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ईरान के हालिया चुनाव : पश्चिम के साथ संबंधों में परिवर्तन के संकेत

ईरानी संसद और विशेषज्ञ सभा के चुनाव न सिर्फ ईरान के लिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण हैं. अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के साथ संबंधों की भावी दिशा कई अर्थों में मध्य-पूर्व की राजनीति के भविष्य को निर्धारित करेगी. प्रस्तुत है इन चुनावों के विविध पहलुओं पर एक विश्लेषण… आमिर हुसैन माहदवी ईरानी […]

ईरानी संसद और विशेषज्ञ सभा के चुनाव न सिर्फ ईरान के लिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण हैं. अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के साथ संबंधों की भावी दिशा कई अर्थों में मध्य-पूर्व की राजनीति के भविष्य को निर्धारित करेगी. प्रस्तुत है इन चुनावों के विविध पहलुओं पर एक विश्लेषण…
आमिर हुसैन माहदवी
ईरानी पत्रकार
एवं अध्येता
ईरानी संसद के लिए पिछले सप्ताह संपन्न हुए चुनावों ने यह साफ कर दिया है कि इस इसलामी गणराज्य की राजनीति बदल चुकी है, जिसका श्रेय पश्चिम के साथ हुए परमाण्विक करार को है. राष्ट्रपति मुहम्मद खातमी के 1997 में आरंभ हुए शासन काल से लेकर पिछले हफ्ते के चुनावों तक ईरानी राजनीतिक परिदृश्य सुधारवादियों तथा रूढ़िवादियों के बीच विभाजित रहा है.
जहां सुधारवादी अधिक उदारतापूर्वक ज्यादा सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आजादी की पैरोकारी करते, वहीं रूढ़िवादी शरिया कानूनों को आत्यंतिक रूप से लागू करने तथा सत्ता के केवल सीमित प्रसार का समर्थन करते थे. नये राष्ट्रपति हसन रूहानी के चुनाव से किसी को भी हैरत नहीं हुई. 2013 के पिछले चुनाव का केंद्रीय मुद्दा ईरान के परमाण्विक कार्यक्रम की लागत था और रूहानी ऐसे अकेले उम्मीदवार थे, जिन्होंने चुने जाने पर अमेरिका के साथ समझौते की कोशिशों का वादा किया था.
राजनीतिक खींचतान
आज ईरान में चल रही बहस का मुद्दा लोकतंत्र अथवा मानवाधिकार नहीं, बल्कि रूहानी सरकार द्वारा की जा रही एयरबस विमानों की खरीद है. ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्ला अली खामनेई परमाणु करार के बाद भी अमेरिकी सरकार के प्रति पूरी तरह निराशावादी रुख रखते हुए उसे ‘अविश्वसनीय’ मानते हैं.
उनका मत है कि पश्चिमी जगत अब ईरानी सरकार के तख्तापलट के बजाय ईरान में अपने समर्थकों की मार्फत सरकार के रूपांतरण या पश्चिमीकरण की कोशिशें करना चाहता है. चुनावों के दौरान भी उन्होंने मतदाताओं से यह अनुरोध किया था कि वे पश्चिम समर्थित उम्मीदवारों को अपने मत न दें. करार के बाद अयातोल्ला खामनेई के विचारों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे ईरान के अलगाव को उसी सीमा तक ढीला करने देंगे, जहां तक देश पर उनका लगातार शासन सुनिश्चित रहे. मगर किसी भी सूरत में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में शामिल होने का उनका कोई इरादा नहीं है.
इस पृष्ठभूमि में, इन चुनावों के नतीजे, जिसमें महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक अंतरराष्ट्रवादियों को सफलताएं हाथ लगीं, रूहानी तथा पश्चिम के बीच आगे इस तरह के और भी सहयोग की आशा जगाते हैं. तेहरान में इसके समर्थकों ने सभी सीटें जीत लीं. दस लाख से ऊपर की आबादीवाले नगरों में उन्हें लगभग 60 फीसदी सीटों पर विजय मिली, जबकि छोटे शहरों में उन्होंने एक तिहाई संसदीय सीटों पर जीत दर्ज की. दूसरी ओर, अयातोल्ला की हुकूमत अपने यहां तनिक भी अशांति या अस्थिरता की भनक विश्व को लगने देना नहीं चाहती.
