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भारत में कामयाब होना है..’त्योहारों को जानें’

इरिक बार्टन बीबीसी कैपिटल हिंदुस्तान कई सभ्यताओं वाला देश है. यहां कई धर्म और जातियों-जनजातियों के लोग बसते हैं. हिंदुस्तान में रोज़ कोई न कोई त्योहार होता है. यहां लोग किसी और की निजता का ख़याल किए बिना, बेतक़ल्लुफ़ी से घर-परिवार, दोस्त-यार-प्यार के बारे में सवाल-जवाब करते हैं. किसी अनजान से भी बात करने में […]

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हिंदुस्तान कई सभ्यताओं वाला देश है. यहां कई धर्म और जातियों-जनजातियों के लोग बसते हैं. हिंदुस्तान में रोज़ कोई न कोई त्योहार होता है.

यहां लोग किसी और की निजता का ख़याल किए बिना, बेतक़ल्लुफ़ी से घर-परिवार, दोस्त-यार-प्यार के बारे में सवाल-जवाब करते हैं. किसी अनजान से भी बात करने में भी हम कोई झिझक नहीं महसूस करते.

इन ख़ासियतों की वजह से अक्सर विदेश से यहां काम करने आने वाले हैरान रह जाते हैं. विदेशियों को यहां के माहौल का अभ्यस्त होने के लिए बहुत मशक़्क़त करनी पड़ती है.

कनाडा की प्रोफ़ेसर डोरा कूप हर साल बिज़नेस स्कूल के प्रोग्राम में पढ़ाने के लिए 10 दिन के लिए भारत आती हैं.

यहां आने पर पढ़ाने के अलावा उनकी दिलचस्पी भारत के समाज-संस्कृति को समझने में होती है.

वह देखती हैं कि भारत में दो देश बसते हैं. एक तरफ़ बड़े-बड़े मल्टीनेशनल कॉर्पोरेशनों को कड़ी टक्कर देने वाली भारतीय कंपनियां हैं. जिनका कैंपस किसी भी अमेरिकी या यूरोपीय कंपनी जैसा होता है.

वहीं दूसरा हिंदुस्तान उन्हें अभावों, ग़रीबी का दिखता है. दुनिया चांद पर जा पहुँची है. मगर ये ग़रीबों वाला हिंदुस्तान, अभी जैसे 18वीं-19वीं सदी में जी रहा हो.

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बैंगलोर मे डोरा ने इस्त्री करने वाले एक शख़्स को देखा, जो ठेले पर ही अपना धंधा चलाता है. वो अभी भी कोयले से चलने वाली इस्त्री ही इस्तेमाल करता है.

भारत में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई बड़ी लंबी-चौड़ी और गहरी है. एक तरफ़ तो हिंदुस्तान में अरबपतियों की संख्या तीन गुनी से ज़्यादा बढ़ गई है, पिछले दस सालों में.

वहीं दूसरी तरफ़ देश की 20 फ़ीसद आबादी अभी भी ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है. दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए जूझती है.

प्रोफ़ेसर डोरा कूप कहती हैं कि भारत में काम करने वाले विदेशियों को समझना होगा कि यहां दो देश एक साथ बसते हैं. उन्हें यहां की रिवाज़ों को अच्छे ढंग से जानना-समझना होगा. क्योंकि यह वह देश है जहां कोस-कोस में पानी और चार कोस में बानी यानी बोली बदल जाती है.

जहां उत्तर और दक्षिण भारत के पर्व-त्योहार, पूरब और पश्चिमी भारत से अलग हैं. कहीं मकर संक्रांति है तो कहीं बिहू और कहीं ओणम का त्योहार मनाते हैं लोग.

ऐसे में किसी विदेशी मैनेजर को भारत में कामयाब होने के लिए यहां के रीति-रिवाज़ों, जाति-धर्म की सही समझ होनी चाहिए.

