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आरोपों से घिरीं अम्मा को उखाड़ना आसान नहीं

राजकुमार भट्टाचार्य, वरिष्ठ पत्रकार चेन्नई चुनाव आयोग की बीन शुक्रवार को बजी, लेकिन तमिलनाडु में चुनावी नगाड़ा काफी पहले से पीटा जा रहा है. यह नगाड़ा जनता नहीं बजा रही, राज्य के राजनीतिक दल बजा रहे हैं. इसके दो ताल हैं- एक तो जयललिता या अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) विरोधी गंठबंधन का […]

राजकुमार भट्टाचार्य, वरिष्ठ पत्रकार

चेन्नई

चुनाव आयोग की बीन शुक्रवार को बजी, लेकिन तमिलनाडु में चुनावी नगाड़ा काफी पहले से पीटा जा रहा है. यह नगाड़ा जनता नहीं बजा रही, राज्य के राजनीतिक दल बजा रहे हैं. इसके दो ताल हैं- एक तो जयललिता या अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) विरोधी गंठबंधन का ताल और दूसरा आत्मविश्वास का ताल.

पहला ताल हर दल बजा रहा है. मतदाता उन पर ध्यान दे भी रहे हैं या नहीं, यह एकबारगी समझना मुश्किल है. लेकिन लोगों का सवाल यह है कि आखिर द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की अगुवाई वाले तीसरे मोरचे- पीपुल्स वेलफेयर फ्रंट (पीडब्ल्यूएफ)- को सत्ता में आने का मौका क्यों दिया जाये? इस सवाल का फायदा निश्चित तौर पर मौजूदा मुख्यमंत्री जयललिता (अम्मा) और उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक को अब तक मिल रहा है- बाढ़, प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार जैसे तमाम आरोपों के बावजूद. द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि और उनके करिश्माई पुत्र एमके स्टालिन सत्ता विरोधी लहर और खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार के मुद्दे का कोई फायदा नहीं उठा सके हैं. वहीं, पीडब्ल्यूएफ खुद ही नेतृत्व और विकासदृष्टि के सवालों से जूझ रहा है. लोग अब तक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि यह अस्तित्व में क्यों है!

क्या अम्मा खेलेंगी सातवीं पारी?

जो लोग इन शुरुआती पंक्तियों में कांग्रेस और भाजपा का जिक्र तक न आने से हैरान हैं, उन्हें बता दें कि तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में द्रमुक-अन्नाद्रमुक जैसी किंवदंतियों के साथ ही अब देसीय मूरपोकलू द्रविड़ कषगम (डीएमडीके), विडुतलई चिरुतइगल काच्चि (वीसीके), मरुमलारची द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (एमडीएमके), पट्टालि मक्कल काच्चि (पीएमके) जैसे राजनीतिक विकल्पों का वजन किसी भी राष्ट्रीय दल से अधिक हो चुका है. फिर, अगर जयललिता के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहतर राजनीतिक आंकड़ों की चर्चा न हो तो यहां भाजपा की संभावनाओं की चर्चा ही न छिड़े.

बहरहाल, कुछ हलकों में यह मुद्दा जरूर गर्म है कि अगर राज्य के हर विधानसभा चुनाव में सरकार बदलने का चलन कायम रहा, तो क्या द्रमुक-कांग्रेस (और संभावित डीएमडीके) गंठजोड़ के सितारे चमक सकते हैं? हालांकि ध्यान से सुनें तो सुनाई यह भी पड़ता है कि अम्मा इस बार सत्ता

बदलने का चलन समाप्त कर सत्ता के

शीर्ष पर अपनी सातवीं पारी खेलती नजर आ सकती हैं.

मुफ्तखोरी की अर्थव्यवस्था पर संदेह

ऐसी बातों से कइयों के रोयें हमेशा खड़े हो जाते हैं. सो, इस साल जनवरी महीने से ही कहा जाने लगा था कि अन्नाद्रमुक सरकार लोगों को ‘मुफ्तखोरी’ की आदत लगा रही है. इससे तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था कई वर्ष पिछड़ चुकी है. एमडीएमके, वीसीके, पीडब्ल्यूए, भाजपा और अन्य पार्टियां जिस तरह से वोटतराशी में महारत हासिल कर चुकी डीएमडीके की मिजाजपुर्सी में जुटी हैं, उससे इस आरोप के राजनीतिक मकसद साफ हैं. वहीं, जया अम्मा आत्मविश्वास से लबरेज हैं.

