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जल संकट, विवाद और राजनीति

वरुण गांधी भाजपा सांसद पश्चिम बंगाल में एनटीपीसी के 2,100 मेगावाट की क्षमतावाले बिजली संयंत्र को 13 मार्च को बंद करना पड़ा, क्योंकि संयंत्र को ठंडा रखने के लिए पानी की आपूर्ति करनेवाली फरक्का फीडर नहर में पानी कम हो गया था. इसके कारण पांच राज्यों में बिजली की आपूर्ति प्रभावित हुई और 38 हजार […]

वरुण गांधी
भाजपा सांसद
पश्चिम बंगाल में एनटीपीसी के 2,100 मेगावाट की क्षमतावाले बिजली संयंत्र को 13 मार्च को बंद करना पड़ा, क्योंकि संयंत्र को ठंडा रखने के लिए पानी की आपूर्ति करनेवाली फरक्का फीडर नहर में पानी कम हो गया था. इसके कारण पांच राज्यों में बिजली की आपूर्ति प्रभावित हुई और 38 हजार परिवारों को बिजली की किल्लत झेलनी पड़ी. वहीं फरक्का शहर में भी पेयजल की समस्या भी खड़ी हो गयी. गंगा में नावों के संचालन को स्‍थगित करना पड़ा, जबकि कोयले से लदी 13 नौकाएं गंगा में कम पानी में धंस गयीं. इससे जाहिर होता है कि गंगा धीरे-धीरे उथली होती जा रही है.
हरियाणा के खेत सूख रहे हैं. जाट आंदोलन वहां कृषि संकट को बढ़ावा दे रहा है. पंजाब विधानसभा द्वारा सतलज यमुना लिंक नहर बिल को स्वीकृति के बाद जल बंटवारे को लेकर भी संकट पैदा हो गया है. पिछले एक दशक में भारत के 91 प्रमुख जलाशयों में पानी की उपलब्‍धता लगातार कम हुई है.
केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक, इन जलाशयों में इनकी कुल क्षमता का महज 29 प्रतिशत पानी बचा है. देश की 85 प्रतिशत पानी की जरूरत को पूरा करनेवाले भूमिगत जल का स्तर लगातार गिर रहा है. पानी के टैंकरों पर निर्भरता बढ़ रही है. पानी के लिए टकराव बढ़ रहा है. लातूर के गांवों में प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किये गये हैं और स्वीमिंग पूलों में पानी की आपूर्ति बंद कर दी गयी है. सिंचाई की अक्षमता और अदूरदर्शी राजनीतिक चालाकियां पानी के विवाद को और भी बढ़ा देती हैं. पानी एक ऐसी चीज है, जिसका उपभोक्ताकरण नहीं किया जा सकता.
ज्यादातर राज्य अक्सर हारमन सिद्धांत का हवाला देते हुए अपनी सीमा से होकर बहनेवाले पानी पर अपना पूर्ण आधिपत्य जताते हैं. टकराव से निपटने के लिए अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956) बनाया गया था. लेकिन, इसके तहत गठित न्यायिक ट्रिब्यूनल में प्रत्यक्ष समझौते भी विफल हो जाते हैं. बाध्यकारी तंत्र न होने के कारण विवाद में शामिल पार्टियां इनके फैसले को कई बार मानने से इनकार कर देती हैं. केंद्र के दखल का हश्र भी वही होता है, जैसा रावी-व्यास विवाद में हुआ था.
वास्तव में भारत में पानी के विवाद के निपटारे से जुड़ा तंत्र अस्पष्ट और संदिग्ध बना हुआ है. राज्य सरकारें, संसद, कोर्ट, जल न्यायाधिकरण, केंद्रीय मंत्रालय और सिविल सोसायटी जैसे कई हिस्सेदार होने के कारण जल विवादों का निपटारा भारत में एक बड़ी समस्या है. विकास और राष्ट्रहित से जुड़े परिणाम देने में संस्थागत व्यवस्थाएं विफल साबित हो रही हैं.
1968 से 1990 के बीच कावेरी विवाद को निपटाने के लिए 26 मंत्री स्तरीय बैठकें तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच हुईं, मगर कोई सहमति नहीं बन सकी. बढ़ते राजनीतिकरण के कारण कावेरी जल विवाद निपटारे के लिए गठित ट्रिब्यूनल का प्रस्ताव महज एक मृग मरीचिका बन कर रह गया.
सिंधु के जल बंटवारे के लिए जिस तरह भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता है, उसी तरह उप-घाटी केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने से सफलता मिल सकती है. कृष्णा गोदावरी विवाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा और मध्य प्रदेश के बीच अतिरिक्त पानी के अंतरराज्यीय उपयोग पर केंद्रित था.
1976 में कृष्णा ट्रिब्यूनल ने अपना फैसला सुनाया, जो विचाराधीन अथवा चालू परियोजनाओं के पक्ष में था. वहीं, कृष्णा के पानी को नदी घाटी के बाहर, मगर प्रवाह तंत्र में शामिल राज्यों की सीमा के भीतर मोड़ने की अनुमति दे दी गयी. जल प्रवाह के विभाजन की मात्रा निर्धारित न होने से इसे सफलता मिली, जो राज्यों के बीच उप-घाटी पर केंद्रित समझौतों पर ही आधारित था. भारत की कृषि नीति में भी सुधार की जरूरत है.
