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सिंधिया घाट का नि:शुल्क भोजनालय

वाराणसी से शरद दीक्षित इंसानियत की मिसाल वकील रमेश उपाध्याय और व्यापारी सिराज सिद्दीकी की साझा पहल कहा जाता है कि इंसानियत सबसे बड़ा मजहब होता है और इंसान की सेवा से बढ़ कर कोई इबादत नहीं होती. इसके उदाहरण आपको अपने आसपास ही मिल जायेंगे. ऐसे ही एक संदेश को छिपाये है बनारस के […]

वाराणसी से शरद दीक्षित

इंसानियत की मिसाल

वकील रमेश उपाध्याय और व्यापारी सिराज सिद्दीकी की साझा पहल

कहा जाता है कि इंसानियत सबसे बड़ा मजहब होता है और इंसान की सेवा से बढ़ कर कोई इबादत नहीं होती. इसके उदाहरण आपको अपने आसपास ही मिल जायेंगे. ऐसे ही एक संदेश को छिपाये है बनारस के सिंधिया घाट पर चलने वाला रात्रि भोजनालय, जहां मुफ्त में खाना खिलाया जाता है.

मणिकर्णिका घाट पर शवदाह करने आये लोगों के लिए ये भोजनालय रात में शुरू होता है और सुबह होने तक चलता है. खास बात ये है कि इसे चलाने वाला एक हिंदू है और दूसरा मुसलमान.

पेशे से वकील बिहार में सासाराम के चेनारी बाजार के रहने वाले रमेश उपाध्याय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के छात्र रहे हैं. और नयी सड़क पर कपड़े की दुकान चलाने वाले सिराज सिद्दीकी उनके मित्र हैं. दोनों ही मदनमोहन मालवीय जी के कट्टर अनुयायी. कर्मकांडी रमेश गंगा की निर्मलता को लेकर आंदोलनों में आगे रहते है तो नमाजी सिराज हिंदू मुसलिम एकता से जुड़े मसलों पर सक्रि य रहते हैं.

रमेश उपाध्याय बताते हैं कि एक दिन वो एक परिचित की शवयात्र में रात को महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पंहुचे. रीति-रिवाजों के मुताबिक शवदाह के बाद बारी आती है गंगा स्नान करके कुछ खाने की. रात होने की वजह से दुकानें बंद थी और शव दाह करने वाले लोगों को खूब भटकना पड़ा.

अपना संस्मरण रमेश ने सिराज को सुनाया. फिर क्या था, दोनों दोस्तों ने ठान लिया कि शवदाह करने आनेवाले गरीब लोगों के लिए घाट पर ही रात्रि भोजनालय शुरू किया जाये. तत्कालीन नगर आयुक्त आरपी सिंह से बात की तो उन्होंने मणिकर्णिका घाट के पास सिंधिया घाट पर जगह मुहैया करवा दी.

हैसियत छोटी थी, लेकिन हैसियत के मुकाबले काम बड़ा. छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन भोजनालय रोज चलाना था और उसके लिए धन की दरकार थी.

दोनों ने अपने अपने संपर्क में कुछ सक्षम लोगों से बात की. उन्होंने पूरी योजना सुन कर मदद के लिए हामी भर दी. सारी तैयारियां पूरी हो जाने के बाद विश्व मानवाधिकार दिवस की पूर्व संध्या 9 दिसंबर 2012 को बिना किसी तामझाम के नि:शुल्क भोजनालय शुरू कर दिया. एक साल से ज्यादा समय हो गया.

बिना किसी रोक टोक के रात को पूड़ी सब्जी बनती है. इसके साथ शवदाह के बाद परंपरागत तरीके से खायी जानेवाली मीठी बूंदी भी शवयात्रियों को दी जाती है. रात दस से सुबह आठ बजे के बीच भोजनालय चलता है. कोशिश रहती है कि जो भी भोजनालय आये चाहे वो शवयात्री हो या फिर मेहनत मजदूरी करने वाला कोई गरीब इंसान, बिना खाये वापस न जाये.

सिराज और रमेश दोनों मित्र पूरी तन्मयता से भोजनालय को चलाने में जुटे हैं. संसाधन कम हैं, लेकिन इच्छाशक्ति में दृढ़ता बहुत ज्यादा. इसलिए भोजनालय एक साल से अनवरत चल रहा है. 25 दिसंबर को मालवीय जयंती पर रमेश उपाध्याय ने भोजनालय वाली जगह पर छोटी-सी गोष्ठी रखी. गीता पाठ हुआ, सिराज पूरी व्यवस्था देखते रहे. दस बारह वक्ता भी इकट्ठा हुए.

जब सिराज से विचार रखने को कहा गया तो माइक पर आये और मालवीय जी की तसवीर की ओर हाथ जोड़ कर बोले- ‘ऐसे महात्मा को धन्यवाद जो अपने कामों से हमे प्रेरणा देकर गये कि अपने लिये जिये तो क्या जिये..’ इतना कह कर सिराज बैठ गये और सुनने वालों को लगा कि सिराज लंबे समय से बोल रहे थे और एक गहरा संदेश दे गये हैं.

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