भारत और विदेश में आर्ट और डिज़ाइन स्कूल चलाने वाले शिवांग ध्रुव कहते हैं कि भारत में एक साथ 20 देश बसते हैं. हर इलाक़े की अपनी संस्कृति है. ध्रुव सलाह देते हैं कि भारत में काम शुरू करने से पहले विदेशियों को दो तीन हफ़्ते देश को समझने में गुज़ारने चाहिए.

ध्रुव कहते हैं कि विदेशी मैनेजर्स के लिए भारत की जाति व्यवस्था सबसे ज़्यादा हैरान करती है. बहुत कम लोग हैं, जो यहां के समाज में जाति की अहमियत समझते हैं. पिछले कुछ सालों में बड़े शहरों में जाति की बेड़ियां टूटी हैं.

अब छोटी जाति के समझे जाने वाले भी ऊंची जााति के लोगों के साथ काम करते हैं, उठते-बैठते हैं. मगर गांवों में अभी भी इसका सख़्ती से पालन होता है.

ध्रुव कहते हैं कि विदेशी सीईओ को भारत में कामयाब होना है तो जाति व्यवस्था के प्रति संवेदनशील होना होगा. बेहतर होगा कि वो नौकरी में युवाओं को मौक़ा दें क्योंकि विदेश से पढ़ाई करके आए, या घूम के आई ये पीढ़ी, जाति के बंधनों से धीरे-धीरे आज़ाद हो रही है.

हिंदुस्तान में हर दिन कोई न कोई व्रत, पर्व या त्योहार होता है. यानी यहां जश्न का सिलसिला पूरे साल चलता है. विदेशी मैनेजरों को यहां त्योहारों की अहमियत समझनी होगी.

पेरिस के बिज़नेस स्कूल में प्रोफ़ेसर, भारतीय मूल की डलहिया मणि कहती हैं कि भारत में काम को त्योहारों से अलग नहीं किया जा सकता. यहां साल के क़रीब दो दर्जन वर्किंग डे, त्योहारों की भेंट चढ़ जाते हैं. विदेशी मैनेजर्स को इस बात से दिक़्क़त हो सकती है. मगर, उन्हें इसको लेकर सख़्ती नहीं करनी चाहिए.

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भारत में अक्सर दफ़्तरों में भी त्योहार मनाए जाने लगते हैं. होली-दिवाली, क्रिसमस पर लोग अपने काम करने की जगहों को सजाना पसंद करते हैं. छोटे-मोटे तोहफ़ों का लेनदेन होता है.

विदेशी मैनेजर्स के लिए यह हैरान करने वाली बात हो सकती है. मगर, ऐसे चलन पर रोक लगाना उनके लिए नुक़सानदेह हो सकता है.

मणि कहती हैं कि भारतीय बड़े बेतक़ल्लुफ़ होते हैं. आप बैंक जाइए और वहां का कर्मचारी काम करते-करते आपसे आपके परिवार, बाल-बच्चों के बारे में पूछने लगता है. विदेशियों के लिए ये निजता में दखल हो सकता है. मगर भारत में ऐसे ही लोग बेझिझक सवाल करते हैं, एक दूसरे से जुड़ जाते हैं.

कनाडा की प्रोफ़ेसर डोरा कूप कहती हैं कि भारत मे कामयाबी की पहली शर्त है, मैदान में डटे रहने की क़ुव्वत. चुनौतियां तमाम हैं. जैसे गाड़ियों से अटी पड़ी सड़क से गुज़रती एक गाय, जो चुपचाप अपनी राह चलती रहती है. हॉर्न बजाते लोगों, सामने से आती, अगल-बगल से गुज़रती गाड़ियों से बेपरवाह.

प्रोफ़ेसर कूप भारत आने वाले विदेशियों को इसी गाय सरीखे बर्ताव की सलाह देती हैं. यहां के चलन,रीति-रिवाज़, सड़क पर लगे ट्रैफ़िक जाम जैसे हैं. इनके बीच से सावधानी से गुज़रिए, सधी हुई चाल से.

जैसे भीड़-भरी सड़क से गुज़रती गाय. विदेशियों को यहां के रीति-रिवाज़ों से ऐसे ही तालमेल बनाते हुए अपनी कामयाबी का रास्ता निकालना चाहिए.

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