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दवाओं के इस्तेमाल में रहें सचेत, बेअसर हो रहे एंटीबायोटिक्स

नेशनल कंटेंट सेल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले दिनों सर्दी-खांसी और बुखार से लेकर मधुमेह तक के इलाज के लिए प्रयुक्त लगभग 350 दवाओं को प्रतिबंधित कर दिया़ इनमें कुछ एंटीबायोटिक थीं, तो कई फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशनवाली दवाइयां. मंत्रालय का कहना है कि ये लोगों के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हैं और इनके सुरक्षित विकल्प […]

नेशनल कंटेंट सेल

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले दिनों सर्दी-खांसी और बुखार से लेकर मधुमेह तक के इलाज के लिए प्रयुक्त लगभग 350 दवाओं को प्रतिबंधित कर दिया़ इनमें कुछ एंटीबायोटिक थीं, तो कई फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशनवाली दवाइयां. मंत्रालय का कहना है कि ये लोगों के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हैं और इनके सुरक्षित विकल्प मौजूद हैं.

आज से शुरू हो रही शृंखला में हम आपको बतायेंगे उन दवाइयाें के दुष्प्रभाव के बारे में, जो बिना डॉक्टरी पर्ची के बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हैं. आज जानें

कैसे बेअसर हो रहे हैं एंटीबायोटिक्स –

1928 में जब अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलिन के रूप में पहला एंटीबायोटिक का अविष्कार किया था, तो दुनियावालों को इस बात की खुशी हुई कि उन्हें बैक्टीरिया के संक्रमण से लड़ने का एक हथियार मिल गया है़ लेकिन लंबे समय तक एंटीबायोटिक दवा के संपर्क में रहते-रहते बैक्टीरिया अब इतने ताकतवर हो गये हैं कि उन पर कई एंटीबायोटिक दवाओं की मारक क्षमता कम होने लगी है़ अगर हालत यही रही, तो बैक्टीरिया-जनित कई बीमारियां लाइलाज हो जायेंगी़ इस समस्या की सबसे बड़ी वजह है एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल़ वैसे इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) समय-समय पर जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करता है.

लेकिन जरूरत इस बात की है कि भारत जैसे विकासशील देश इस स्थिति की गंभीरता को समझें, जहां लोग जरा-सी सर्दी, जुकाम या बदन दर्द होने पर डॉक्टरी परामर्श के बिना कोई भी एंटीबायोटिक लेने को तत्पर रहते हैं. इस बात की तसदीक डब्ल्यूएचओ भी करता है, जिसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 55 प्रतिशत भारतीय बिना डॉक्टरी सलाह के एंटीबायोटिक लेते हैं. यही नहीं, आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारत के दवा बाजार में एंटीबायोटिक्स की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत तक है़ दरअसल, हमारे यहां यह धारणा है कि एंटीबायोटिक दवाओं से कोई नुकसान नहीं होता है और यही है समस्या की असली वजह़.

‘एंटीबायोटिक’ शब्द दो ग्रीक शब्दों, ‘एंटी’ और ‘बायोस’ से मिल कर बना है़ ‘एंटी’ का अर्थ विरोध या खिलाफ और ‘बायोस’ का अर्थ जीवन होता है़ इस तरह एंटीबायोटिक का मतलब है जीवन के खिलाफ.यानी एक ऐसा यौगिक, जो बैक्टीरिया (जीवाणु) को मार देता है या उसके विकास को रोकता है़ इस प्रकार एंटीबायोटिक बीमारी न फैलने देनेवाले यौगिकों का एक व्यापक समूह होता है, जिसका उपयोग कवक और प्रोटोजोवा सहित सूक्ष्म जीवाणुओं- बैक्टीरिया, फफूंदी, परजीवी के कारण हुए संक्रमण को रोकने के लिए होता है़ एंटीबायोटिक शब्द का प्रयोग 1942 में सेलमैन वाक्समैन ने एक सूक्ष्म जीव द्वारा उत्पन्न ठोस पदार्थ के लिए किया था़.

