
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. ऐसे सवाल पहले भी उठते रहे हैं.
एएमयू का गठन 1877 में एक एमएओ कॉलेज के रूप में हुआ. इसके बाद 1920 में तत्कालीन ब्रितानी सरकार की सेंट्रल लेजिस्लैटिव असेंबली के एक्ट के ज़रिए इसे मान्यता दी गई.
उस वक़्त कहा गया था कि अगर तीस लाख रुपए भारत के मुसलमान जमा कर लेते हैं तो उन्हें सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा अल्पसंख्यक चरित्र के साथ मिल जाएगा जो 1920 में मिल गया था.
1920 से 1951 तक कोई दिक़्क़त नहीं थी. 1951 में अंतरिम संसद में उस वक़्त के शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद ने जब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का बिल पेश किया था, उसी वक़्त अलीगढ़ का बिल पेश किया गया था और उसे पास कर दिया गया था.
उसी मूल रूप में ये 1920 से 1965 तक चला. कोई दिक़्क़त नहीं आई. लेकिन 1965 से 1972 के दौरान तत्कालीन सरकारों ने इस पर पाबंदियां लगाईं.
इसके बाद 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने इसको बहाल किया. कुल मिलाकर ये कहानी है इस विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप की.

ये यूर्निवर्सिटी लगभग सौ साल की होने जा रही है और इस दौरान कई बार उसके इस अल्पसंख्यक चरित्र पर कुठाराघात करने की कोशिश हुई है.
लेकिन 1981 में एक आम सहमति बन गई थी और सबने उसका समर्थन किया था. उस वक़्त आम सहमति से पास किए गए बिल से ये विश्वविद्यालय अभी तक चल रहा है.
अब अगर इसे ख़त्म किया जाता है तो ज़ाहिर है इसे अल्सपंख्यकों के अधिकारों के हनन के तौर पर देखा जाएगा.
भारतीय जनता पार्टी ने पहले जनसंघ के रूप भी इस दर्जे का विरोध किया है. उसके बाद भारतीय जनता पार्टी बनने के बाद भी वो इसकी विरोधी रही है.
हालांकि एक विरोधाभासी बात ये है कि एक महीने पहले राज्यसभा में ये मामला उठा था और उस समय सरकार की तरफ़ से केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी ने कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र ख़त्म नहीं करेंगे और जो अदालत फ़ैसला करेगी वो करेंगे.

लेकिन इस बारे में जिस तरह यूपीए सरकार की सक्रिय भूमिका थी, वो इस सरकार में देखने को नहीं मिल रही है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी 1920 से ही एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है और आज़ादी के बाद जो देश में चार केंद्रीय विश्वविद्यालय थे अलीगढ़ में उनमें से एक था.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दर्जे में कोई दिक़्क़त नहीं है. लेकिन उसका एक ऐतिहासिक और अल्पसंख्यक चरित्र है. उसे बनाया भारतीय मुसलमानों को आगे बढ़ाने के लिए.
ऐसे में उसका अल्पसंख्यक दर्जा ख़त्म करने से उसकी ये पहचान तो ख़त्म होगी ही, साथ ही वहां विषय के रूप में जो धर्म की शिक्षा दी जाती है वो बंद हो जाएगी.
इसके अलावा वहां अरबी-फ़ारसी पढ़ाने के सिलसिले में भी दिक़्क़त आ सकती है. उर्दू को जिन दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है, वो तो सबके सामने हैं.
कुल मिलाकर इस विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे जो मूल मंत्र था, वो ख़त्म हो जाएगा, अगर मौजूदा सरकार का यही रवैया जारी रहा.
पहले ही इस मुद्दे पर 1965 से 1881 तक लंबा आंदोलन चला है. मुझे लगता है कि फिर से कोई आंदोलन शुरू होगा.
(बीबीसी संवाददाता निखिल रंजन से बातचीत पर आधारित)
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