यही वजह थी कि ये चुनाव संवादों तथा प्रचार मुहिमों में कम से कम सरकारी हस्तक्षेप के साथ संपन्न हुए. कुछ पिछले चुनावों के विपरीत, इस बार इंटरनेट अथवा मोबाइल संपर्क पर कोई प्रतिबंध न था.
रूहानी के लिए उचित मौका
रूहानी सरकार तथा परमाण्विक करार के समर्थकों के लिए अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अंतरराष्ट्रीयकरण सर्वाधिक व्यावहारिक रास्ता हो सकता है. सुधारवादियों तथा रूढ़िवादियों के बीच पिछला संघर्ष 2009 के विवादित राष्ट्रपति चुनावों के वक्त हुआ था, जब उस वक्त के ‘हरित आंदोलन’ को उसके सैकड़ों समर्थकों की हत्या कर अथवा उन्हें जेल भेज कर कुचल दिया गया था. सीरिया की घटनाओं ने परिवर्तन के लिए आतुर ईरानियों को कुछ सबक सिखाये हैं.
पहला, यदि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद वहां के असंतुष्टों को कड़ाई से कुचल सकते हैं, तो उनके यहां भी यही किया जा सकता है. दूसरा, जिन तत्वों ने सीरिया को भौगोलिक विघटन के कगार तक पहुंचा दिया है, वे ईरान में भी यही स्थिति पैदा कर सकते हैं.
आम तौर पर, अरब के आंदोलन ने ईरानियों की दो पीढ़ियों- जिन्होंने या तो 1979 के इस्लामिक क्रांति को देखा है या जिन्होंने 2009 के हरित आंदोलन को- को इस हद तक प्रभावित किया है कि सड़कों पर प्रदर्शन से उन्हें परहेज है. इसके बदले उन्होंने इस्लामिक गणराज्य के क्रांतिकारी मूल्य को अंतरराष्ट्रीयकरण तथा पश्चिम के साथ आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध के जरिये बरकरार रखा है. इसलिए, गार्जियन कौंसिल द्वारा उम्मीदवारों को ऐतिहासिक रूप से बाहर करने के बावजूद तेहरान के मतदाताओं ने सभी रूहानी समर्थकों को विजयी बनाया है.
उल्लेखनीय है कि ऐसे कुल 30 में से 20 उम्मीदवार लोगों के लिए बिल्कुल अनजान थे और राजनीति के मैदान में नये खिलाड़ी थे. इससे यही साबित होता है कि जनता का मुख्य उद्देश्य बेहतरीन उम्मीदवारों का चयन नहीं है, बल्कि वे परमाणु करार के विरोधियों को संसद से बाहर रखना चाहते हैं.
अंतरराष्ट्रीयकरण के प्रयास में लगे रूहानी के हाथ बंधे हुए नहीं हैं. तेल की कम कीमत और अहमदीनेजाद के कार्यकाल में इंफ्रास्ट्रक्चर का नुकसान जैसे कारकों ने रूहानी के उदार शासन की जरूरत को बढ़ा दिया है. वर्ष 2005 में, अतिवादी खेमा मोहम्मद खातमी को हटाकर महमूद अहमदीनेजाद को लाने में सफल रहा था, तब तेल की कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल थीं और ईरान के आर्थिक विकास की वार्षिक दर 6.2 फीसदी थी.
इस वर्ष फरवरी तक तेल की कीमतें 28 डॉलर प्रति बैरल हैं, आर्थिक विकास की दर शून्य के आसपास है और देश का सार्वजनिक ऋण उसकी सार्वजनिक परिसंपत्तियों से अधिक है.
हर साल बेरोजगारों की संख्या में 20 लाख की बढ़ोतरी के साथ आर्थिक संकट की स्थिति चिंताजनक है. ऐसे में ईरान के धार्मिक नेता और रिवोल्यूशनरी गार्ड्स को रोजमर्रा के प्रशासनिक मामलों के लिए रूहानी सरकार की जरूरत है. शांतिपूर्ण और स्वस्थ तरीके से हुए चुनाव में इस बात को देखा जा सकता है.
