
पिछले कुछ दिनों में भारत प्रशासित कश्मीर के हंदवारा शहर में जो हुआ, वो बेहद निराशाजनक है. इसने एक बार फिर यहां दिखने वाली थोड़ी-बहुत शांति को भंग कर दिया.
सरकारी बलों की तरफ़ से गोलीबारी में मारे गए लोगों से न जनता को कुछ मिला और न सरकार को. यह सभी के लिए एक दुखभरी घटना है. ख़ासतौर पर उन परिवारों के लिए, जिनके लोग मारे गए.
कहने की ज़रूरत नहीं कि इससे सिर्फ़ लोगों का ग़ुस्सा और असंतोष और बढ़ेगा.
इस घटना की शुरुआत 12 अप्रैल से एक अफ़वाह के साथ होती है. अफ़वाह फैली कि हंदवारा में फ़ौज के एक बंकर के नज़दीक एक फ़ौजी ने सार्वजनिक शौचालय में घुसकर लड़की से छेड़छाड़ की कोशिश की है.
अफ़वाह फैलने के कुछ देर बाद लोग ख़ासतौर पर नौजवानों ने इकट्ठे होकर फ़ौज के बंकर और पुलिस पर पत्थरबाज़ी शुरू कर दी.

इसके बाद सुरक्षा बलों की ओर से हुई गोलीबारी में तीन लोग मारे गए, जिनमें दो नौजवान और बगल के खेत में काम करने वाली एक बुज़ुर्ग महिला शामिल हैं.
अगले दिन भारी विरोध प्रदर्शन हुआ. सरकार ने हंदवारा और श्रीनगर के कई इलाक़ों में सख़्त प्रतिबंध लगा रखा था लेकिन लोगों में ग़ुस्सा बहुत ज़्यादा था.
हंदवारा के नज़दीक दांगीवाची इलाक़े में आंसूगैस की गोली लगने से एक नौजवान बुरी तरह घायल हो गया. उसे अस्पताल ले जाया गया पर वह बच नहीं सका और इस घटनाक्रम में मरने वालों की संख्या चार हो गई.
मीडिया को उपलब्ध कराए गए आर्मी के एक वीडियो में दिखाया गया है कि साफ़तौर पर लड़की अपने साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ की कोशिश से इनकार कर रही है और कुछ स्थानीय युवकों पर इल्ज़ाम लगा रही है.
उनमें से एक को वह बिलाल भाई के रूप में पहचान करवाती है.

इस वीडियो की पृष्ठभूमि में फ़ौज दावा करती है कि यह अफ़वाह कुछ शरारती तत्वों ने फैलाई थी, जो परेशानी खड़ी करना चाहते थे.
फ़ौज के इस दावे पर शक़ करने की हो सकता है कि किसी के पास वजह न हो पर बड़ा सवाल यह है कि अगर यह फ़ौज के लिए मुसीबत खड़ा करने की शरारती कोशिश थी तो सरकार क्यों फँस गई इस जाल में.
इस बात से सहमत हूँ कि भीड़ ने जब फ़ौज के बंकर पर हमला किया तब फ़ौज ने गोली चलाई लेकिन जो लोग मारे गए उनके सिर और सीने पर ही क्यों गोली मारी गई थी?
शरारती तत्व मुसीबत खड़ी करना चाह रहे थे और सुरक्षा बलों ने ऐसा होने दिया. तो फिर आख़िर किस पर हँसा जाए?

सच यह है कि सरकारी ताक़तें चाहे फ़ौज हो, पुलिस हो या सेंट्रल पैरामिलिट्री फ़ोर्स, इन सबके पास समय था और इन सबने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनके पास ज़रूरी प्रशिक्षण नहीं है या कम से कम होने वाला नुक़सान टालने का तो बिल्कुल भी.
मैं सहमत हूँ कि विरोध-प्रदर्शन अहिंसक भी है, तो उससे पुलिस के लिए निपटना हमेशा मुश्किल चुनौती होती है. यहां पत्थरबाज़ी की वजह से और मुसीबत है.
अगर किसी खास जगह पर किसी खास एंगल से पत्थर की चोट लग जाए तो वो गोली की तरह ही जानलेवा हो सकती है.
कहते हैं कि ऐसे विरोध-प्रदर्शनों से निपटने के लिए ऊंचे स्तर की दक्षता चाहिए. दुर्भाग्य से कश्मीर में इसकी कमी है. 2010 का आंदोलन इसका एक साफ़ उदाहरण है कि कैसे जनता के विरोध प्रदर्शन से पुलिस ने ग़लत तरीक़े से निपटा था.
जिसके कारण सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे. इसमें से अधिकतर कम उम्र के लड़के थे.

सरकार ने अपनी ओर से इसकी जांच शुरू की जबकि पुलिस ने पहले ही केस दर्ज करके जांच शुरू कर दी थी लेकिन एक बात साफ़ थी कि लोग इस जांच को लेकर नाउम्मीद थे.
और लोगों की ऐसी जांचों में कम दिलचस्पी यूँ ही नहीं है. सालों से हो रही ऐसी जांच लोगों के लिए कोई मायने नहीं निकाल पाईं हैं ताकि सरकार की ऐसी पहल में उनका विश्वास कायम हो सके.
अभी दो हफ़्ते भी पुरानी नहीं हुई बीजेपी-पीडीपी सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती है.
नई सरकार को लोगों का विश्वास जीतने का मौक़ा दिया जाए. उन्हें दोषियों की पहचान कर क़ानून के मुताबिक़ उनसे निपटने दिया जाए.
इससे न सिर्फ़ राज्य की संविधानिक संस्थाओं में लोगों का विश्वास कायम होगा बल्कि जब कभी भविष्य में ऐसे हालात पैदा होंगे, तो सरकारी बल बेहतर तरीक़े और पूरी ज़िम्मेवारी से इसका सामना कर .
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