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‘केजरीवाल मंझे हुए नेता की तरह हो गए हैं’

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का एक साल पूरा हो गया. इस साल भर में ‘आप’ और इसकी सरकार की क्या कामयाबियां रहीं हैं और किन मामलों में यह नाकाम साबित हुईं, यह जानना दिलचस्प है. बीबीसी संवाददाता प्रदीप कुमार ने हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक ओम थानवी से इस मुद्दे पर […]

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का एक साल पूरा हो गया. इस साल भर में ‘आप’ और इसकी सरकार की क्या कामयाबियां रहीं हैं और किन मामलों में यह नाकाम साबित हुईं, यह जानना दिलचस्प है.

बीबीसी संवाददाता प्रदीप कुमार ने हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक ओम थानवी से इस मुद्दे पर बात की और उनकी राय जाननी चाही.

आप भी जानिए थानवी का क्या मानना है.

मेरा मानना है अरविंद केजरीवाल राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी बन चुके हैं. वे इस मामले में कई सीखे लोगों को सबक़ सिखा रहे हैं. इस मामले में अब उन्हें आप सीखने वाला नहीं कह सकते.

हां, ये ज़रूर है कि उन्होंने केंद्र के साथ तकरार की.

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मैं मानता हूं कि तमाम पार्टियां सालों कहती आई थीं कि दिल्ली को, दिल्ली की सरकार को स्वायत्तता होनी चाहिए.

पर, सत्ता में रहते हुए न कांग्रेस ने इस बारे में कोई बात की और न ही वादा करके केंद्र की सत्ता में आई भाजपा इस मामले में कोई पहल करती दिखती है. यह निहायत ही हास्यास्पद है.

केंद्र सरकार से टकराव की वजह से दिल्ली सरकार का ध्यान बंट गया और वे काफ़ी कुछ नहीं कर सके. मेरा मानना है कि एक ऐसी पार्टी जिसका पहले वजूद नहीं था, उन पार्टियों के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ी जो कई साल से यहां जमी हुई थीं. आम आदमी पार्टी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आई और उन्होंने काम किया.

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यह एक नई पार्टी थी, जिसके पास प्रशासन के तजुर्बे नहीं था, उसने एक साल में कई काम करके दिखाया.

मेरा मानना हैं कि इस पर आम आदमी पार्टी की तारीफ़ की जानी चाहिए. उन्होंने अपने मतदाताओं से कम से कम दग़ा तो नहीं किया.

कई मामलों में कमियां रहीं. कई चीज़ें ऐंसी हैं जो अभी तक वे नहीं कर सके हैं. लेकिन कुल मिला कर यह संदेश जाता है कि यह सरकार कुछ करना चाहती है, कुछ कर रही है और कुछ करके दिखा सकती है.

एक साल के दौरान ही कम से कम दो ऐसे विवाद रहे. जिनसे इस पार्टी की छवि को नुक़सान पहुंचा है.

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दिल्ली सरकार के दो मंत्रियों पर कार्रवाई की गई, मैं मानता हूं कि वह एक अच्छी बात थी. लेकिन पार्टी को शुरू में ही सोचना चाहिए था कि अगर मंत्री पर कोई लांछन लगा है तो यह गंभीर बात है.

उसे शुरू में ही सोचना चाहिए था कि इस मामले में कोई जांच हो रही है तो उसमें सहयोग करें.

केजरीवाल उस वक़्त एक तरह से बचाव की मुद्रा में थे. वहां तक तो इनकी भूल थी. उसके बाद मेरे ख़्याल में इन्होंने बचाव नहीं किया. दूसरे मंत्री के मामले में तो इन्होंने ख़ुद ही कार्रवाई की. उस मंत्री को निकाल दिया.

इससे संदेश गया कि यह सरकार भ्रष्ट नहीं है. लोगों में संकेत गया है कि पैसे दिए बग़ैर भी उनका काम हो सकता है.

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आम लोगों का सर्वेक्षण कराएं तो आप पाएंगे कि लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार पहले से कम हुआ है.

जहां तक पानी बिजली का मामला है, मेरा मानना है कि इसमें काफ़ी कुछ सुधार हुआ है.

पर्यावरण को लेकर जो सरोकार इन्होंने जताया है, उस पर पूरी दुनिया जागरूक है.

इन्होंने यातायात को लेकर जो प्रयोग किए हैं, वे अच्छे हैं या बुरे, सफल हैं या नाकाम, वह अलग बात है. पर उसे लेकर एक जागरूकता नज़र आती है.

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प्रशासन की चुस्ती और सादगी भी एक बड़ी बात है. यह महत्वपूर्ण है कि प्रशासन हमेशा दूर की कौड़ी न रहे.

मंत्री और अफ़सर लोगों से दूर न रहें. इन्होंने लाल बत्ती की संस्कृति को भी ठीक किया है.

लेकिन आम आदमी पार्टी की कमियां भी हैं.

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इनकी सबसे बड़ी नाकामी तो यह है कि लोग पूछ रहे हैं कि जनलोकपाल बिल कहां गया?

योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की बात इस पार्टी की सबसे पड़ी पूंजी हुआ करती थी. वे लोग अब इस पार्टी में नहीं हैं. उन्हें हटा कर पार्टी में तानाशाही क़ायम कर दी गई.

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केजरीवाल के स्वभाव में तानाशाही शुरू से ही रही है. पर बाद में इस तानाशाही प्रवृत्ति में बढ़ोतरी ही हुई है.

अब तो कोई टीम ही नज़र नहीं आती. आम आदमी पार्टी में मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल के अलाबा कोई नेता ही नज़र नहीं आता.

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