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बीच बहस में निजी क्षेत्र में आरक्षण
निजी क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सरकार को निजी क्षेत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया है. इसी बीच आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा के कई जिलों में जाट समुदाय के लोग आंदोलनरत […]
निजी क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सरकार को निजी क्षेत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया है. इसी बीच आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा के कई जिलों में जाट समुदाय के लोग आंदोलनरत हैं.
इस मुद्दे के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिये जाते रहे हैं तथा सड़क, संसद और न्यायालयों तक में बहसें होती रही हैं. संवैधानिक प्रावधानों के तहत मौजूदा समय में आरक्षण का दायरा सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र तक ही सीमित है. पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश के बाद स्वाभाविक रूप से इसके समर्थन और विरोध में बयान दिये जा रहे हैं. इस पृष्ठभूमि में निजी क्षेत्र में आरक्षण के विभिन्न पहलुओं की प्रस्तुति आज के समय में…
भुलावे की राजनीति है निजी क्षेत्र में आरक्षण
आनंद तेलतुंबड़े
जनवादी अधिकार कार्यकर्ता और चिंतक
निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की बात करना लोगों को भूलभुलैया में ले जाने जैसा है. निजी क्षेत्र में आनेवाली कंपनियां और कॉरपोरेट घराने इस आरक्षण को इतनी जल्दी स्वीकार नहीं करेंगे. मैं खुद एक कंपनी का सीइओ रहा हूं, औद्योगिक इकाइयों की समितियों में रहा हूं,
इसलिए मैं इसमंे आनेवाली मुश्किलों को जानता हूं. दरअसल, सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर या गवर्नमेंट सेक्टर) की तरह निजी क्षेत्र (प्राइवेट सेक्टर) बहुत संरचित नहीं होता है. हमारे देश में संगठित (ऑर्गेनाइज्ड) और असंगठित (अनऑर्गेनाइज्ड) दोनों क्षेत्रों में श्रमबल का प्रतिशत बहुत ही असंतुलित है. भारत में 94 प्रतिशत श्रमबल असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जबकि महज 6 प्रतिशत श्रमबल ही संगठित क्षेत्र में कार्यरत है. इस 6 प्रतिशत संगठित क्षेत्र में भी सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 68 प्रतिशत है, जबकि निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत है. यानी श्रमबल में संगठित निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बहुत कम है, जिसमें आरक्षण की बात की जा रही है.
बहुत ईमानदारी से कहें, तो निजी क्षेत्र में आरक्षण की कोई जरूरत ही नहीं है. ये सब लोगों को भुलावे में रखने के लिए किया जा रहा है. सरकार की मौजूदा नीतियां जनता को बेवकूफ बनानेवाली हैं, लेकिन विडंबना यह है कि जनता बेवकूफ बनने की इच्छा भी रखती है, क्योंकि उसे बहुत कुछ पता ही नहीं होता है. इससे कुछ होना-जाना नहीं है, सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण का झुनझुना बजाया जा रहा है.
जहां तक सरकार के इस कथन की बात है कि वह निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का कानून लेकर आयेगी, तो हो सकता है कि कानून की प्रतिबद्धता के चलते कॉरपोरेट सेक्टर इस बात को अनमने ढंग से मान ले. लेकिन, मैं समझता हूं कि यह इतना आसान नहीं होगा. देश में आरक्षण के कानून की हकीकत देखें, तो सवाल उठता है कि एससी-एसटी के लिए जो आरक्षण की व्यवस्था है, उसका क्या हुआ? यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि ब्रिटिश इंडिया में एससी-एसटी के लिए जो आरक्षण की व्यवस्था थी, वह आज की व्यवस्था से कहीं ज्यादा अच्छी थी.
आजादी के बाद हमारी सरकारों ने एससी-एसटी के आरक्षण को लेकर इतना गोल-माल किया, कि किसी को समझ में ही नहीं आता है कि आखिर आरक्षण का मतलब है क्या? आजादी के सातवें दशक के दौर में भी जब एससी-एसटी आरक्षण का कुछ नहीं हुआ, तो निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का भी कुछ नहीं होनेवाला है. दरअसल, सिर्फ जाति को जिंदा रखने के लिए हमारी सरकारों ने यह सब गोल-माल किया है कि निचला तबका आरक्षण का जयजयकार करता रहे और वोट बैंक की राजनीति चलती रहे.
