28 हजार से अधिक गांव और 90 लाख किसान हैं. राज्य में करीब 1.36 करोड़ किसान हैं. किसान सिर्फ कृषि संकट से ही नहीं, बल्कि कर्ज के बोझ से भी दबे हैं. पिछले वर्ष 3,328 किसानों ने आत्महत्या की है, जो बीते 15 सालों की सबसे बड़ी संख्या है. लगातार दो सालों से कमजोर मॉनसून ने राज्य के विकास को भारी नुकसान पहुंचाया है.
मध्य प्रदेशः आसन्न संकट
राज्य के राजस्व विभाग के रिपोर्टों में गंभीर आशंका जतायी गयी है कि दो सालों के कमजोर मॉनसून के कारण इस वर्ष अप्रैल से जून के बीच मध्य प्रदेश के कई जिलों में सूखे की स्थिति पैदा हो सकती है. राज्य के 40 जिलों में गर्मी के मौसम के आगमन से पहले ही कूंओं और हैंडपंपों से काफी कम पानी निकल रहा है, क्योंकि भूमिगत जल-स्तर लगातार नीचे जा रहा है. चंबल और बुंदेलखंड के इलाके सबसे अधिक प्रभावित हैं. सूखे से अभी तक राज्य के 228 तहसीलों के 48 लाख किसान परेशान हैं और 44 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में स्थिति बहुत गंभीर बनी हुई है. पिछले साल पूर्वी मध्य प्रदेश में सामान्य औसत का 29 फीसदी बारिश ही हुई थी. पूरे राज्य में 12 फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड की गयी थी.
हरियाणाः पानी की कमी
हरियाणा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को जानकारी दी है कि पिछले साल जून और सितंबर के बीच 28.8 फीसदी कम बारिश हुई थी, पर राज्य में अभी सूखे की स्थिति नहीं है. दस वर्षों के औसत 51 सेंटीमीटर बारिश के मुकाबले 36.3 सेंटीमीटर बारिश ही हुई थी, लेकिन इसका असर कृषि पर नहीं पड़ सका था, क्योंकि 83 फीसदी सिंचाई नहरों और ट्यूबवेलों के द्वारा की गयी थी. हालांकि, राज्य सरकार ने यह माना है कि हरियाणा के छह राज्यों में बारिश 50 फीसदी से अधिक कम हुई थी. इस वर्ष मार्च तक राज्य के 7.958 बस्तियों में से सिर्फ 335 में पेयजल की कमी हुई थी, जिसे टैंकरों आदि से पूरा किया गया. सूखा-संबंधी केंद्रीय नियमावली के आधार पर यह स्थिति सूखे का संकेत देती है. इसके आधार पर अदालत ने हरियाणा सरकार को उसके अगंभीर रवैये पर फटकार भी लगायी है.
गुजरातः गंभीर सूखे के कगार पर
राज्य सरकार द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार नर्मदा नदी पर स्थित सरदार सरोवर बांध समेत सभी छोटे-बड़े बांधों में अभी 3503.87 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी बचा है, जो उनकी कुल क्षमता का महज 21.74 फीसदी है. गुजरात के अनेक हिस्सों में जल संकट को देखते हुए सरकार ने 56 बांधों में पानी रखने का निर्देश दिया है, ताकि लोगों को पीने का पानी मुहैया कराया जा सके. अभी तक सौराष्ट्र और कच्छ के 994 गांवों को संकटग्रस्त घोषित किया गया है. राज्य के 14 जिलों के 317 गांवों में टैंकरों से पानी पहुंचाया जा रहा है.
पानी की कमी से जूझ रहे इलाकों में 1.37 लाख से अधिक लोगों को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत रोजगार देकर मदद करने का प्रयास जारी है. सूखे से निपटने के लिए किये जा रहे उपायों के बारे में शपथ-पत्र नहीं जमा करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की आलोचना की है. माना जा रहा है कि मई के मध्य तक सूखे से प्रभावित गांवों की संख्या 2,500 तक हो सकती है, जो राज्य के करीब 18 हजार गांवों का 15 फीसदी हिस्सा है. करीब 8,050 गांव नर्मदा नहर से जुड़े हैं. सरकारी अधिकारियों के अनुसार राज्य के पास करीब 3.5 करोड़ किलो पशु चारा है और उसके पास एक करोड़ चारा उत्पादित करने की क्षमता है.
झारखंड में पानी की किल्लत
अपार जल-संपदा से भरा-पूरा झारखंड भी अन्य कई राज्यों की तरह पानी की कमी से जूझ रहा है. हर शहर में पानी के लिए लंबी कतारें देखी जा सकती हैं, वहीं पानी के दूषित होने की समस्या भी विकराल हो रही है.
