।। अजय सिंह, मैनेजिंग।।
(एडिटर, गवर्नेस नाऊ)
‘क्या वे रामलीला मैदान में विधानसभा की बैठक कर सकते हैं?’ एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने यह प्रश्न तब पूछा था, जब उनसे आम आदमी पार्टी (आप) और उसके नेता अरविंद केजरीवाल के सादे रहन-सहन से राष्ट्रीय दलों और इसके नेतृत्व के प्रभावित होने की बात पूछी गयी थी.
वह नेता जाहिर तौर पर एक चार्टर्ड फ्लाइट में सवार थे और भारत के सबसे पुराने शहर बनारस में नरेंद्र मोदी की काफी सफल रैली से लौट रहे थे. केवल तीन दिनों के बाद, ‘आप’ के राष्ट्रीय संयोजक केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर रामलीला मैदान में शपथ लेने का फैसला किया. भाजपा नेता की केजरीवाल के विशाल रामलीला मैदान पर विधानसभा सत्र की भविष्यवाणी शायद बहुत दूर खड़ी संभावना न हो. शायद पारंपरिक राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को केजरीवाल के ‘सौम्य पड़ोसी’ या बिल्कुल ‘आम आदमी’ की छवि से अधिक किसी और चीज ने परेशान नहीं किया. केजरीवाल के लगातार और जान-बूझ कर इस छवि से किनारा न करने ने घुटे हुए राजनेताओं की दुखती रग पर चोट पहुंचायी है : सुविधाओं और लाभों को अपना जन्मसिद्ध अधिकार माननेवाली उनकी सोच पर. महान चिंतक टॉल्स्तॉय ने कहा था, ‘राज्य एक अस्थायी चीज है और यह किसी भी तरह मानवीय जिंदगी का स्थायी तत्व नहीं हो सकता.’ जो भी केजरीवाल के तरीकों से हैरान हैं, जो राज्य के स्थायित्व को चुनौती देते दिखते हैं, वे जाहिर तौर पर लोगों की उस उत्कंठा, उस तीव्र चाहत को नकार रहे हैं, जो पुराने राजनीतिक निजाम में रूपांतरण वाला बदलाव चाहती है. अगर केजरीवाल एक साल से भी कम में इस बदलाव के प्रतीक बन गये हैं, तो यह और कुछ नहीं, उस बढ़ती दूरी का स्वयंसिद्ध प्रमाण है, जो लोगों और पुरानी राजनीति के खिलाड़ियों में आ गयी है. धरातल के निशान भी लोग अनदेखा कर रहे हैं.
दिल्ली और बनारस में घटित दो असंबद्ध घटनाएं दरअसल देश के लोकप्रिय राजनीतिक मिजाज को दिखाती हैं. केजरीवाल ने जब सरकार बनाने के मसले पर लोगों की राय लेने का फैसला किया, तभी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने बनारस में अभूतपूर्व भीड़-भरी रैली को संबोधित किया, जिससे भगवा खेमा फूला हुआ है. हालांकि, हिंदुत्व की ताकतों को निश्चित तौर पर जनता के मिजाज की चिंता करनी चाहिए. दरअसल, बनारस भारत का एक वास्तविक लघु रूप है. जो भारत के बारे में सच है, वह बनारस के बारे में भी उतना ही सच है, जिसे पूरे देश का सबसे पवित्र शहर मानते हैं. हालांकि, इस शहर ने परंपरा और श्रद्धा को चुनौती देने का भी लंबा इतिहास रचा है. 20 दिसंबर को जब शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर मोदी ने एक बड़ी सार्वजनिक सभा को संबोधित किया, तो वह पूरी तरह से इस बात को जानते थे कि जो भी मीलों से चलकर उन्हें सुनने आये हैं, वे भाजपा कार्यकर्ता नहीं हैं.इसका एक संकेत तब साफ तौर पर देखने को मिला, जब भीड़ के एक हिस्से ने बनारस के वर्तमान सांसद मुरली मनोहर जोशी का घेराव करने की कोशिश की.
जोशी एक खांटी ब्राह्मण हैं. उन्हें बनारस के लोगों के बीच तो सहज विजेता होना चाहिए था, लेकिन मोदी को छोड़ कर कोई भी वह आकर्षण नहीं पैदा कर पाता है.जाति, उम्र और समुदाय के बंधनों से परे उस भीड़ में हर तरह के लोग थे. जाहिर तौर पर यह अभूतपूर्व भीड़ पार्टी के सांगठनिक बूते के बाहर की बात थी. स्थानीय नेताओं ने भी स्वीकार किया कि जोशी और बीजेपी की स्थानीय स्तर पर अलोकप्रियता को देखते हुए, किसी भी दूसरे राष्ट्रीय नेता के लिए इतनी भीड़ जुटाना मुश्किल होता.
