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नियो गया लंगड़ी मारके
शुभंकर एक आलीशान तीन मंजिला घर. घर के आगे लॉन. लॉन को कई भागों में विभाजित करती कंक्रीट की सड़कें. लॉन में तरह-तरह के लैंपपोस्ट़ पर हैरत की बात, पूरा घर अंधेरे में डूबा है़ हर जगह मायावी शांति पसरी है. बस सामनेवाले कमरे को छोड़, जहां टीवी चल रहा है… वहां एक लकी डॉग […]
शुभंकर
एक आलीशान तीन मंजिला घर. घर के आगे लॉन. लॉन को कई भागों में विभाजित करती कंक्रीट की सड़कें. लॉन में तरह-तरह के लैंपपोस्ट़ पर हैरत की बात, पूरा घर अंधेरे में डूबा है़ हर जगह मायावी शांति पसरी है.
बस सामनेवाले कमरे को छोड़, जहां टीवी चल रहा है… वहां एक लकी डॉग है. नाम है लाल्टू. इसी सप्ताह लॉटरी खुली है उसके नाम. लॉटरी यानी? मरदे बुझबे नहीं करते. प्रिंसिपल सेक्रेटरी चंद्रा साहब का दामाद बनने जा रहा है. ई बेहन्गवा छोकरा? हां जी, हां! बेबी पहले घर से है. चंद्रा साहब की तीसरी बीवी ने दारू पीते हुए लाल्टू के चाचा से पच्चीस हजार का चंदा लिया अपने एनजीओ के लिए और रिश्ता पक्का कर दिया, होछे रे बाबा.. डन तो डन!
…अंदर चलें? चलिए. कमरे में कई लड़के मौजूद हैं, जो लाल्टू के साथ कॉलेज में साथ थे. सब नीचे बिछी कालीन पर हाथ में बोतल पकड़ जैसे-तैसे पसरे हैं. अंधेरे में टीवी से निकली रोशनी डिस्को लाइट की तरह उनके चेहरे पर भुक-भाक कर रही है. टीवी पर अंगरेजी फिल्म ‘मेट्रिक्स’ का लास्ट फाइट सीक्वेंस चल रहा है. हीरो और विलेन रेलवे प्लेटफार्म पर आमने-सामने खड़े हैं. लड़ाई से पहले अंगरेजी में वाक् युद्ध जारी है.
एक लड़का बोतल से बीयर ग्रहण कर जम्हाई लेते कहता है, साला एतना बाय में अंगरेजी बोलता है कि एक लाइन बुझते-बुझते दुसरका सांय से पार हो जाता है. दूसरा लड़का घोंघियाता है, कुछो कहो.. मार-धाड़ बवाल है.. ए वन!
उधर, प्लेटफार्म पर हवा चलती है और ट्रिनिटी नाक-भौं सिकोड़ कर अपने कन्फ्यूजन को शब्द देती है, व्हाट इज हैपेनिंग?
एक लड़का जनाना आवाज में लाइव डबिंग शुरू कर देता है, हे सती मइया! हे पीपरपांती वाली सुहागिन माय! हमर सुहाग के रच्छा कर..
सब लड़के खिखिया के हंस देते हैं.उधर, नियो की मुठ्ठी भिंच जाती है. मोर्फियस भगवान कृष्ण की तरह अपने शिष्य अर्जुन यानी नियो पर भरोसा जताते हुए कह रहा है, ही इज बेगिनिंग टू बिलीव.
एक लड़का फिर उटपटांग ढंग की लाइव डबिंग करता है, रणनीति से पहले भागनीति, ना त गइले तू बेटा. तीसरा लड़का उसकी बात काटते हुए कहता है, अभी देखो तो का-का होता है.. ऐशहिएं थोड़े है ई लाल्टू भइया का फेवरिट सिनेमा! का लाल्टू भइया? लाल्टू सबसे आगे बैठा एकटक टीवी की ओर देख रहा है. वह कुटिल मुस्कान के साथ बुदबुदाता है, हीरो हमेशा सही समय पर रंग दिखाता है बेटा.. वेट एंड सी!
टीवी का ये महाभारत घर में किसी को जगा देता है. लाल्टू के कमरे के ठीक ऊपर की मंजिल पर लाइट जल जाती है. उसका चचेरा बड़ा भाई जाग गया है. वह तेजी से बेड से उतरता है. गुस्से में दरवाजे के कोने में पड़ी लाठी उठता है. गालियां देता हुआ बाहर आता है. उसकी बीवी बहुत रोकती है, पर नहीं रुकता. अगिया बैताल हो चीखता है, रोज-रोज साला ओही हुडदंगई, सोना मुहाल कर दिया है.
दरवाजे पर जाते-जाते गलियां दागता हुआ वो डंडे से ‘लैस’ हो जाता है. अभ्यास करते हुए बकबकाता है, आज साला दे डंडा, सबका चूतड़ ‘लेवल’ कर देंगे.
उधर, लाल्टू का भाई एक्शन की तैयारी कर रहा है. इधर, टीवी पर एक्शन जारी है. चश्माधारी विलेन नियो को धो-धा कर पटरी पर पटक देता है. घमंड में चूर वह नियो को दबोच लेता है और उसे उसकी नियति बताते हुए पूछता है, कैन यू हीयर इट मिस्टर एंडरसन?
इधर, अपनी नियति से अनभिज्ञ लाल्टू और उसकी पार्टी एक-एक पल का मजा उठा रही है. रूम में सब जगह एक भव्य शांति है. उधर, संजीव उमड़ते-घुमड़ते बादलों-सा शोर मचाता और डंडा पटकता चला आ रहा है.
…मजा तब आता है, जब हीरो अपनी हीरोगिरी को परफेक्टली टाइम करे. नियो तभी पासा पलट देता है और एजेंट को पटरी पर छोड़ खुद रफ्तार से आती ट्रेन के रास्ते से हट जाता है. एजेंट ट्रेन की चपेट में आ जाता है, पर मरता नहीं, क्योंकि वह एक मशीन है. सभी लड़के मुंह बाये स्क्रीन पर नजरें गड़ाए हुए हैं.
पल भर बाद एक लड़का अंगड़ाई लेता बाहर निकलता है. उसकी नजर डंडा लेकर आते संजीव पर पड़ती है. संजीव उसे दौड़ाता है. पर, वो तेज गति से सीधा बाहर भागता है.
…नियो आश्वस्त हो स्टेशन से बाहर आ रहा है. तभी उसे ट्रेन के रुकने की आवाज सुनाई देती है. वह सीढ़ियों के ऊपर से पीछे मुड़ कर प्लैटफार्म की तरफ देखता है.
संजीव लाल्टू के रूम के दरवाजे पर जोर की लात जमाता है और दरवाजा झटके से खुल जाता है.
…नियो घरों के दरवाजे खोलकर एक घनी आबादीवाले इलाके में भाग रहा है एजेंट से बचने के लिए.
संजीव दरवाजे पर ऐसे खड़ा है जैसे ‘प्यासा’ का गुरुदत्त सिनेमा हॉल के प्रवेशद्वार पर जड़वत हो. लड़के अब भी फिल्म के रोमांच में लीन हैं. संजीव पीछे से शुरू करता है. वो डंडा खींच कर सबसे पीछे बैठे लड़के की पीठ पर दे मारता है. अंधेरे में एक कराह सुनाई देती है, अगे माई!
सभी लड़के पीछे देखते हैं. आगे बैठा एक लड़का चुटकी लेता है, का हुआ रे, एजेंट आ गया का?
सब लड़के हंस देते हैं. संजीव बंद कमरे में अंधाधुंध डंडा भांजना शुरू करता है. अब टीवी में रोमांचकारी म्यूजिक तो बज रहा है, पर एक्शन रूम में हो रहा है. अंधेरे में लड़के रोते-कराहते, गालियां देते दरवाजे की तरफ भागते हैं, पर उन्हें क्या पता ये नया जालियांवाला बाग है. यहां से कोई डंडा खाये बिना बाहर नहीं जा सकता. लड़के पैसेज से निकल कर गेट की तरफ रुख कर रहे हैं. एक लड़का इस अफरातफरी में दारू की बोतल बटोरने के लिए किसी तरह लाइट जलाता है, पर संजीव के कहर से वह भी नहीं बच पता.
लाल्टू रूम के कोने में खड़ा अपने चचेरे भाई का कारनामा देख रहा है. दो मिनट में हीं सारा रूम खाली हो जाता है. टीवी पर रोमांचकारी म्यूजिक अब भी जारी है.
सारे लड़के बाहर लॉन में भाग जाते हैं. संजीव भी उनके पीछे पहुंच जाता है. उसकी चीख पूरे माहौल में पसर जाती है, “साला दरुखाना बना के रख दिया हैं ई सब.”
जवाब नहीं मिलता. आक्रोशित संजीव भागते हुए लड़कों को चिल्ला कर कहता है, “का समझे हो, पतुरिया का कोठा.”
एक लड़का, जो पीछे छूट गया था, वह उसके बगल से भागने की कोशिश करता है. पर, पकड़ में आ जाता है. संजीव उस पर थप्पड़ों की बारिश कर देता है.
लाल्टू कमरे से निकल कर उसकी तरफ चला आ रहा है. शोर सुन कर दूसरी तरफ से लाल्टू का चाचा चला आता है. लड़का रोते-बिलखते लाल्टू से मदद की गुहार लगाता है, “अरे बाप… लाल्टू भईया…. आह! मर गये हो… लाल्टू भईया.”
लाल्टू गुस्से में आगे बढ़ता है, अपने भाई को लड़के से पृथक करता है, “छोड़ दे …. छोड़ दे उसको.”
लाल्टू के तेवर देख कर भाई लड़के को छोड़ देता है. लड़का छूटते ही टिकिया उड़ान भाग लेता है. संजीव लाल्टू को भी धक्का देता हुआ बाहर निकालता है, “जा भाग, तू भी निकल ई डेरा से…”
लाल्टू का चाचा जो अब तक मौन होकर तमाशा देख रहा था, मना करता है, “संजीव…… का कर रहा है?”
संजीव गुस्से में लाल्टू को घर के बाहर धकेल रहा है. उसका बाप एक बार फिर कड़क आवाज में टोकता है, “रे संजीवा!” लाल्टू की आंखें नम हो आती हैं.
संजीव थम जाता है, पर लाल्टू अब अपना आपा खो चुका है. वह अरना भैंस की तरह गरगराता है, “चले जायेंगे… लेकिन, भुला गये तुम लोग कि जो घर है, बिजनेस है ऊ खड़ा के किया ?…. हमरा बाप!”
लाल्टू हाथ जोड़ कर आसमान की तरफ देख कर जोर से दुहराता है, “हमरा स्वर्गीय बाप!… और तुम लोग फैमली बिजनेस के नाम पर सब दखल कर गये… उससे पहले तुम बाप-बेटा तो चवन्नी-अठन्नी का खेल खेलते थे… लात खाते चलते थे.”
संजीव तैश में आगे बढ़ता है. बाप आगे बढ़ कर बीच रास्ते में उसे पकड़ लेता है. संजीव को मजबूरन लात का नहीं, बात का सहारा लेना पड़ता है, “डायलॉग का दे रहा है हरमिया… भाग हिंया से… काम के ना काज के, दुश्मन अनाज के.”
वह उल्टे पांव गेट की तरफ बढ़ जाता है. खुली शर्ट की आस्तीन से आंख पोंछता हुआ अपनी मोटरसाइकिल के पास रुकता है. उसे स्टैंड से उतारता है. किक मारते-मारते पीछे पलट कर जवाब देता है, “जा तो रहे हैं…”
बाइक पलट जाती है. वह सारी ताकत झोंक कर भी उसे उठा नहीं पाता. खीझ से भर कर उसे दो-तीन लात मारता है. दूसरे ही पल उसके अंदर कुछ फुरफुराता है. वह पलट कर चाचा से पूछता है, एक बात पूछना है… सादी-बियाह का, का करोगे चचा?
सुन कर चाचा अवाक् रह जाता है.
कंधे झटकता है, काॅलर उठाता है और विजयी भाव से एक ओर चल देता है लाल्टू. समझ गया है वो… रिश्ता अलग, आदमी का सेंसेक्स अलग! चाचा को कॉन्ट्रैक्ट चाहिए… उसके दिमाग में नया पुल है, सड़क है, फ्लाईओवर है, हॉस्पिटल की नयी इमारत है, अपना घर थोड़े ही है.
अंधेरे में खड़ा लाल्टू का लफुआ दोस्त मैसेंजर हुलास भरे स्वर में बुदबुदाता है, बूझिये अब चचा जान… नियो गया लंगड़ी मार के!”
आजादी बनाम आजादी
शैवाल
कथाकार
पुरानी कहानी है़ एक राजा ने वर पाया कि वह जिस चीज को छुएगा, वह सोने की हो जायेगी़ उसने आसपास की सारी चीजों को छू दिया़ पानी, खाद्य पदार्थ और उपयोग की सारी चीजों को़ सब सोने की हो गयीं. पर उसकी खुशी तब काफूर हो गयी, जब भूख लगी, प्यास लगी, बेटे को दुलारने की इच्छा हुई. सोने को वह खा नहीं सकता था, पी नहीं सकता था, बेटे को दुलार भी नहीं सकता था़ सामान्य आदमी के हर छोटे से छोटे सुख से भी वंचित हो गया था वह़कहानी के नये ग्लोबल अर्थ को समझिए़ राजा कौन है, जानिए़ आह्वान कीजिए उनका़ आइए प्रभु, इस देश के हर गोशे में सोना मिलेगा़ पानी बेचिए, सोना मिलेगा़ हवा बेचिए, सोना मिलेगा़ संवेदना, सुकून, संबंध, जीवन मूल्य-सब बेचिए न, सोना ही सोना मिलेगा़ पूंजी के स्वामी की माया है़ मेरठ में उनके आगे नंगी होकर नाच रही हैं बालाएं.
उन्हें देह सुख देने को आतुर हैं दिल्ली, मुंबई और गुजरात की गृह-लक्ष्मियां. उन स्वामियों को समर्पित है सब़ किसानों की उर्वरा जमीन, सोने की खान, आदिवासियों के जंगल, नदी, आदमी की जिंदगी की आस़ व्याख्या और विश्लेषण में लगिए कि क्या पाया, क्या खोया, आजादी के 68 साल बाद़
हर सरकार पूंजीखोरों के दबाव में रही है़ पूंजीवाले प्रभु सरकारी नीतियों से लेकर आदमी के जीवन मूल्यों तक पर काबिज हैं. अपने आसपास के परिदृश्य पर जरा नजर डालिए, बेहद सहज ढंग से मालूम हो जायेगा कि घर आपका है, पर जीने की शर्तें कोई और तय कर रहा है. परिवार आपका है, पर उसकी प्रतिबद्धता का रुख किसकी तरफ होगा, यह कोई और तय कर रहा है. बच्चा आपका है, पर पढ़ेगा क्या और किस तरह, यह कोई और तय कर रहा है.
अजीब मंजर है. किसान आत्महत्या कर रहे हैं, पर करोड़पतियों का सामूहिक गान जारी है कि देश अद्भुत रफ्तार के साथ अमीरी के पायदान पर ऊपर चढ़ता जा रहा है़ ग्रोथ रेट उछाल मार रहा है और मजदूर की सांस डूबती जा रही है़ ऐसे में 68 साल की उम्रवाली आजादी के मायने आम आदमी को आसानी से समझ में आ रहे हैं. गुलामी उसके वजूद में शामिल हो चुकी है़ पर गुलाम बनानेवाला कौन है? धर्म, व्यवस्था, पूंजी… गुलामी चाहे किसी की भी हो, है तो गुलामी ही! चाहे वह अपनी जरूरतों के कारण, चाहे वह बदलते वक्त और परिस्थितियों के कारण हो़ सीधी बात है कि आप आजाद नहीं हैं.
जीना है तो कमाना ही होगा. पर कमाई के तरीके आप खुद तय नहीं कर सकते. आप दर्शन पढ़ना चाहते हैं, नहीं पढ़ सकते. आप अपने मन का गीत गाना चाहते हैं, पर नहीं गा सकते.
आप दार्शनिक हैं, गायक हैं, समाजशास्त्री हैं तो बाजार पूछेगा कि जिंदा क्यों हो. दुनिया को हम्माल चाहिए. हम्माल बन सकते हो तो जियो. जो भी हो, तुम उसी शक्ल में जीना चाहते हो, तो बाजार का शास्त्र, बाजार के गीत गाओ. अकेले रहो, बिको, जियो, मर जाओ. 68 वर्षों की आजादी के मायने यही हैं, हमारा हासिल यही है. जीवन जीने की यह पद्धति, जो बाजार ने दी है.
पर, हमारा यह सपना नहीं था जाहिर है, इसीलिए जेएनयू के छात्र आजादी मांग रहे हैं. जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र आजादी मांग रहे हैं. सब अपने हिस्से की आजादी मांग रहे हैं. हिंदुस्तान का सामान्य जन भी अपने हिस्से की आजादी मांग रहा है. मुकम्मल आजादी. दरअसल वह रूह की आजादी है!
कवि और कविता
डाॅ शिप्रा
परिचय
जन्म : 14-12-1978
शिक्षा
डीएनबी, डीजीओ
संप्रति एक मेडिकल कॉलेज में सहायक प्राध्यापिका
स्त्री चिकित्सा से संबंधित शोध ग्रंथ प्रकाशनाधीन
कितनी बड़ी दुनिया है हमारे पास…
कहीं एक गाता हुआ समुद्र है
या बया का घोंसला
जिसे ढूंढ़ते हुए
गुजार लेते हैं हम
अपने अंदर से
धूप का संगीन माहौल…
और ऐसा शायद रात भर होता है!
कहीं से आती है/ तूफान के बाद तारी
सन्नाटे में
शामिल होने के लिए
एक टुकड़ा लिये
या नींद से जाग कर
रोते हुए बच्चे की आवाज…
कहीं से आती है
हिमपात की घटना के बाद
एक मुठ्ठी घास
और चकमक पत्थर की आग…
कहीं से आती है
जलप्रलय के बाद जारी
अवसान-सर्ग में शामिल होने के लिए
एक बालिश्त सूखी जमीन
मिट्टी का घरौंदा
और एक जोड़ा परिंदे
…कांच के अकेलेपन से बाहर
कहीं एक रास्ता है
या काफिलों का मंजर
जिसकी तलाश में चलते हुए
गुजार लेते हैं हम
अपने अंदर से
पुनर्सृष्टि का माहौल
कि कितनी बड़ी दुनिया है हमारे पास!
(संदर्भ : मुजफ्फरनगर)
धर्म के ठीहे पर
मैंने पिता को एक बार अपने साथ घटित घटना का उल्लेख करते हुए सुना था़ वे उद्विग्न मन से बोल रहे थे, यह चालीस साल पहले की बात है़ मैं उन दिनों एक पहाड़ के पास बसे अल्पसंख्यक गांव के स्कूल में शिक्षक था.
मुझसे स्कूल का अध्यक्ष हर पूर्णिमा की रात एक सवाल करता था. वह अनपढ़ था. पर था कर्मठ पुरुष. दिन-रात अपने आॅयल मिल में तेल पेरता था. उसने पहली बार मुझसे पूछा था, वह कौन-सा भाव है, जो इच्छित वस्तु के नहीं मिलने के बाद भी तुम्हें लगातार जीने की प्रेरणा देता है?
दूसरी बार उसने पूछा, वह कौन-सा भाव है, जो तुम्हारे अंदर लगाव तो पैदा करता पर कहता है, तुम अभी के अभी मर जाओ? तीसरी बार उसने पूछा, वह कौन-सा भाव है जो बाड़े में रखी मुर्गियों के अंडे खाता है और चीख-चीख कर कहता है कि मैं तुम्हारी रक्षा कर रहा हूं? मैं किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाया. उसने बताया भी नहीं. डेढ़ साल बाद एक वाकया हुआ. हेडमास्टर स्कूल के ढेर सारे पैसे खा गया. लोगों ने पीटा. वह हिंदू था. उसने धर्म का सवाल खड़ा कर दिया, दंगे की स्थिति पैदा कर दी. मैंने बोरिया-बिस्तर समेट लिया.
पर अध्यक्ष ने मुझे भागते हुए पकड़ लिया. कहा, जवाब लेके जा मरदूद, वरना पागल हो कर मरेगा़ देख वे भगोड़े, जो तुमसे जीने की अहद करवाये, वह भाव प्रेम है. जो तुम्हें मार डालने को तत्पर दिखे, वह भाव आसक्ति है और देख वे मुर्गीजान, जो भाव तुम्हारे अंडे खाये और तुम्हारी जान बचाने की दुहाई दे, वह आज का तथाकथित धर्म है़
दस साल हो गये इसे सुने. दिखाई बहुत कुछ दिया दुनिया में. कहीं दिखा कि किसी राजनैतिक पार्टी ने अपने को सत्ता पर काबिज करने के लिए धर्म का इस्तमाल कर लिया. कहीं कोई आदमी दिखा, जिसने अपना चेहरा दागदार होने से बचाने के लिए धर्म को ढाल की तरह आगे रख लिया और सामने खड़ी भीड़ को उत्तेजित कर दिया़ साम्राज्य बनाते बाबा दिखे कहीं, तो कहीं नौलखा मंदिर बना कर चढ़ावा खाता व्यापारी दिखा़
बराबर सोचा इस पर. अनुभूतियों ने बराबर जताया अलग-अलग अंदाज! मन ने बताया, धर्म समय सापेक्ष अनुभूति है. इसी कारण मां को उपवास करते हुए देखा तो लगा, उपवास ही धर्म है.
उपवास के बाद जब लड्डू दिया मां ने, तो लगा- मिठाई ही धर्म है. मां को मूर्तियों के आगे शीश नवाते देखा, तो लगा- पत्थरों के आगे झुकना ही धर्म है. पर जब मां से अलग हुई, दूसरे शहर में रहने को विवश हुई और कभी मूर्तियों के आगे झुकी तो भाव-स्मृति में एक अहसास जागा, मां उन पलों में मेरे साथ आ खड़ी हुई और लगा, उनका साथ पाने की यह विलक्षण अनुभूति ही धर्म है!
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