राज्य के जल संसाधन मंत्री चंद्र प्रकाश चौधरी का कहना है कि राजधानी रांची के ज्यादातर तालाब या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने के कगार पर हैं. शहर की आधी आबादी हटिया बांध से होनेवाली जलापूर्ति पर निर्भर है लेकिन यह बांध भी बहुत हद तक सूख गया है. सरकार नये चापाकल लगा कर और पुराने चापाकलों की मरम्मत कर जल संकट के समाधान की कोशिश में है, पर भूमिगत जल-स्तर के लगातार नीचे जाने से यह उपाय भी बहुत प्रभावी साबित नहीं होगा.
बिहार में सूखे की स्थिति
बिहार के कई जिलों में पानी की भारी कमी है. तापमान बढ़ने के साथ ही भूमिगत जल स्तर भी घट रहा है. पिछले साल अप्रैल के पहले सप्ताह की तुलना में इस वर्ष जल स्तर एक से डेढ़ फुट नीचे चला गया है. कोसी और महानंदा को छोड़ शेष नदियों में पानी तेजी से कम हो रहा है. नदी जल प्रबंधन कोषांग और बाढ़ नियंत्रण विभाग के अधिकारियों के अनुसार मई-जून में नदियों का जल स्तर और तेजी से घटेगा. तालाब और अन्य जल स्रोत भी सूखने लगे हैं.
सूखा राहत के लिए ग्रामीण रोजगार योजना
– केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को सूखे से निबटने के उपायों को तेज करने का निर्देश दिया है.
– 8.77 लाख खेती के लिए तालाब बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है इस वित्त वर्ष में.
– सूखा प्रभावित राज्यों में जल संरक्षण को प्राथमिकता देने का निर्देश दिया गया है.
– 12 हजार करोड़ रुपये राज्यों को बकाया भुगतान के लिए केंद्र ने दिया अप्रैल महीने में.
– 19 हजार करोड़ रुपये मई और जून के लिए अग्रिम भुगतान के लिए जारी किया गया है.
– 55 फीसदी हिस्सा 38,500 करोड़ रुपये के कुल मनरेगा आवंटन का अभी ही
खर्च किया जा चुका है.
बेहतर मॉनसून की उम्मीद
लगातार दूसरे साल सूखे के बाद अच्छे मॉनसून की संभावना ने राहत दी है. लेकिन, सवाल यह भी है कि क्या अच्छे मॉनसून से ही खेती की बदहाली संवर जायेगी, और यदि मॉनसून में देरी हुई, तो क्या स्थिति बनेगी.
निजी एजेंसी स्काइमेट और मौसम विभाग ने अच्छे मॉनसून का भरोसा जताया है. भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक, इस वर्ष सामान्य से अधिक वर्षा हो सकती है और मॉनसून के 106 फीसदी रहने का अनुमान है. विभाग का यह भी कहना है कि इस साल मॉनसून समय पर आयेगा और सामान्य या सामान्य से ज्यादा बारिश की संभावना 94 फीसदी है.
अभी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में सूखे की स्थिति है. हरियाणा और बिहार में सूखे की आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है. केंद्र सरकार के अनुसार, देश की 25 फीसदी आबादी यानी करीब 33 करोड़ लोग सूखे से पीड़ित हैं. भारत के 10 राज्यों के 256 जिलों में सूखा है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2012-13 में 823.9 मिलीमीटर बारिश हुई थी और कृषि विकास की दर 1.4 फीसदी रही थी. वर्ष 2013-14 में 936.7 मिलीमीटर बारिश हुई थी और विकास दर 4.7 फीसदी रही थी.
वर्ष 2014-15 में 781.7 मिलीमीटर बारिश हुई थी और कृषि में विकास दर गिर कर -0.2 फीसदी रह गयी थी. बीते साल यानी 2015-16 में 765 मिलीमीटर बारिश हुई थी. मौजूदा वर्ष में कृषि विकास दर के 1.1 फीसदी रहने का अनुमान है.
अभूतपूर्व बिजली संकट की आशंका
देश के अनेक हिस्सों में पानी की कमी का भारी असर देश के विद्युत उत्पादन पर भी पड़ रहा है. बांधों में जल स्तर बहुत नीचे आ जाने के कारण कई बिजली प्लांट बंद हो चुके हैं या बंदी के कगार पर हैं. उत्तर प्रदेश में चार प्लांट बंद हैं और केंद्रीय पूल से राज्य को 674 मेगावाॅट बिजली कम मिल रही है.
गर्मी के कारण बिजली की मांग बहुत अधिक बढ़ी है. महाराष्ट्र के पर्ली और कोरादी प्लांट बंद हैं. राज्य के 2500 मेगावाॅट की क्षमतावाले दो प्लांटों से मात्र 150-200 मेगावाॅट उत्पादन हो रहा है. एनटीपीसी के फरक्का प्लांट में 2100 मेगावाॅट क्षमता में से सिर्फ 500 मेगावाॅट ही उत्पादन हो रहा है. बीते साल की तुलना में जलाशयों में एक तिहाई से भी कम पानी है. कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में भी बिजली उत्पादन घटा है.
