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गांव भीतर गांव
सत्यनारायण पटेल मैं हूं फूंदा… फूंदा ने अपनी रुलायी को रोक कर कहा. मगर उसके स्वर से झब्बू समझ गयी कि फूंदा रो रही है. फूंदा धापू की पड़ोसन. भग्या की पत्नी. फिल्म अभिनेत्री नंदिता दास की तरह सांवली और साधारण-सी कद-काठी की थी. लेकिन आंखें और नाक-नक्श नंदिता से कुछ बेहतर था. झब्बू ने […]
सत्यनारायण पटेल
मैं हूं फूंदा… फूंदा ने अपनी रुलायी को रोक कर कहा. मगर उसके स्वर से झब्बू समझ गयी कि फूंदा रो रही है. फूंदा धापू की पड़ोसन. भग्या की पत्नी. फिल्म अभिनेत्री नंदिता दास की तरह सांवली और साधारण-सी कद-काठी की थी. लेकिन आंखें और नाक-नक्श नंदिता से कुछ बेहतर था.
झब्बू ने जैसे ही किवाड़ खोला, घबरायी हुई फूंदा जल्दी से भीतर आ गयी. उसका पोलका फटा. सांवले चेहरे पर लाल-नीले चकत्ते उभरे. भग्या ने दारू के नशे में उसे मारा-पीटा था. एक बार, जब चंदा को उसके आदमी मांग्या ने पीटा था. चंदा ने भी झब्बू के झोपड़े में ही शरण ली थी. जब भी कोई औरत को मार-पीट कर अपने झोपड़े से भगाता, औरत झब्बू के झोपड़े में ही आती. जैसे झब्बू का झोपड़ा, उसका घर नहीं, कोई सराय हो. फिर रात भर सिसक-सिसक कर अपनी व्यथा-कथा सुनाती. कलाली और दारूकुट्टे पति को कोसती. झब्बू की तरफ उम्मीद से देखती.
झब्बू की नींद फाख्ता हो जाती. कभी बुदबुदाती कि डोकरा-डोकरी और भाई की ही बात मान लेती. ठीक रहता. मायके में रहती. दारूकुट्टों से परेशान तो न होती..! बगैर कलाली हटे, पाप न कटे! पर कलाली कैसे हटे..? मेरी कौन सुनेगा..? मैं क्या हूं, जो कोई मेरी सुने भी..?
भले ही झब्बू को खुद पर भरोसा न था. लेकिन अपनी पड़ोसनों पर था. एक दोपहर, झब्बू के साथ उसी के झोपड़े में, धापू और श्यामू भी बैठी थीं. तीनों की बातचीत का विषय और चिंता एक ही थी – कलाली. फिर तभी धापू तपाक से बोली – चलो.., फिर जाम सिंह के पास ही चलें..! कलाली उसकी, सरपंच उसका, तो उसी से बात करें..!
-हां.. वो भी है तो आदमी ही, नहार तो है नी, जो खा जायेगा..! श्यामू ने भी हिम्मत दिखायी.
-मगर उससे कहेंगे कैसे.. कि कलाली हटा लो..! झब्बू ने पूछा.
-ये तू जान… क्या बात करेगी..? कैसे करेगी..? धापू ने कहा.
-पर तू जो करेगी, हमे मंजूर होगा. श्यामू ने कहा.
-चलो फिर.. चलें… अपनी दुःख-तकलीफ ही तो बतानी है! झब्बू ने भी साहस करते कहा कि कौन-सी राज-काज की बातें करनी हैं..! या फिर गीत-भजन सुनाने हैं..!
जब तीनों जाम सिंह ठाकुर के घर सामने पहुंची, ठाकुर बुलैट पर कहीं से लौटा ही था. साथ में दुबे मास्टर भी था. ठाकुर बुलेट को स्टैंड पर टिकाने लगा. दुबे मास्टर स्कूल तरफ रवाना हो गया. जाम सिंह नाम का ही ठाकुर न था. ठाकुर जैसा था भी. कटारबंध मूंछें.
भौंहें चौड़ी. आंखें खलनायक प्राण की आंखों की तरह बड़ी-बड़ी. गोल-गोल. यूिकलिप्टस के तने की तरह सुडौल और लंबा कद. ठाकुरों वाले ही ठाट भी. दोपहर की धूप में कहीं से आया था. तानकी गरम थी. अधपके बालों में से पसीने की तीरपन गालों पर रिस रही थी. उसने अपने गले में लिपटा गुलाबी गमछा खींचा और पसीना पोछने लगा. पसीना पोछते हुए ही उन तीनों तरफ देखा. पहले भौंहें उछालीं. फिर गरदन उचकायी, जैसे पूछा कि ‘क्या बात है..? ’
जाम सिंह ने उन्हें पहनावे से ही पहचान लिया था कि औरतें झोपड़ों तरफ की हैं. अगर उनके चेहरों पर घूंघट न होते, तो उनके मन की जान लेता मगर, तीनों के चेहरों पर घूंघट थे. फिर भी जाम सिंह ने श्यामू को डील-डौल से पहचान लिया, और मन ही मन अंदाजा लगाया – ‘ढोलन कुछ मांगने-टुंगने आयी होगी! झोपड़े वाले उसके दर पर, और क्यों आयेंगे..? ’
-क्यों ढोलन.. मुझे यूं धूप में कब तक सेंकेगी..! कुछ बोल भी… क्या चाहिए..? जाम सिंह ने पूछा.
