
कोलकाता के व्यस्ततम बड़ा बाज़ार इलाक़े में आज उतनी गहमागहमी नहीं है. यहां विवेकानंदा रोड पर आज भी मलबा पड़ा है, जहां 31 मार्च को निर्माणाधीन फ़्लाईओवर ढहा था.
कई लोग मरे तो सैकड़ों घायल हुए.
मगर यह सब कुछ चुनावी मौसम में हुआ. वो भी तब जब सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ‘शारदा घोटाले’ और ‘नारदा के खुलासों’ के चक्कर में घिरी थी.
पहले चरण के मतदान के ठीक पहले इस पुल का ढहना तृणमूल कांग्रेस के लिए इस वजह से भी मुश्किलदेह साबित होने लगा क्योंकि वो अपने पांच साल के शासन का रिपोर्ट कार्ड लेकर जनता के बीच जाने का काम कर रही थी.

पुल क्या गिरा, ममता के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने मौक़ा लपकने की कोशिश की और वाम मोर्चा और कांग्रेस के नए गठबंधन सहित भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे ममता को घेरने के लिए इस्तेमाल किया. राहुल गांधी आए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आए.
ममता ने पुल गिरने को ‘एक्ट आफ़ गॉड’ कहा तो चुनाव प्रचार में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ‘एक्ट आफ़ फ्रॉड’ की संज्ञा दे डाली. बंगाल में सारे मुद्दे गौण हो गए और पुल ही पुल चुनाव प्रचार में छाया हुआ है.
ममता बनर्जी के मुताबिक़ पुल पिछली वाम मोर्चा सरकार की देन है.
विवेकानंदा रोड पर पुल के एकदम पास पंकज तिवारी की चाय की दुकान है. स्थानीय लोग पंकज की कुल्हड़ की चाय की चुस्कियां ले रहे हैं.

बात शुरू हुई तो पता चला कि सब यहीं आसपास के रहने वाले हैं. इनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जिनके घरों से महज़ छह इंच की दूरी पर पुल खड़ा था. यूँ कहें कि एक तरह से यह पुल इनके घरों से ही होता हुआ गुज़र रहा है.
विवेकानंदा रोड के बाशिंदे बताते हैं कि पुल नौ साल पहले बनना शुरू हुआ था और पांच बार इसकी नींव डाली जा चुकी है. वाम मोर्चा सरकार के दौरान और तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में भी.
2007 में इसका टेंडर पास हुआ और इसके पूरे होने की सीमा आठ बार निर्धारित की गई क्योंकि जिस आईवीआरसीएल नाम की कंपनी को इसका ठेका मिला, उसने उसने ख़ुद को दीवालिया घोषित कर दिया था.

पुल गिरने के बाद पता चला कि इस कंपनी को ‘भ्रष्ट तरीक़े अपनाने’ के इल्ज़ाम में ‘ब्लैकलिस्ट’ भी किया गया था. सीबीआई भी कंपनी से जुड़े कुछ मामलों की जांच कर रही है.
विवेकानंदा रोड के बाशिंदों का यही सवाल वाम मोर्चा गठबंधन और तृणमूल कांग्रेस से है कि जब कोई कंपनी ‘ब्लैकलिस्टेड’ कर दी गई और वह भी बेईमानी के आरोपों के बाद, तो फिर उसे पुल बनाने का काम क्यों दिया गया.
जैसा पंकज की दुकान पर मौजूद लोग बताते हैं, यह पुल बिलकुल संकरे इलाक़े से गुज़रता है जिसे बनाने की अनुमति सामान्य परिस्थितियों में तो नहीं मिल सकती थी.
लोग इसके ख़िलाफ़ अदालत भी गए. उनका आरोप है कि अदालती निर्देशों की भी सरकार ने अवहेलना की है.

यहाँ मलबा आज भी पड़ा है. लोगों को आशंका है कि कुछ और लाशें इसके नीचे दबी हो सकती हैं.
किसी को मलबे के आसपास नहीं जाने दिया जा रहा है. मीडिया को भी नहीं. लोग कहते हैं कि रात के अँधेरे में मलबा हटाने का काम चलता है और इससे उनका शक और बढ़ रहा है.
वैसे जहां तक राजनीति का सवाल है तो इस पुल के मलबे की धूल में सबके हाथ सने हैं. चाहे वो मौजूदा गद्दीनशीन हों या पिछले वाले.
पंकज की चाय की दुकान पर मौजूद एक बंगाली ‘भोद्रोलोक’ ने चलते-चलते मुझसे कहा-"आरे भाई, बंगाल की राजनीति का पुल ही टूटा हुआ है. क्या कीजिएगा"..
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