नीतियों में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता
गोपाल कृष्ण पर्यावरणविद्
आम तौर पर मानसून की गड़बड़ी के कारण सूखा पड़ता है. अगर जल स्रोतों का दूरदर्शी प्रबंधन किया जाता है, तो ऐसी स्थिति से निबटा जा सकता है. मगर लंबे समय तक जल की कमी से जूझने की स्थिति कुछ चुनौतीपूर्ण सवालों को जन्म देती है. मसलन, मानसून की गड़बड़ी के क्या कारण है? जल स्रोतों के कुप्रबंधन की मूल वजह क्या है? औद्योगिक खेती, शहरीकरण और अदूरदर्शी औद्योगीकरण को व्यावहारिक नीति के रूप में अपना कर प्रकृति के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया गया है. विकसित देशों की नकल को सरकारी संरक्षण देकर, जल स्रोतों के क्रूरतापूर्ण दोहन पर सवाल उठाने को विकास विरोधी और देश विरोधी तय किया जा रहा है.
“ऐसे में सूखे के मूल वजहों को चिह्नित करना एक बहुत जरूरी काम हो गया है. यदि अच्छे मॉनसून के मौसम विभाग के दावों को सही मान लिया जाता है, तो भी जल स्रोतों के दोहन का प्रश्न तो बना ही रहता है. मूल सवाल संसाधनों को सहेजने का है.
भारत सरकार सूखे को भीषण संकट मानने के बजाय उसे प्रबंधन की समस्या मानने लगी है. इस समस्या से जो आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक असर होते हैं, उनका उचित प्रबंधन के द्वारा निदान हो सकता है. यह तो स्पष्ट है कि सरकार ने सूखे के रोग का पहचान कर लिया है, मगर उसके पास उसका इलाज करने की इच्छा शक्ति का अभाव है.
यदि ऐसा नहीं होता, तो वह पानी की किल्लत वाले महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बहुत ज्यादा मात्रा में पानी खपत करनेवाले फसलों की खेती को बढ़ावा नहीं देती. अतीत से तो यही सबक मिलता है कि संस्थागत तरीके से प्राकृतिक संसाधन और जल संसाधन के प्रबंधन के प्रयास पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है. जल संसाधन मंत्रालय के पास जल के दोहन का जिम्मा है
कृषि मंत्रालय के पास मौसमी सूखे, जलीय सूखे और कृषि जनित सूखे से निबटने का जिम्मा है. मई, 2014 में वियतनाम में हुए संयुक्त राष्ट्र की जल संबंधी पहल के तहत हुए सूखे पर एक कार्यशाला हुई थी, जिसमें भारत के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, मौसम विभाग और अन्य विभागों ने एक पत्र प्रस्तुत किया था. इसमें बताया गया था कि भारत का 16 प्रतिशत भू-भाग में सूखे की आशंका रहती है. हैरत की बात है कि यह पत्र आपदा प्रबंधन की बात तक ही सीमित है. यह प्राथमिक उपचार का रवैया है, जो गंभीर बीमारी की स्थिति में इस तरह के पहल तक सीमित कर रह जाता है.
प्रबंधन की समस्या नीतिगत है. एक ऐसी व्यवस्था निर्मित हो गयी है, जिसमें आर्थिक, आयात-निर्यात, औद्योगीकरण, जल, कृषि, प्राकृतिक संसाधन, ऊर्जा, शहरीकरण, विज्ञान आदि नीतियों में कोई सामंजस्य नहीं है. इन नीतियों का सेंसेक्स से रिश्ता तो है, परंतु वह प्राकृतिक संसाधनों के मुद्राकरण तक सीमित है,
अन्यथा भू-जल के गिरते स्तर के प्रति संवेदनशीलता भी इन नीतियों में दिखती. पूंजी-प्रधान नगदी फसलों को बढ़ावा देने से खाद्य सुरक्षा का संकट और किसानों की आत्महत्या इस बात का सबूत है कि विश्व बाजार में खाद्य बाजार में कीमतों के उतार-चढ़ाव से सरकार न तो जल स्रोतों को सुरक्षित कर रही है, न ही खेतों को. गौरतलब है कि भोजन को भी वर्चुअल वाटर (आभासी जल) और मिट्टी को भी जल स्रोत माना जाता है.
जब तक जल स्थानांतरण और दोहन आधारित परियोजनाओं को उनके वाटर फूट प्रिंट के हिसाब से रोका या बढ़ाया नहीं जाता, तब तक जलवायु परिवर्तन के दौर में सूखे से जूझने के दूरगामी प्रबंध असंभव है.