मैं हमेशा से ऐसी व्यवस्था के खिलाफ लिखता रहा हूं. आरक्षण के बजाय हरेक आम आदमी की सभी मूलभूल जरूरतें पूरी हों और जो लोग समाज में पिछड़े हैं, उन्हें थोड़ी ज्यादा सहूलियतें देकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाया जाये, तो मैं समझता हूं कि यह बहुत बेहतर होगा.
लेकिन, हमारी सरकारें ऐसा नहीं करती हैं, बल्कि जाति आधारित आरक्षण का झुनझुना बजाती रहती हैं, जिससे कि सभी जातियाें को लगने लगता है कि उन्हें आरक्षण मिलना चाहिए. राजस्थान और हरियाणा में आरक्षण की मांग को लेकर होनेवाले आंदोलन इसके उदाहरण हैं. कल को ऐसा भी होगा कि निजी क्षेत्रों में नौकरियों के लिए जातिगत आंदोलन शुरू हो जाये, इसकी संभावना से तो इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारी राजनीति की खुराक ही यही है.
जाति के आधार पर निजी क्षेत्र में इस तरह आरक्षण देने की बातें करना सिर्फ और सिर्फ लोगों को गुमराह करना है. इस व्यवस्था का मकसद कुछ और ही होता है. दरअसल, किसी भी जाति को दिया जानेवाला आरक्षण एक प्रकार का मध्यम वर्ग तैयार करता है, और वह मध्यम वर्ग सरकार के साथ रहने लगता है. अरसा हो गया आजादी मिले हुए और बराकरी के संविधान को अपनाए हुए, लेकिन देश में दलितों और वंचितों की स्थिति आज भी कुछ खास नहीं बदली है. हां, उसमें से सिर्फ मुट्ठी भर लोग ऊपर आये हैं, जो सरकार समर्थित हो चुके हैं. सरकार उन्हीं के नाम पर भुलावे की राजनीति करती है कि उसने दलितों और वंचितों का उद्धार कर दिया है.
यही प्रक्रिया पिछड़े वर्गों पर लागू होती है और इसी नजरिये से निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को भी देखा जा सकता है.
जाति आधारित आरक्षण की यह विडंबना ही है कि देश में आज कोई ऐसी जाति नहीं है, जिसे आरक्षण नहीं चाहिए. यहां तक कि ब्राह्मण को भी आरक्षण चाहिए. जाितयों को जिंदा रखने की नीति वाली भारतीय राजनीति के लिए यह अच्छा है कि उसका मकसद कामयाब हो रहा है. जाति की मांग बढ़ेगी, तो वोट बैंक की राजनीति मजबूत होगी. देश से जाति अगर चली गयी, तो हमारे नेताओं के पास कुछ बचेगा ही नहीं. एक आम आदमी के लिए जो नीतियां होनी चाहिए, जो शिक्षा होनी चाहिए, जो सुविधाएं होनी चाहिए, जो लोकतांत्रिक माहौल होना चाहिए, अगर इस ऐतबार पर देखते हैं, तो भारत को दुनिया के सबसे निचले पायदान पर पाते हैं.
इसकी बात कोई नहीं करता है, क्योंकि इससे उनकी राजनीति नहीं हो पायेगी. हर जाति में गरीब और निहायत जरूरतमंद हैं, क्योंकि जातियां देख कर गरीबी नहीं आती है. इसलिए आम आदमी की समृद्धि के पैमाने में उसकी गरीबी दूर करना होना चाहिए, न कि जाति आधारित आरक्षण देने की बात होनी चाहिए. इसके बाद भी अगर सचमुच कोई जाति इस पहचान में आती है कि वह पूरी की पूरी वंचित है, तो उसको समाज की मुख्यधारा में लाने की बात की जाये.