-बोलती क्यों नी है झब्बू..! बता न ! श्यामू ने कहा.
जाम सिंह के सामने झब्बू पहली बार आयी थी. वह भीतर ही भीतर छुई-मुई-सी सिमटी खड़ी थी. कुछ सोचती. कुछ मन ही मन तौलती. झब्बू के कुछ बोलने से पहले, जाम सिंह ने पूछा- ये कौन है ढोलन..?
-वो कैलास था न… सोसायटी में हम्माल.. उसकी लाड़ी है झब्बू… श्यामू ने कहा.
-ठाकुर साब.. एक अरज है. झब्बू ने सधे किंतु, विनम्र लहजे में कहा, और आगे बताने लगी – मैं नीम सामने रहती हूं. लोग सवेर-सांझ कुछ नी देखते. जब तब दारू पीते. बैरां माणस को उल्टा-सीधा बोलते. आप कलाली को गांव बाहर कहीं भी खोल लो…पर वां से हटा लो.
जब झब्बू बोल रही थी. तब जाम सिंह को याद आ रहा था कि उसे कलाली का ठेका कितनी सेटिंग से मिला था. महानगर के पंडिजी के साथ कितनी बार राजा साब के बंगले पर धौक दी. कलेक्टर, एसपी और आबकारी के किन-किन को भोग चढ़ाया. हालांकि भाग-दौड़ से जो संबंध बने, उनकी बदौलत रेती, गिट्टी, मुरम की खदानों के ठेके भी मिले. लेकिन माखन और मुझे कितनी छाछ करनी पड़ी. तब जाकर ये मक्खन निकला.
-और ये बिना श्यान की जाने कहां से उठ कर चली आयी ! कहती है कि कलाली हटवा लो..! मैं कोई दानी कर्ण हूं! समाज सुधारक हूं! जो कहूं भूल हो गयी. दारू बुरी चीज! चलो.. समाज से ही हटवाते! अरे ……….. हटवानी होती तो लगाता ही क्यों..? जाम सिंह ने मन ही मन कहा और प्रकट में बोला- तू सुसाइटी क्यों नी हटवाती..! या वो खाड़ हटवा, या उस पर पुलिया बनवा!
जाम सिंह का माथा ठनक उठा. अपनी मूंछ की तरह ही नुकीले शब्दों में उसका बोलना जारी रहा- ताकि फिर कोई ट्रैक्टर न पलटे. कोई विधवा न हो ! कैलास तो ट्रैक्टर पलटने से मरा था न ! दारू पीकर तो नी मरा! जो मुंह उठा चली आयी, कलाली हटवा लो..! मालूम भी है..! कितनी झक मारनी पड़ती..! तब खुलती है कलाली..!
-ट्रॉली पलटने से तो.. मेरी ही मांग उजड़ी… दारू जाने कितनी औरतों की मांग उजाड़ेगी! घर उजाड़ेगी! झब्बू ने धीरज न खोया और गुजारिश के लहजे में ही कहा- जिन बच्चों की खेलने-खाने की उमर है.. वे भी आड़े-छुपके पीने लगे. दूर रहेगी.. तो कम से कम बच्चे न बिगड़ेंगे. मैं सिलाई करती हूं. मेरे यां आने वाली बहू-बेटियां तानो-तिसनो से भी बचेगी…
-देख झब्बू… कलाली तेरी या मेरी मर्जी से नी हटेगी. …जाम सिंह ने सख्त लहजे में कहा, और धमकाता बोला- दूबारा कलाली के बारे में मत आना.
-तो ये बता दो.. किसकी मर्जी से.. और कैसे हटेगी..? झब्बू ने बेझिझक पूछा.जाम सिंह की गांव में धाक थी. यूं समझ लो, खाल बासती. कोई भी उससे ऐसी बात न करता. झब्बू ने की, तो उसे मन में खुटका हुआ. हो सकता है कि संतोष पटेल ने इन औरतों के कान भरे हों..! वह गणपत का सरपंच बनना पचा न सका हो..! हरामी.. सामने मिलता.. तो काकाजी.. काकाजी करता…. और पीठ पीछे अपनी रखैलों के जरिये चाल चलता..! वाह रे..लोमड़ी की औलाद!
जाम सिंह के मन में उपजी आशंका ने चिंता और झेंप के बीज डाल दिये थे. वह बीजों को अंकुरित होने और पेड़ बनने का मौका नहीं दे सकता. वह तत्काल रौंदने वाले अंदाज में बोला – वो तेरा खसम है न.. कलेक्टर! उसके आदेश से हटेगी… वो जिले में बैठता… जा आदेश करा ला.
झब्बू और साथिनें लौट चलीं. उन्होंने देखा कि नीम की छांव में मांग्या और दो-तीन लोग दारू पी रहे. झब्बू अपने झोपड़े का किवाड़ खोलने लगी. मांग्या एक आदमी तरफ देख फुसफुसाया – जाने कहां से नेतागीरी करके लौटी है!
झब्बू और साथिनों ने न सुना. झब्बू ने छादरी बिछायी. साथिनों को पिलाने के लिए पानी लेने पनेहरी तरफ जाने लगी.
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