धार्मिक नेता के अनेक प्रमुख करीबी, जिनमें उनके बेटे के ससुर भी शामिल हैं, संसद में जगह नहीं पा सके हैं, इसके बावजूद खामनेई ने चुनाव नतीजों पर संतोष व्यक्त किया है. इस कारण रूहानी और सरकार के अन्य हिस्सों के बीच किसी तरह की तनातनी की स्थिति पैदा नहीं हुई.
नया राजनीतिक ध्रुवीकरण
अंतरराष्ट्रीयकरण पर ध्यान देकर रूहानी ने सुधारवादियों या हरित आंदोलन से कहीं अधिक ठोस पहलकदमी की है. विभिन्न कारणों से सुधारवादियों का विरोध करनेवाले अनेक रूढ़िवादी रूहानी के साथ खड़े हैं. बाहरी दुनिया से संवाद करने की प्रतिबद्धता के कारण उन युवाओं को जोड़ा जा सका है जो बेहतर अंतरराष्ट्रीय संबंधों और भिन्न जीवन शैली के पक्षधर हैं, पर जरूरी रूप से लोकतंत्र-समर्थक कार्यकर्ता नहीं हैं.
कहा जा सकता है कि अधिक धार्मिक दक्षिणपंथी रूढ़िवादी तथा राजनीतिक रूप से कम सक्रिय और सुधारवादी पार्टी ने एक साथ मिलकर परमाणु करार और अंतरराष्ट्रीयकरण मोर्चा बनाया है. सरकार-समर्थक 90 फीसदी से अधिक उम्मीदवारों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर दिये जाने के बावजूद इस खेमे की सामाजिक विविधता के कारण अनजान उम्मीदवारों के पक्ष में ही माहौल बनाने में कामयाबी मिली. ईरान का यह नया राजनीतिक ध्रुवीकरण देश को हिंसा के बजाय धीमे बदलाव की ओर ले जा रहा है, और इसमें किसी धार्मिक या सैद्धांतिक परिभाषा का अभाव है.
परंतु, यह एक वास्तविकता है- और अंतरराष्ट्रीयकरण आंदोलन में शामिल लोगों की उम्र और उनके सामाजिक मूल्योंमें विविधता को देखते हुए इससे मौजूदा समय में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है और फिलहाल इसका ध्यान रोजमर्रा के जीवन को बेहतर करने पर रहेगा. यह लोकतंत्र पर एअरबस की जीत है.
-‘द वाशिंगटनपोस्ट’ से साभार
(अनुवाद : विजय नंदन)
ईरान सत्ता तंत्र
गार्जियन कौंसिल- यह ईरान की सर्वाधिक प्रभावशाली शासकीय इकाई है. रुढ़िवादियों द्वारा नियंत्रित इस परिषद में प्रधान नेता द्वारा छह धार्मिक विशेषज्ञ नियुक्त होते हैं तथा छह न्यायविदों को न्यायपालिका नामित करती है जिन्हें संसद अनुमोदित करती है.
सदस्यों का कार्यकाल छह वर्ष का होता है और हर तीन साल पर आधे सदस्य सेवानिवृत्त हो जाते हैं.
यह कौंसिल संसद द्वारा पारित सभी विधेयकों को परखने के बाद मंजूरी देती है और इसे किसी विधेयक को संविधान और इस्लामी कानूनों के विरुद्ध पाये जाने पर निषेध करने का विशेषाधिकार भी है. यह कौंसिल संसद, राष्ट्रपति और विशेषज्ञ सभा के उम्मीदवारों को चुनावलड़ने से रोक सकती है.
विशेषज्ञ सभा- इस एसेंबली ऑफ एक्सपर्ट में 88 धार्मिक विद्वान सदस्य होते हैं जिन्हें ईरान के प्रमुख नेता को चुनने और हटाने तथा उनके कामकाज पर निगरानी रखने और सलाह देने का अधिकार है. जनता द्वारा सीधे निर्वाचित सदस्यों का कार्यकाल आठ वर्ष का होता है. इसे संसद से भी अधिक शक्तिशाली माना जाता है.
ईरानी संसद- संसद की मौजूदा सदस्य संख्या 290 है और इसका कार्यकाल चार वर्षों का होता है. इसे आम तौर पर मजलिस के नाम से जाना जाता है. हालांकि संसद को कानून बनाने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा का अधिकार है, पर प्रमुख नेता के कार्यालय, गार्डियन कौंसिल और राष्ट्रपति की तुलना में इसे कमजोर माना जाता है. ईरान में मौजूदा चुनाव के बाद गठित होनेवाली संसद इस्लामिक क्रांति के बाद देश की दसवीं मजलिस होगी.