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशें और संबंधित तथ्य
– इस महीने की नौ तारीख को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सामाजिक न्याय मंत्रालय को लिखा था कि निजी क्षेत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने के लिए संसद में विधेयक लाया जाये. यह सिफारिश कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को भी भेजी गयी है.
– आयोग का कहना है कि यह मांग काफी समय से लंबित है. सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की कमी होती जा रही है और समाज के हाशिये पर के लोगों को आरक्षण देना निजी क्षेत्र का कर्तव्य है.
– आयोग का यह भी कहना है कि निजी क्षेत्र समुचित रूप से सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों का अनुपालन नहीं करता है जिनका आह्वान पूर्ववर्ती सरकारें करती रही हैं.
– आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा है कि निजी क्षेत्र में न सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण की आवश्यकता है.
– कुछ वर्षों से सरकारी और सरकारी स्वामित्व के संस्थानों की नौकरियों की तुलना में निजी क्षेत्र में रोजगार के अधिक अवसर सृजित हुए हैं.
– आधिकारिक आकलन के अनुसार, सरकारी क्षेत्र में 2006 में 18.2 मिलियन नौकरियां थीं, जो 2012 में घटकर 17.6 मिलियन हो गयीं यानी इनमें 3.3 फीसदी की कमी आयी.
– वर्ष 2006 से 2012 के बीच निजी क्षेत्र ने 3.13 मिलियन नौकरियां जोड़ी थी. वर्ष 2006 में इस क्षेत्र में 8.77 मिलियन नौकरियां थीं, जो 2012 में बढ़ कर 11.9 मिलियन हो गयीं. यह बढ़त 35.7 फीसदी रही थी.
– आयोग का तर्क है कि निजी कंपनियां सरकार से अनेक प्रकार के लाभ लेती हैं, परंतु अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग समुचित संख्या में इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं.
– शीर्षस्थ कॉरपोरेट घरानों और उनके संगठनों ने 18 नवंबर, 2004 को तत्कालीन प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि वे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों के सशक्तीकरण के लिए सकारात्मक कार्रवाई करेंगे.
निजी क्षेत्र में आरक्षण से हो सकता है फायदा
बद्री नारायण
राजनीतिक विश्लेषक
देश के सार्वजनिक क्षेत्र में जिस तरह से नौकरियों की कमी आती जा रही है, उस हिसाब से यही लगता है कि निजी क्षेत्र में अगर पिछड़े वर्गों को आरक्षण मिले, तो उनके लिए बहुत फायदेमंद साबित होगा. अभी भी सरकारी नौकरियों के मुकाबले प्राइवेट नौकरियों को उतना अच्छा नहीं माना जाता, जब तक कि वह कोई हाइप्रोफाइल वाला जॉब न हो. और जो अनिश्चितता बनी रहती है, वह भी एक सरदर्द की तरह होता है. ऐसे में इसका अहम पहलू यह है कि अगर निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत का आरक्षण मिलता है, तो इन वर्गों के पक्ष में नौकरियों की संख्या ज्यादा जायेगी. सरकारें जब कोई नीति या योजना लेकर आती हैं, तो जाहिर है कि उसमें उनकी अपनी राजनीति भी शामिल होती है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी योजना से बेहतरी की कुछ संभावनाएं जरूर बलवती होती हैं. यह संभावना ही वंचित स्थिति से समृद्धि की ओर ले जाने की नींव बनती है.
मसलन, अगर इस आरक्षण की व्यवस्था हो जाती है, तो जाहिर है कि पिछड़े तबकों को एक स्थायी जगह तो जरूर दिखने लगेगी, जहां पहुंचने के लिए इससे पहले उनके जेहन में सोच भी नहीं आती थी. एक संभावना पूरी होती है, तो वह कई और संभावनाओं को जन्म भी देती है. हालांकि, यहां यह सवाल उठ सकता है कि निजी क्षेत्र में गुणवत्ता पर ज्यादा जोर होता है, तो क्या आरक्षण के लिए कंपनियाें को गुणवत्ता से समझौता तो नहीं करना पड़ेगा? ऐसेमें देखना होगा कि आरक्षण के तहत जो लोग नौकरियां पाने के काबिल हैं, वे अपनी गुणवत्ता पर ध्यान देते हैं या नहीं.
