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झेल गंगाजल

मयंक शेखर फ़िल्म समीक्षक फ़िल्म: जय गंगाजल निर्देशक: प्रकाश झा कलाकार: प्रियंका चोपड़ा, प्रकाश झा रेटिंग: * 1/2 इस फ़िल्म के बारे में आप जो भी राय बनाएं, आपको उसका श्रेय 64 साल के प्रकाश झा को ही देना होगा. एक फ़िल्म लेखक-निर्देशक-निर्माता जो पिछले 40 वर्ष से अपने फ़िल्मी करियर को लेकर बड़ा ही […]

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फ़िल्म: जय गंगाजल

निर्देशक: प्रकाश झा

कलाकार: प्रियंका चोपड़ा, प्रकाश झा

रेटिंग: * 1/2

इस फ़िल्म के बारे में आप जो भी राय बनाएं, आपको उसका श्रेय 64 साल के प्रकाश झा को ही देना होगा.

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एक फ़िल्म लेखक-निर्देशक-निर्माता जो पिछले 40 वर्ष से अपने फ़िल्मी करियर को लेकर बड़ा ही संजीदा है, अचानक अपने कुरते की बाहें चढ़ाकर, मन पक्का कर, एक तरह की दबी हुई अकड़ सीखकर रुपहले पर्दे पर अपनी फ़िल्म में बतौर हीरो नज़र आते हैं. पर्दे पर वे दमदार संवाद कहते हैं, कहीं-कहीं चुटकी भी लेते हैं.

प्रकाश झा ने अपने चरित्र को कुछ इस तरह उकेरा है कि उनकी ही फ़िल्म में काम करता हुआ कोई व्यक्ति उन्हें बिहारी अंदाज़ में टालेगा और कहेगा, "का सर! इस उमर में? बौरा गए हैं का!"

सही मायनों में वे अपने आपको फ़िल्म में पर्दे पर लंबे समय के लिए बनाए रखते हैं, लेकिन उतने बुरे भी नहीं लगते.

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फिल्म में दो अभिनेता उत्तर भारत के एक काल्पनिक शहर में पुलिस की भूमिका निभा रहे हैं. झा एक बुज़ुर्ग स्थानीय पुलिस अधिकारी हैं जो भ्रष्टाचार, अपराधी और क़ानून व्यवस्था में पूरी तरह डूबे हुए हैं. चोपड़ा एक युवा आईपीएस अधिकारी हैं जिनकी झा के ऊपर नियुक्त होती है. जिले के प्रभारी के रूप में ये उनकी पहली पोस्टिंग है. साफ़ है कि दोनों में आपसी मतभेद हैं.

लेकिन अगर आप फ़िल्म कोई मुद्दा खोज रहे हैं तो यह वह मुद्दा नहीं. यह फ़िल्म भी प्रकाश झा की किसी अन्य फ़िल्म की ही तरह है. इसीलिए बड़े पैमाने पर इसमें राजनीतिक पार्टियों, नौकरशाहों और कारोबारियों के बीच का टकराव है जो अपने आप और बढ़ने वाला रूप अख़्तियार करता है और उन्हें ताकतवर बनाता है जो पहले से ही ताकतवर हैं. फ़िल्म की जगहें देखी हुई नज़र आती हैं और मुद्दे भी सुने हुए लगते हैं.

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फ़िल्म जिस मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमती है वह शायद एक ज़मीन का टुकड़ा है जिसे स्थानीय अधिकारियों की मदद से मंज़ूरी दिलाई जानी है ताकि वह वेदांत जैसी लगने वाली एक कंपनी को हस्तांतरित की जा सके.

लेकिन फिर उसमें बॉलीवुड में राजनीति की पुरानी दलील ढ़केल दी जाती है- "चुनाव सर पर हैं." और इसलिए पुलिस चुनाव के मद्देनज़र लागू हुई आचार संहिता के दौरान राजनीतिक आकाओं से हर कदम पर मिलनेवाले आदेश से हटकर कुछ बदल सकते हैं.

भारत में दलगत राजनीति के लिए जुनून के बावजूद राजनीतिक फिल्मों में भारत का ट्रैक रिकॉर्ड कुछ बढ़िया नहीं रहा है.

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यह किसी लोकतंत्र में स्वाभाविक है जहां राष्ट्र को जनता के असंतोष और ख़ासकर इसलिए पॉपुलर संस्कृति से घबराहट है. वर्तमान की भाजपा सरकार इससे कुछ अलग नहीं है और कुछ हो न हो वह इस तरह के मामलों को लेकर और अधिक सतर्क है और कड़ा रुख़ रखती है.