नासा के मुताबिक भारत में जल स्तर 0.3 मीटर की दर से हर साल गिर रहा है. यह भी विडंबना है कि हम पानी की उपलब्धता की परवाह किये बिना शुष्क इलाकों में गन्ने की खेती की सलाह देते हैं. शुष्क भूमि पर चावल और गेहूं के उत्पादन पर जिस तरह ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, उसे बदलने की जरूरत है. दूसरी ओर खेती में ड्रिप सिंचाई से भी गिरते जल स्तर पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है.
पानी के संरक्षण से जुड़े राष्ट्रीय कार्यक्रमों के डिजाइन, समन्वय और नियंत्रण पर केंद्रित एक केंद्रीय नियामक एजेंसी के गठन की जरूरत है. सामाजिक समता, जरूरत और तर्क आधारित पानी के विभागीय बंटवारे से जुड़े फैसले लेने के लिए एक संचालन तंत्र की जरूरत है. समुदाय, इंडस्ट्री और नागरिकों को आवंटन से जुड़ी बातचीत में शामिल करने के लिए सरकार को क्षेत्रीय और नदी घाटियों से जुड़े जल नियोजन को अपने हाथ में लेना चाहिए. नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाये रखने के लिए नियमों को भी सख्त करने की जरूरत है. नदियों में न्यूनतम जल प्रवाह
बनाये रखने के लिए भी हमें कानूनी प्रावधान करने होंगे.
दलदल, घास के मैदान और वनों से आच्छादित केवलादेव नेशनल पार्क राजस्थान के भरतपुर में 29 किलोमीटर के दायरे में फैला है. सर्दियां आते ही यह पार्क लोकप्रिय हो जाता है, क्योंकि यहां प्रवासी साइबेरियाइ सारस की 370 से ज्यादा प्रजातियां झुंड में पहुंचती हैं. इस अभयारण्य में रहनेवाले जीवों की पारिस्थितिकी को बनाये रखने के लिए मॉनसून के दौरान हर वर्ष 500 मीलियन क्यूबिक फीट पानी की जरूरत होती है, जिसका अधिकांश गंभीर नदी (जिस पर अब पंचना बांध बना है) से उपलब्ध कराया जाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को नोटिस दिया था कि पंचना बांध से पानी छोड़े, लेकिन सिंचाई के लिए पानी की मांग करनेवाले किसानों के विरोध के कारण उस पर अमल नहीं हुआ. नदी तट के आसपास इस तरह के विवाद में देखा गया है कि पानी की कमी राजनीति से जुड़ जाती है, जो मुक्त पानी के संरक्षण को प्रोत्साहित करती है और पानी की राजनीतिक कीमत बढ़ जाती है. दीर्घकालीन नदी तटीय स्थिरता की तलाश ही इसका एकमात्र उपाय है.
पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी प्री-माॅनसून सीजन की शुरुआत सुस्त रही है. मीटियोरोलॉजिकल डिपार्टमेंट ऑफ इंडिया के मुताबिक, जनवरी और फरवरी को जाड़े के मौसम के रूप में जाना जाता है, जबकि मार्च से मई तक की अवधि प्री-मॉनसून सीजन कहलाती है.
लेकिन, मार्च के शुरुआती दिनों में केवल महाराष्ट्र, राजस्थान और पूर्वी मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में अधिक बारिश हुई है, जबकि अन्य इलाकों में बारिश सामान्य से कम हुई है. मजबूत वेस्टर्न डिस्टर्बेंस के अभाव और अल नीनो की मजबूती के कारण देश में सर्दी का मौसम भी इस बार अपेक्षाकृत गर्म और सूखा रहा. वर्ष 2016 के जनवरी और फरवरी में देश में औसतन 17.9 मिमी बारिश हुई, जबकि इसकी सामान्य दर 41.4 मिमी है.
यानी यह करीब 57 फीसदी कम रही. यदि क्षेत्रवार रूप से देखें तो उत्तरपश्चिम भारत में यह 68 फीसदी कम रही और मध्य भारत में करीब 49 फीसदी कम रही. उत्तर भारत के सभी सबडिवीजन्स में इस दौरान सामान्य से कम बारिश हुई. जम्मू- कश्मीर में केवल 78.8 मिमी बारिश हुई, जबकि यहां सामान्य बारिश की दर 212.9 मिमी है. यानी यह करीब 63 फीसदी कम रही. बारिश और बादलों की कमी के कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जैसे ज्यादा सर्दी पड़नेवाले राज्यों में भी इस बार तापमान अपेक्षाकृत ज्यादा रहा. दिसंबर, 2015 और मार्च, 2016 के आरंभिक दिनों के बीच इन दोनों राज्यों में अधिकतम तापमान औसत से दो से चार डिग्री सेंटीग्रेड ज्यादा रहा.
91 बड़े जल-संग्रहण निकायों में सिर्फ एक चौथाई पानी
देश के 91 बड़े जल-संग्रहण निकायों में पानी कुल भंडार क्षमता के एक-चौथाई के स्तर तक ही बचा रह गया है. बीते 31 मार्च को केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने इस संबंध में एक विज्ञप्ति जारी की है. देश के सिर्फ दो राज्यों- आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा में जल-संग्रह की स्थिति पिछले साल की तुलना में बेहतर है, जबकि हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश (दोनों राज्यों में दो संयुक्त परियोजनाएं), पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओिड़शा, राजस्थान, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में पिछले साल से कम पानी उपलब्ध है.

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