निजी क्षेत्र में आरक्षण से हो सकता है कि फिलहाल कोई बड़ा फायदा न दिखता हो, लेकिन आगे चल कर धीरे-धीरे कुछ फायदा जरूर हो सकता है. यह भी कि इससे कुछ पिछड़े वर्ग के लोग अपनी अच्छी गुणवत्ता के साथ बड़ी कंपनियों में प्रतिनिधित्व करने लगेंगे, जो पिछड़े वर्गों के लिए प्रेरणादायी होगा.
मसलन, अब यह दिखने लगा है कि देश के विश्वविद्यालयों या उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़े तबकों के छात्रों की संख्या सबसे ज्यादा दिखने लगी है. यह भी दिखने लगा है कि नौकरियों में दलितों और पिछड़े तबके के लोग काफी संख्या में आने लगे हैं. यह अचानक तो नहीं हुआ, बल्कि पिछले 25-30 सालों में ऐसा हुआ है. इसी तरह अगर आज निजी क्षेत्र में आरक्षण मिलता है, तो आगे आनेवाले दिनों में धीरे-धीरे इसका फायदा भी नजर आने लगेेगा.
कुछ लाेगों का ऐसा मानना है कि इससे सामाजिक समानता और बढ़ेगी, क्योंकि पिछड़े वर्गों के लोग मुख्यधारा में शामिल होंगे, तो समाज समृद्ध होगा. लेकिन, मेरे ख्याल में ऐसी बात नहीं है. सामाजिक समानता से ज्यादा उनके लिए नौकरियों की संख्या का बढ़ना ही ज्यादा उचित जान पड़ता है. हालांकि, बीते कुछ वर्षों में जिस तरह से आरक्षण की मांग बढ़ी है, उसके ऐतबार से इस बात की संभावना ताे है ही कि निजी क्षेत्र में ओबीसी को आरक्षण मिलने से कुछ दूसरी जातियों के लोग भी ओबीसी में आने की बात करने लगेंगे. लेकिन अभी यह एक दूसरी बहस का विषय है. स्टेट (राज्य) एक तरह से पहचान की रचना-संरचना तैयार करता है.
इसलिए अगर स्टेट आरक्षण दे रहा है, तो जाहिर है कि कुछ लोग इस आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुद को उसके माकूल माने जाने की मांग रखें. समस्या यह नहीं है. समस्या यह है कि क्या इस आरक्षण की नीति को या अगर कानून बन जाता है, तो उस कानून को कंपनियां और कॉरपोरेट घराने मानेंगे? यह भी हो सकता है कि अगर मानेंगे, तो कुछ और भी गोल-माल जैसी स्थिति हो जाये. हां, अगर कानून बन जाता है, तो यह कंपनियों के लिए भी एक प्रतिबद्धता हो जायेगी.
निजी क्षेत्र में आरक्षण तो अपनी जगह है, यह अच्छी बात है, लेकिन इस देश को फिलहाल बहुत सी नौकरियों की जरूरत है.
सरकार को अपनी तमाम सामाजिक योजनाओं के साथ इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि ज्यादा से ज्यादा नौकरियों का सृजन हो सके. अगर हर क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां होतीं, तो आज आरक्षण के जरिये नौकरियां पाने की होड़ के तहत कई जातियां अपनी जाति छोड़ कर दूसरी जाति में जाने के लिए आंदोलन ही नहीं करते. अगर किसी को अपनी जाति में ही नौकरी मिल जाये और बाकी सारी सुविधाएं मिल जायें, तो जाहिर है कि वह दूसरी जाति में जाने की सोचेगा ही नहीं.
(बद्री नारायण और आनंद तेलतुंबड़े के िवचार
वसीम अकरम से बातचीत पर आधािरत़)
सकारात्मक कार्रवाई पर भारतीय उद्योग परिसंघ
पृष्ठभूमि
– वर्ष 2007 से पहले निजी क्षेत्र में कार्यरत अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों का कोई आंकड़ा नहीं था, हालांकि अनेक कंपनियों में इन समुदायों के लोग कार्यरत थे.
– वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने निजी क्षेत्र का आह्वान किया था कि किसी कानूनी प्रावधान की जरूरत समाप्त करने के लिए उद्योग परिसंघ सकारात्मक कार्यवाही के लिए तत्परता दिखाये. इसके बाद एक टास्क फोर्स बना और जनवरी, 2007 से कंपनियों ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया.
– उद्योग परिसंघ से जुड़ी लगभग 100 कंपनियों ने अनुसूचित जाति और जनजाति के युवकों के लिए चार श्रेणियों- रोजगार योग्यता, उद्यमशीलता, शिक्षा और रोजगार- में काम करना शुरू कर दिया.
परिसंघ का बयान
भारतीय उद्योग ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सकारात्मक कार्यवाही के लिए ठोस प्रयास करने का भरोसा दिलाया था तथा यह भारतीय औद्योगिक क्षेत्र का संकल्प है कि इस क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण चुनौती की दिशा में काम प्रारंभ कर दिया गया, जो भारतीय समाज पर सदियों से लगे धब्बे को हटाने का प्रयास है. इस संदर्भ में निजी क्षेत्र में आरक्षण की राजनीतिक मांग नकारात्मक हो सकती है. ऐसे उपायों से बहुत रोजगार
नहीं मिल सकेगी. जब उद्योग जगत अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिक युवाओं को नौकरी देने के लिए संकल्पबद्ध है, ऐसे में तात्कालिक जरूरत है कि रोजगार के लायक युवाओं की संख्या लगातार बढ़ती रहे.
उद्योग जगत का स्पष्ट मानना है कि प्रतिभा के साथ कोई भी समझौता निरंतर वैश्विक होते माहौल में उसकी स्पर्द्धात्मक क्षमता को सीमित करेगा तथा प्रतिभाओं को रोजगार देने के उसके अधिकार को कम करने के हर प्रयास का पुरजोर विरोध किया जायेगा. भारतीय उद्योग अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों की वंचना को समाप्त करने के राष्ट्रीय संकल्प के साथ है तथा वह सकारात्मक कार्यवाही के एजेंडे को लगातार बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है ताकि भारत समान अवसरों का देश बन सके.
हरियाणा में जाटों के लिए आरक्षण की मांग
हरियाणा में जाट समुदाय द्वारा नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर चल रहा आंदोलन हिंसक हो चला है. राज्य के कई जिलों में सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों की टुकड़ियां तैनात है तथा कई क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा दिया गया है. इस संदर्भ में जाट समुदाय और आरक्षण से संबंधित कुछ तथ्यः
– हरियाणा में 27 फीसदी मतदाता जाट समुदाय से हैं.
-राज्य की 90 में से करीब 30 विधानसभा सीटों में जाट मतदाताओं की भारी संख्या है.
-आंदोलनकारियों ने राज्य सरकार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है जिसमें कहा गया गया था कि जाट समुदाय के अलावा चार अन्य जातियों- जाट सिख, रोर, त्यागी और बिश्नोई- को आर्थिक पिछड़ा व्यक्ति श्रेणी में शामिल कर लिया जाये तथा इस श्रेणी के कोटे को 10 से बढ़ा कर 20 फीसदी कर दिया जाये. आंदोलनकारियों का कहना है कि वे अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में जातिगत आधार पर आरक्षण चाहते हैं, न कि अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार.
-मार्च, 2014 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग की केंद्रीय सूची में बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान के दो जिलों- भरतपुर एवं धौलपुर, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में डाल दिया था.
-यूपीए ने यह कदम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के इस रिपोर्ट के बावजूद उठाया था जिसमें कहा गया था कि जाट समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग की केंद्रीय सूची में शामिल होने की पात्रता नहीं रखता. आयोग के अनुसार यह समुदाय सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा नहीं है तथा सेना, सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में इसका समुचित प्रतिनिधित्व है.
– आयोग के रिपोर्ट के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने 18 मार्च, 2015 को सरकार के निर्णय को निरस्त कर दिया.
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