सूखे से निबटने के लिए जरूरी है जल वितरण प्रणाली
देश में सूखे की स्थिति बनने के कई कारण हैं. पहला, पिछले दो साल से देश में बारिश कम हुई है. दूसरा, भूजल स्तर नीचे जा रहा है. भूजल वह जल होता है, जो बारिश कम होने पर जल की कमी को पूरा करता है. तीसरा, तापमान बढ़ता जा रहा है. तापमान का बढ़ना कई तरह के जलवायु या पर्यावरणीय संकट ले आता है.
वैश्विक तापमान पिछले ग्यारह महीने में हर महीने अपने पिछले स्तर को तोड़ कर बढ़ता गया है. वैज्ञानिकों का मानना है कि 2016 सबसे गर्म वर्ष होगा. जब तापमान बढ़ता है, तो पानी की खपत अपने-आप बढ़ जाती है. चौथा, बढ़ती आबादी के चलते प्रति व्यक्ति पानी की मांग बढ़ रही है. खेती, उद्योगों और शहरीकरण के लिए पानी की मांग बढ़ती जा रही है. यानी हर स्तर पर पानी की मांग और उपयोग का बढ़ना ही पानी की कमी की समस्या को बढ़ाता है. पानी की कमी की समस्या का अर्थ है कि अगर जिस जगह बारिश नहीं हुई, वहां सूखे का आना तय है.
बीते सितंबर के अंत तक जब बारिश का मौसम विदा होने को था, तब यह मालूम हो गया था कि देश के किस हिस्से में पानी की कितनी कमी रही है. उसी समय इस बात का अंदाजा हो सकता था कि सूखा पड़ सकता है. उसी समय सरकार को बहुत सारे कदम उठाने चाहिए थे, जिससे कि सूखे की स्थिति में कम-से-कम पीने के पानी का संकट न हो.
लेकिन, ऐसे कदम न तो केंद्र सरकार ने उठाये और न ही राज्य सरकारों ने. ऐसे कदम जो उठाये जाने चाहिए थे- सबसे पहले यह कि हर जिले हर ब्लॉक में इस बात का जायजा लेना चाहिए था कि वहां कितना पानी है. चूंकि अब अगले बारिश का मौसम आने तक पानी नहीं गिरनेवाला है, इसलिए तब तक हमें कितने पानी की जरूरत पड़ेगी, इस बात का जायजा होना चाहिए था.
इस जायजा के बाद प्राथमिकताएं तय करनी होंगी कि पीने के लिए कितने पानी की जरूरत होगी और बाकी कामों- जैसे कृषि, बिजली उत्पादन आदि के लिए कितने पानी की जरूरत होगी. इन मूलभूत जरूरतों को ध्यान में रखे बगैर हम पानी के सालाना उपयोग का बजट नहीं बना पायेंगे. मसलन, यदि किसी जिले में सौ यूनिट पानी है, लेकिन अगले एक साल के लिए उसे दो सौ यूनिट की जरूरत पड़ सकती है, तो उस जिले में पानी की खपत वाले सारे गैर-जरूरी कामों (जैसे बीयर प्लांट, गोल्फ कोर्स, आइपीएल) को बंद कर देना चाहिए, ताकि उस जिले में पानी की कमी के चलते सूखे की भयावहता न उत्पन्न हो सके. पानी की उपलब्धता के आधार पर अगर हम यह तय कर लें कि किन कामों को प्राथमिकता देनी है और किन कामों को नहीं होने देना है, तो यह सूखे की स्थिति से निबटने के लिए बहुत कारगर कदम हो सकता है.
इस तरह के उपाय हमारे देश में कभी नहीं अपनाये गये. आज जब सूखा अपनी भयावहता दिखा रहा है, तब भी हमारी सरकारें ऐसे कदम नहीं उठा रही हैं, क्योंकि उनके पास जल संरक्षण की नीतियों का अभाव है. जल वितरण के लिए कोई नीति नहीं है. इस समय हमें जल वितरण नीति और जल वितरण प्रणाली की सख्त जरूरत है. यदि हम जल वितरण प्रणाली के तहत प्राथमिकता के आधार पर जल वितरण की नीति बनाते, तो आज हम इस सूखे से आसानी से लड़ने में सक्षम होते.
अगर ऐसा होता, तो आइपीएल को पानी देने या न देने का भी सवाल नहीं उठता. आइपीएल को पानी न देना समस्या को जड़ से खत्म करना नहीं है. और हमारी सरकारें यही करती हैं कि वे समस्या की जड़ में जाने की जहमत उठाये बिना पेनकिलर देकर समस्या को कुछ देर के लिए दबा देती हैं. यही हाल सूखे को लेकर भी और देश की बाकी सभी बड़ी समस्याओं को लेकर भी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
हिमांशु ठक्कर
पर्यावरणविद्
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement