लीबिया में बेनगाज़ी के गरीब इलाक़ों में एक ज़िला है अल सुलेमानी. ये इलाका इन दिनों लीबियाई सशस्त्र सेना और इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों के बीच लड़ाई का ठिकाना बना हुआ है.
लेकिन उम्मीद की रोशनी यहां भी क़ायम है. एक बहादुर शिक्षिका ने अपने स्कूल को इन हालातों में भी खुला रखा है. वे इस बात का भी ख़्याल रख रही हैं कि स्कूली बच्चों को गोलाबारी और बमबारी से नुकसान नहीं हो.
दरअसल ये स्कूल जहां स्थित है, वहां बीते दो सालों से संघर्ष चल रहा है. स्कूल के एक किलोमीटर के दायरे में गोलियों और बमबारियों के निशान वाले कई अपार्टमेंट्स नज़र आते हैं, जिसपर इस्लामिक स्टेट और अन्य मुस्लिम चरमपंथियों का कब्ज़ा है.
यही वजह है कि फौज़िया को स्कूली बच्चों की जान का डर भी सताता है.
वे कहती हैं, “मैं डरी हुई हूं, डरी हुई. डर भी है, पर मुझे उम्मीद है कि ऐसा दोबारा नहीं होगा. बहुत दिन नहीं हुए जब स्कूल से सटे मस्जिद पर हमला हुआ. कुछ बच्चे कुरान पढ़ने के लिए जा रहे थे. एक लड़के को गोली लगी, दूसरा लड़का उसको बचाने के लिए गया, दूसरा बच्चे भी निशाने पर आ गया और उसका पैर उड़ गया. पहले बच्चे को भी एक पैर गंवाना पड़ा. यह दिल दहलाने वाला था.”
फौज़िया मुख़्तार आबिद के पास डरने की वजहें भी हैं. बावजूद इसके वे मानती हैं कि उनका दायित्व बच्चों को पढ़ाना भी है और वे इसे जारी रखना चाहती हैं.
वैसे यह स्कूल मई, 2014 में बंद हो गया था, जब अल सुलेमानी का पूरा इलाका सशस्त्र संघर्ष के मैदान में तब्दील हो गया था. उस वक्त इलाके में ऑपरेशन डिग्निटी शुरू किया गया था जिसका मकसद बेनगाज़ी को हर हाल में इस्लामी चरमपंथियों से खाली कराना था.
इस इलाके के अमीर परिवार के लोग या तो इलाके से दूर जाकर बस गए या फिर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए दूर के प्राइवेट स्कूलों में भेज दिया, बम और गोलियों की पहुंच से दूर. लेकिन गरीब परिवार के बच्चों के पास ये विकल्प नहीं था.
देखते देखते एक साल बीत गया. अपने बच्चों की पढ़ाई को दांव पर लगा देखकर कुछ बच्चों के माता पिता ने फौज़िया से अनुरोध किया कि क्या वे अपना स्कूल खोल सकती हैं.
तब स्कूल की इमारत पर गोलीबारी के निशाने थे, उसे लूट लिया गया था लेकिन गरीब परिवार के लोगों ने पैसे जुटाकर इमारत की मरम्मत कराई.
स्थानीय काउंसिल के सदस्य हसन उमर बताते हैं, “कुछ परिवार वालों ने 50 दीनार दिए, कुछ ने 20 तो कुछ ने पांच दीनार दिए. आख़िर में हम लोगों ने एक हज़ार दीनार जमा कर लिए. जबकि तीन हज़ार दीनार हमें सरकार की क्राइसिस कमेटी से मिल गए.”
उमर बताते हैं कि इन पैसों से इमरात के टूटे हुए शीशों को बदला गया. स्कूल के पीछे दीवार में एक दरवाजा भी बनाया गया है ताकि मुश्किल स्थिति में बच्चे वहां से निकल कर अपने अपने घर पहुंच सके.
इतना ही नहीं उमर बताते हैं, “स्कूल से 3 किलोमीटर के दायरे पर निशानेबाज़ों को तैनात किया गया है, उनसे किसी मुश्किल की भनक लगते ही पिछले दरवाजे से बच्चों को बाहर निकाल दिया जाएगा.”
नई व्यवस्थाओं के साथ स्कूल दिसंबर, 2015 में शुरू हो गया. हालांकि थोड़ी बहुत मुश्किलें अब भी बाकी हैं, क्योंकि बिजली लगातार नहीं आती, दरवाजे पर कूड़ों का अंबार लगता जा रहा है और कुछ शिक्षकों ने स्कूल लौटने से इनकार कर दिया.
लेकिन यहां पढ़ने वाले बच्चों के हौसले में कोई कमी नहीं आई. 15 साल की लड़की अंग्रेजी में बताती हैं, “नहीं, नहीं. हमें कोई डर नहीं है. हम सीखना चाहते हैं.”
वालिद अल फुरजानी इस स्कूल में अपनी तीन बच्चों को पढ़ने भेजती हैं. उन्होंने बताया, “मेरे बच्चे घर पर दो साल से बैठे हुए थे. कुछ नहीं कर रहे थे. हां, मैं उनको लेकर चिंतित जरूर हूं लेकिन उनकी पढ़ाई भी महत्वपूर्ण है.”
कई लीबियाईयों को ये लगता था कि कर्नल गद्दाफी को सत्ता से हटाने के बाद देश में राजनीतिक स्वतंत्रता बढ़ जाएगी और बच्चों का भविष्य बेहतर हो जाएगा, लेकिन इसके उलट उनकी चिंताएं बढ़ गई हैं.
बीबीसी अरबी सेवा की फेरास किलानी के मुताबिक शहर में सशस्त्र सेना का कब्जा है लेकिन उसकी पकड़ कमजोर हो रही है.
लीबिया बॉडी काउंट वेबसाइट के मुताबिक, बीते दो साल में देश भर में सशस्त्र संघर्ष के चलते करीब चार हज़ार लोगों की मौत हुई है. मोटे तौर पर लगाए जा रहे अनुमान के मुताबिक लीबिया में इस समय 2000 अलगाववादी चरमपंथी सक्रिय हैं.
हथियार बेचने वाले, चरमपंथी, जनजातीय सरदारों और इंसानों की तस्करी करने वाले मिलकर इस अराजकता को और बढ़ावा दे रहे हैं. गद्दाफी के शस्त्र भंडार से लूटे गए शस्त्रों की बदौलत इस्लामी चरमपंथ भी बढ़ा है. एक ओर यूरोप जाने वाली शरणार्थियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी तरफ़ अफ्रीकी चरमपंथी इस्लामिक स्टेट से जुड़ रहे हैं.
इस्लामिक स्टेट ने लीबिया में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक लीबिया में इस्लामिक स्टेट के तीन हज़ार लड़ाके सक्रिय हैं. बेनगाज़ी के जिन जिलों में उनका दबदबा है, उनमें एक अल साबरी फौज़िया के स्कूल के रास्ते पर पड़ता है.
फौज़िया के अपने बच्चे बड़े हो रहे हैं और उनकी रिटायरमेंट भी बहुत दूर नहीं है. फौज़िया काम पर लौटना नहीं चाहती थी, लेकिन उनके पड़ोसियों ने उन्हें जब काम पर लौटने को कहा तो वे मना नहीं कर पाईं.
उन्होंने बताया, “मैं उन्हें और उनके बच्चों को मना नहीं कर सकती. मुझे महसूस हुआ कि इन बच्चों को पढ़ाना राष्ट्र के प्रति मेरा दायित्व है. मेरी अवचेतना ने मुझे इसके लिए प्रेरित किया.”
फौज़िया को उम्मीद है कि उनका देश इस मुश्किल हालात से आगे निकलेगा. वह कहती हैं, “मेरा देश आगे बढ़ेगा, इसकी मुझे उम्मीद है. स्कूल खोल कर हम स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. युद्ध, तबाही के बावजूद हम कोशिश कर रहे हैं. हमें जीवित रहने की जरूरत है. हमें देश के भविष्य की जरूरत है. हमें शांति और सुरक्षा की भी जरूरत है. युद्ध बहुत हो चुका. बहुत. हमारे बच्चों के भविष्य के लिए इसे बंद होना चाहिए.”
(साथ में मामदूह एकबेक और बेन एलन की रिपोर्टिंग)
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