हाल ही में जारी रिपोर्ट वर्ल्ड एंटीबायोटिक-2015 के अनुसार, बीते दो दशकों में कई एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर हो गयी हैं. इसके बावजूद ऐसी दवाओं की बेतहाशा खपत हो रही है. आलम यह है कि खांसी-जुकाम में भी मरीज कई तरह के एंटीबायोटिक लेने लगे हैं, जबकि इनकी जरूरत ही नहीं होती़ भारत में एंटीबायोटिक दवाओं की खपत सबसे ज्यादा है. इस रिपोर्ट के मुताबिक हर भारतीय हर साल औसतन 11 एंटीबायोटिक गोलियों का सेवन करता है़ इस समस्या के लिए दोषी अकेले रोगी ही नहीं है, बल्कि बुखार-खांसी के लिए भी धड़ल्ले से एंटीबायोटिक लिखनेवाले डॉक्टर भी बराबर दोषी हैं. इसके अलावा, दवा दुकानों पर भी एंटीबायोटिक डॉक्टरी पर्चे के बिना बिक रहे हैं.

दिल्ली के गुरु तेगबहादुर अस्पताल में न्यूरोसर्जरी विभाग के हेड डॉक्टर राकेश दुआ कहते हैं कि आजकल मामूली दिक्कतों पर एंटीबायोटिक्स लेना एक आदत बनती जा रही है, जो आगे चल कर कई परेशानियां पैदा करती हैं. वैसे, बेतहाशा बढ़े एंटीबायोटिक की खुराक का असर कितना बुरा पड़ा है, इसे जानने के लिए कुछ उदाहरणों पर गौर करें. पहला, दुनिया का पहला एंटीबायोटिक पेनिसिलिन, निमोनिया जैसी बीमारी में बेहद कारगर था़ सिर्फ एक खुराक में असर दिखानेवाली यह दवा, निमोनिया के अलावा कई अन्य बीमारियों में रामबाण मानी जाती थी, क्योंकि एंटीबायोटिक की खोज ही इसी से शुरू हुई थी़ लेकिन अब निमोनिया के लिए भी यह नाकाफी है, इसकी जगह मरीज को कई अन्य एंटीबायोटिक देने पड़ते हैं. दूसरा उदाहरण, लगभग 10 साल पहले तक टायफाइड के मरीजों को क्लोरमफेनीकोल नाम एक सस्ता एंटीबायोटिक दिया जाता था, जिससे मरीज भला-चंगा हो जाता था़ अब डॉक्टर यह एंटीबायोटिक नहीं देते, क्योंकि यह प्रभावहीन हो गया है़ अब एक साथ मल्टीपल एंटीबायोटिक देनी पड़ती है, तब जाकर रोगी की सेहत में कुछ सुधार होता है़.

विशेषज्ञ इसकी वजह यह बताते हैं कि कोई भी एंटीबायोटिक यदि बार-बार इस्तेमाल की जाती है तो मरीज के शरीर में मौजूद बैक्टीरिया, उस दवा के प्रति रेजिस्टेंस डेवलप कर लेता है़ उसमें यह क्षमता प्राकृतिक होती है़ वह सेल्स में इस तरह के सुरक्षा कवच भी बना लेता है, जिससे दवा वहां तक पहुंच नहीं पाती़ ऐसे में दवा निष्प्रभावी हो जाती है़ विशेषज्ञों के अनुसार, डर इस बात का है कि लगातार एंटीबायोटिक अपना असर खो रहे हैं और इनकी नयी खोज कम हो रही है. अगर ऐसी स्थिति रही तो हम पेनिसिलिन की खोज से पहले के दौर में पहुंच जायेंगे़ उस जमाने में लोग सामान्य संक्रमण से मर जाते थे़.

आज पूरी दुनिया में हजारों एंटीबायोटिक्स हैं, जिसमें कई असर खो रहे हैं. हर वर्ष लगभग पांच दवाओं के प्रभाव खोने के संकेत सामने आ रहे हैं. इस विषय पर डॉक्टरों का शोध जारी है. लेकिन जिस रफ्तार से यूरोपीय और एशियाई देशों में एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होता जा रहा है, वह चिंता का विषय है. हमारे देश में टीबी के लिए बनी कई एंटीबायोटिक दवाओं का असर अब खत्म हो गया है. पिछले ही वर्ष टीबी के 4,40,000 ऐसे नये मामले सामने आये, जिन पर एंटीबायोटिक का कोई प्रभाव नहीं देखा गया. इसमें से लगभग 1,50,000 लाेगों की मौत हो गयी थी़ अगर इस संबंध में तत्काल ठोस कदम नहीं उठाये गये, तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं.

कल पढ़ें : क्या हैं फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन (एफडीसी) की दवाइयां और क्यों हैं ये सेहत के लिए खतरनाक?

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