वर्ष 2011 में विधानसभा की 234 सीटों में से अकेली अम्मा की पार्टी ने 150 सीटें जीत ली थीं, जबकि उनके गठबंधन के सहयोगी दलों ने 53 सीटों पर कब्जा बनाया था. वर्ष 2014 में आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति जुटाने के मामले में जेल भेजी गयीं जया अम्मा की लोकप्रियता का ग्राफ तमाम आरोपों के बावजूद अच्छी हालत में है. खलिश कोई है तो बस मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने का आरोप. पार्टी सूत्रों की मानें तो इसका चुनावी इलाज भी अन्नाद्रमुक ने सोच रखा है. चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा के बाद एआइएसएमके, एमएमके और केएमडीके जैसी छोटी पार्टियों के साथ गंठबंधन की बातचीत शुरू हो चुकी है. पूर्व कांग्रेसी नेता जीके वासन की अगुवाईवाली तमिल मानिला कांग्रेस (मूपनार) के साथ भी चर्चा चल रही है. वासन के सामने कुछ शर्तें रखी गयी हैं. अम्मा कम से कम 200 सीटों पर जोर आजमाना चाहती हैं और वासन चाहते हैं कि उनकी पार्टी को 20 सीटों पर जया का साथ मिले. जैसे ही इस पर आपसी रजामंदी बनेगी, वैसे ही यह गठबंधन पक्का समझें! और भी हैं दावेदार

द्रमुक और अन्नाद्रमुक की मुख्य दावेदारी से इतर राज्य में कुछ और दावेदार मौजूद हैं. इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री और पीएमके नेता अंबुमणि रामदास और डीएमडीके नेता कैप्टन विजयकांत मुख्य हैं. इनकी समस्या यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद पूरे राज्य में जड़ें फैलाने में ये सफल नहीं रहे.

वहीं, द्रमुक के खजांची एमके स्टालिन हैं, जिन्हें पिता से विरासत में राज्य की सत्ता मिलने की उम्मीद हमेशा लगी रहती है. इन सबके​ और पूरे राज्य के लिए यह चुनाव बहुत मानीखेज होनेवाला है. अन्नाद्रमुक या अम्मा की हार उनके राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लगा देगी. द्रमुक को लगातार दूसरे विधानसभा चुनाव में हार नसीब हुई तो स्टालिन की नेतृत्व क्षमता पर अमिट दाग लग जायेगा. वह पिछले चार वर्षों से राजनीतिक उनींदेपन के शिकार थे. वहीं, वीसीके, एमडीएमके, डीएमडीके, पीएमके जैसी पार्टियों की हार राज्य में द्रविड़ राजनीति की जड़ों में आ रही छीजत के रूप में देखी जायेगी.

तमिलनाडु

कुल सीटें- 234

वर्तमान विधानसभा

अन्ना द्रमुक गठबंधन- 203

द्रमुक गठबंधन- 31

कुल मतदाता- 5.80 करोड़ (2016)

चुनाव कब

16 मई- सभी सीटें

प्रभावी कारक

– शासन, भ्रष्टाचार, सामाजिक योजनाएं आदि प्रमुख मुद्दे होंगे.

– कमजोर विपक्ष, मुख्यमंत्री जयललिता की मजबूत छवि और लोकप्रियता तथा कल्याणकारी योजनाओं का लाभ अन्ना द्रमुक को मिल सकता है.

– द्रमुक कुछ छोटे दलों से गंठबंधन की कोशिश में है और ऐसा गठबंधन जयललिता के लिए चुनौती बन सकता है. राज्य का कमजोर विकास और एंटी-इन्कम्बेंसी फैक्टर विपक्ष के लिए मददगार हो सकते हैं.

– जयललिता की जीत संसद में उनकी ठोस हैसियत को बरकरार रख सकती है और आगामी लोकसभा चुनाव में वे बेहतर स्थिति में होंगी.

– द्रमुक और कांग्रेस की जीत उनके हौसले में बहुत अधिक इजाफा कर सकती है.

– भाजपा के लिए तमिलनाडु में खोने और पाने के लिए बहुत कुछ नहीं है और सिर्फ अपनी उपस्थिति को कुछ हद तक मजबूत करने पर ही ध्यान देगी.

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