फिर, मोदी की रैली में लोग क्यों आये? केएन गोविंदाचार्य या फिर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के उलट मोदी कभी भी शहर और इसकी संस्कृति से एकाकार नहीं हुए. वाजपेयी के उलट, वह ब्राrाण भी नहीं हैं, जिसे धार्मिक-सांस्कृतिक बंधनों में जकड़ा यह समाज तुरंत स्वीकार कर लेता है, जो शायद परंपरा और इतिहास से भी पुराने हैं. वह जाहिर तौर पर अति प्रभावशाली वक्ता भी नहीं हैं, जो गंगा के प्रसिद्ध अस्सी घाट पर राजनीतिक गप्प में लगे लोगों को भी आकर्षित कर सकें.
हालांकि, बनारस के बारे में यह सारा ज्ञान तब सिर के बल खड़ा हो जाता है, जब मोदी यहां आये. उनकी सफलता के पीछे का कारण खोजने में बहुत मेहनत करने की जरूरत नहीं है. जाति और पारंपरिक मुहावरों की राजनीति से ऊब चुके मानस के लिए मोदी- सही या गलत- आशा की एक किरण की तरह लगते हैं. जो बनारस मे रहते हैं, वे आधारभूत संकटों से जूझ रहे हैं. लोगों की शीर्ष जरूरतें- बिजली, पानी, सड़क (बिपासा) बिलकुल भुला दी गयी हैं और कानून-व्यवस्था का डरावना हाल है. राजनीतिक दलाल फूल-फल रहे हैं और आम नागरिक के चिंतनीय मुद्दे शायद ही कोई मसला बन पाते हैं. कुंठा और खीझ के वातावरण में, मोदी लोगों की कल्पना में उस नेता के तौर पर उभरते हैं, जिसने गुजरात में काम किया है. मौका मिलने पर, वह पूरे देश के लिए काम करेगा.
गुजरात में उनके प्रदर्शन की विवेचना- क्या और कैसे- को जरूरी नहीं माना जाता, उसे लक्ष्य से विचलन समझा जाता है. जो धारणाएं भ्रांति की हद तक मजबूत हो गयी हैं, उसे चुनौती देने की कोई कोशिश लोगों के उस विश्वास को और दृढ़ करती हैं, जो वे माने बैठे हैं. जाहिर तौर पर यह अद्भुत घटना एक नये राजनीतिक निजाम का रूपांतरण है, जो पुरातन तर्क और पारंपरिक जोड़-घटाव से प्रेरित नहीं है. साफ है, मोदी के पास उस शून्य में पहली जगह बनाने का फायदा मिला है, जो तीसरे मोरचे के खिलाड़ियों- जैसे मुलायम सिंह की सपा और मायावती की बसपा की बिकाऊ राजनीति ने पैदा किया है.
यह मानना बचकाना ही होगा कि मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की स्वाभाविक पसंद थे. दूसरी ओर, वह एक राजनीतिक तूफान का भी फायदा उठानेवाले दिखते हैं, क्योंकि उनकी सावधानी से गढ़ी गयी छवि उन्हें पारंपरिक राजनीतिक घेरे से बाहर खड़ी करती है. पर क्या यह दृश्य बदल नहीं जायेगा, अगर केजरीवाल अपनी आम आदमी वाली छवि के साथ दिल्ली में शासन का व्याकरण बदलने की ठान लें?
इस मामले में खास तौर पर अहम बात यह है कि मोदी की रैलियों में बड़ी तादाद में आनेवाले कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही एक समान चिढ़े हुए हैं. वे क्षेत्रीय क्षत्रपों से भी उसी तीव्रता से नफरत करते हैं, अगर ऐसे दल पारंपरिक राजनीति और बिकाऊ शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं. यही वजह है कि मोदी का जादू पश्चिम बंगाल और ओड़िशा जैसे राज्यों में नहीं चलने की उम्मीद है, जहां क्षेत्रीय नेताओं ने राजनीति का अपना शक्ति-संतुलन साधा है. इसी तरह, दक्षिण के राज्यों में भी मोदी को विंध्य के पार दरार लगाने में कठिनाई होगी. ऐसी स्थिति में, देश का राजनीतिक भविष्य केजरीवाल के प्रयोग पर ही मोटे तौर पर निर्भर करेगा, जिसमें न केवल राजनीति, बल्कि शासन को भी पुनर्परिभाषित करने की संभावना है.
(अनुवाद: व्यालोक)