झा इस समस्या को किस तरह हल करते हैं? ख़ैर, इस फ़िल्म में दिखने वाले हमलावर राजनेता, यानी मुख्यमंत्री और उनके विधायक, स्पष्ट रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े सदस्य जान पड़ते हैं.

लेकिन बड़े तौर पर जिस तरह के ‘मनोरंजन’ की अपेक्षा फ़िल्म देखने वाले लोग करते हैं, उसकी तुलना में यह फिर भी एक छोटी चिंता है. अगर आपको कोई संदेश देना हो तो, उसे व्हाट्सऐप पर डालना चाहिए, नहीं? क्या कहते हैं आप?

इस मामले में प्रकाश झा (और हाल के वर्षों में कुछ और फ़िल्म निर्देशक) अपनी फ़िल्मों यानी अपनी आवाज़ बुलंद करती संजीदा मुद्दों पर बनी "फ़िल्मों" को देखने के लिए थिएटर में भीड़ जुटाने में सक्षम रहे हैं.

साल 1980 में भागलपुर में अखफोड़वा कांड को आधार बनाकर बनी फ़िल्म गंगाजल (वर्ष2003) में वे भीड़ के हाथों न्याय को न्याय पाने की उम्मीद के रूप में देखने की कोशिश करते है, ख़ासकर तब जब न्याय की उम्मीद ख़त्म हो चुकी होती है.

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इसके बाद उन्होंने समाज के कई मुद्दों को लेकर फ़िल्में बनाईं. झा ने फ़िल्म ‘अपहरण’ बनाई जो बिहार के अपहरण और फ़िरौती के कारोबार पर आधारित थी, ‘राजनीति’ बनाई जो पार्टी व्यवस्था में राजनीति को देखने की कोशिश थी. फ़िल्म ‘आरक्षण’ में उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में आरक्षण के मुद्दे को उजागर करने की कोशिश की, फ़िल्म ‘चक्रव्यूह’ में उन्होंने माओवादी विद्रोह पर बात करने की कोशिश की और फ़िल्म ‘सत्याग्रह’ में उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को दिखाने की कोशिश की.

जैसे-जैसे आप इस सूची में नीचे की तरफ आते हैं आपको लगता है कि उनकी फ़िल्मों की क्वालिटी में गिरावट आती गई है. ख़ासकर इसलिए कि एक ज़ाहिर फार्मूला के तहत मनोरंजन पेश करने की कोशिश लगती है.

यह शायद एक कथा, नाटकीयता से भरे अख़बार पत्रकारिता के तरह दिखती है. यह भी कोई अपवाद नहीं.

जय गंगाजल, गंगाजल फ़िल्म की सीक्वेल होनी चाहिए थी. यह उसी जगह और उन्हीं मुद्दों पर शुरू होती है जिन से गंगाजल शुरू हुई थी.

यह फ़िल्म जिस बात को उठाने की कोशिश करती है, वो यह है कि राजनीतिक व्यवस्था हमेशा भ्रष्ट के साथ समझौता कर लेती है. लेकिन ऐसा कुछ हद तक ही होता है. या फिर तब तक, जब भ्रष्ट व्यक्ति बिना सोचे-समझे व्यवस्था का फायदा लेने लगता है.

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यह शायद ‘सहारा श्री’, मोहम्मद शाहबुद्दीन या इस फ़िल्म के विलेन मनीष कौल और उनके भाई के लिए सही साबित हुआ, जो इस फ़िल्म में काफ़ी निडर हो जाते हैं.

लेकिन यह फ़िल्म कथित तौर पर भीड़ के मनोभाव को शांत करती अतिश्योक्ति ही लगती है और इसलिए कभी-कभी इस फ़िल्म में कुछ बड़ा हो जाता है. आपका ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश करती है.

लेकिन क्या आप जानते हैं? आपको इसकी परवाह नहीं और जब इतना कुछ हो रहा है, तो आप इस बात की परवाह ही क्यों करें कि कुछ हो भी रहा है.

दुख की बात है कि फ़िल्म के रूप में यह पर्दे पर अपने ही चरित्रों की तरह समझौता करती दिखती है. कुछ समय के बाद इसे झेलना मुश्किल हो जाता है.

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