ईरान चुनाव नतीजे : उम्मीदों की नयी िकरण
ईरानी संसद ‘मजलिस’ के 290 सीटों और ‘एसेंबली ऑफ एक्सपर्ट’ की 88 सीटों के लिए एक साथ हुए ऐतिहासिक चुनाव कई मायनों में अहम हैं. ईरान पर लगे प्रतिबंधों के हटने और नाभिकीय कार्यक्रम समझौते के बाद आये इस परिणाम को राष्ट्रपति हसन रूहानी की सुधारवादी नीतियों के समर्थन के रूप में देखा जा सकता है.
– इस चुनाव में दो खास बातें रहीं- पहली यह कि चुने गये सांसदों में कुछ महिला प्रतिनिधि भी चुनी गयीं, जो रूढ़िवादियों के लिए मुश्किल खबर है, दूसरा यह कि ‘एसेंबली ऑफ एक्सपर्ट’ के चेयरमैन मोहम्मद याजदी अपने प्रतिद्वंदी पूर्व राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के अध्यात्मिक सलाहकार मोहम्मद मेसबाह से हार गये. अगले वर्ष होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले संसद में सुधारवादी सहयोगियों के बढ़ने से माना जा रहा है कि रोहानी अपने आर्थिक विकास के एजेंडे जैसे महत्वपूर्ण कदम को आगे बढ़ा सकेंगे.
– सुधारों की संभावनाएं : चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना सुधारवादी उम्मीदवारों को ही करना पड़ा. गार्जियन कौंसिल को यह तय करना था कि किस उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतरने की मंजूरी देना है. चुनावों के लिए 12 हजार से अधिक उम्मीदवारों ने आवेदन किया था, जिसमें ज्यादातर सुधारवादी थे, लेकिन कौंसिल ने इनकी संख्या सीमित कर दी और केवल 6200 उम्मीदवारों को मैदान में उतरने की इजाजत दी. इससे जनता को अनेक क्षेत्रों में कंजरवेटिव उम्मीदवारों में से ही चुनने का विकल्प रह गया था.
– 290 संसदीय सीटों में सुधारवादी सहायोगियों ने 83 और निर्दलीय उम्मीदवारों ने 60 सीटें जीती, जबकि कंजरवेटिव के हिस्से में 78 सीटें ही आयीं. इस प्रकार से सुधारवादी अपने सहयोगियो के साथ मिलकर संसद में बहुमत हासिल कर लेंगे.
– कट्टरपंथ के लिए खिलाफ एकजुटता : ईरान के अच्छे भविष्य के उम्मीद में 60 प्रतिशत ईरानी जनता ने अपने प्रतिनिधियों के लिए वोट किया. ईरान की कुल 80 मिलियन की आबादी में पांच करोड़ से अधिक मतदाता हैं. ईरान की राजधानी तेहरान में सुधारवादियों द्वारा 30 सीटें जीतने के बाद अप्रैल में दूसरे चरण में शेष 64 सीटों के लिए होनेवाले मतदान के लिए मुकाबले दिलचस्प होने के आसार हैं.
– सहयोगियों की संख्या बढ़ने से राष्ट्रपति रूहानी को अपने विकासवादी एजेंडे को बढ़ाने में अधिक मजबूती मिलेगी. हालांकि अभी भी कट्टरपंथियों की ताकत अदालतों और इस्लामिक रिवोल्युशनरी गार्ड्स आदि संस्थाओं में बहुत मजबूत है.
– ईरानी युवाओं में एक नया उत्साह : इस चुनाव में युवाओं और सोशल मीडिया की भूमिका सबसे खास रही. काफी संख्या में गार्जियन कौंसिल द्वारा सुधारवादी उम्मीदवारों को नामांकन को खारिज कर देने के बाद भी उत्साह बरकरार रहा. हार्डलाइनर उम्मीदवारों के खिलाफ आ‌वाज उठाने के लिए ग्रुप चैट, टेलेग्राम जैसे सोशल मीडिया माध्यमों का युवाओं ने भरपूर उपयोग किया.
-ब्रह्मानंद िमश्र

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