
भारतीय टीवी पर इस समय साज़िश रचती सास, आंसू बहाती बहुएं, द्विअर्थी संवाद बोलते कॉमेडियन, रिएलिटी शो में हुनर को कसौटी पर कसता निर्णायक दल, इतिहास के झरोखों से झांकता कल, पौराणिक गाथाएं और भूत-चुड़ैल के साथ नागिनों का बोलबाला है.
लेकिन क्या यही दर्शकों को दिखाया जा सकने वाला सर्वश्रेष्ठ ‘कंटेंट’ है.
बीता साल भारतीय दर्शकों के लिए काफ़ी कुछ नया लेकर आया. कुछ टेलीविज़न प्रोड्यूसर और टीवी विश्लेषक बीते साल को छोटे पर्दे के लिए ‘कन्फ़्यूज़न’ का दौर कहते हैं, तो कुछ इसे ‘बदलाव’ का नाम देते हैं.

‘गुलमोहर ग्रैंड’ और ‘न बोले तुम, न मैंने कुछ कहा’ सरीखे सीरियल बनाने वाले निर्माता सुधीर शर्मा मानते हैं कि साल 2015 ‘मंथन’ और ‘कन्फ़्यूज़न’ का दौर रहा.
"लोग इस उहापोह में रहे कि प्रोग्रेसिव कंटेंट बनाएं या फिर जो चल रहा है, उसे चलने दें." वह इसे डिजिटलाइज़ेशन का प्रभाव मानते हैं.
बकौल सुधीर दुनिया डिजिटल की तरफ़ आकर्षित हो रही है, तभी तो इन दिनों लिमिटेड एपिसोड की सिरीज़ बनाई जा रही है.
इसका एक ख़ास उदाहरण रहा ‘ज़िंदगी’ चैनल. दो साल से चल रहे इस चैनल पर जिन पाकिस्तानी धारावाहिकों को दिखाया गया, उन्हें 15-20 एपिसोड में समेटा गया.
वहीं इस चैनल पर भारतीय धारावाहिक ‘आधे अधूरे’ और ‘भागे रे मन’ की शुरुआत कुछ महीनों में ख़त्म हो जाने के वादे के साथ हुई है.

जहां एक तरफ़ एपिक जैसे चैनलों ने ‘डिस्कवरी’ और ‘नेशनल ज्योग्राफ़िक’ जैसे चैनलों को टक्कर देने की कोशिश की, वहीं कॉमेडी नाइट्स जैसे कार्यक्रमों ने कॉमेडी को नया रंग दिया.
लेकिन इन अपवादों को छोड़ दें तो इन सबके बीच दर्शक ‘ससुराल सिमर का’ और ‘नागिन’ की तरह का ‘कंटेंट’ भी देखना पसंद कर रहे हैं.
टीवी कलाकार प्रदीप शर्मा कहते हैं, "नीली छतरी वाले एक अच्छा उदाहरण है कंफ़्यूज़न का. यह धारावाहिक शुरुआत में ईश्वर भक्ति और लॉजिक पर बहस करता दिखता था लेकिन यह भी डायन और चुड़ैलों के चक्कर में पड़ गया."

वहीं वे ‘एपिक’ जैसे चैनल की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि अच्छे ‘कंटेंट’ वाले चैनल भी हैं. यह टीआरपी और विज्ञापन की रेस में नहीं रहना चाहते और उनका काम करने का तरीक़ा ही अलग है.
वह बताते हैं, "सभी को धीरे-धीरे इसकी आदत डालनी होगी, लेकिन अभी उस दौर के आने में थोड़ा वक़्त है. दर्शकों को नया और प्रायोगिक ‘कंटेंट’ देखने की आदत अभी नहीं पड़ी है."
दर्शकों की पसंद-नापसंद जानने का एक ज़रिया डिजिटल ऑपरेटर भी बन गए हैं क्योंकि उनके दिए आंकड़ों से समझ में आता है कि इन दिनों दर्शकों को क्या भा रहा है.

लेकिन इन सबके बावजूद इस साल भी लोग प्रोग्रेसिव कंटेंट या नियमित कंटेंट के बीच में ही फंसे नज़र आए.
‘लागी तुझसे लगन’ और ‘रुक जाना नहीं’ धारावाहिकों के निर्माता हेमल ठक्कर की मानें तो साल 2015 टेलीविज़न के लिए ‘बदलाव’ ला रहा है.
वे कहते हैं, "बीते दो-तीन सालों में टीवी के ‘कंटेंट’ में बदलाव देखने को मिला है. अब कहानी कहने का तरीक़ा काफ़ी बदला है. और यह बदलाव साल 2014 में आए आशुतोष गोवारिकर के धारावाहिक ‘एवरेस्ट’ से देखने को मिला."

वहीं ‘सिया के राम’ जैसी कहानी को लोग कई बार देख चुके हैं, लेकिन कहानी कहने का तरीका हटकर होने की वजह से इसके प्रति दर्शक आकर्षित हो रहे हैं.
छोटे परदे पर कॉमेडी में भी बदलाव आया है. कुछ सालों से लोग कॉमेडी में हाथ आज़माने का खतरा नहीं लेना चाहते थे, लेकिन ‘एंड टीवी’ पर प्रसारित हो रहे ‘भाभी जी घर पर हैं’ ने कॉमेडी में एक नई आस जगाई है.
हालांकि इस धारावाहिक की आलोचना यह कहकर की जा रही है कि यह धारावाहिक 90 के दशक के धारावाहिक ‘श्रीमान श्रीमती’ की नकल है.

लेकिन विदेशी धारावाहिकों के आगे यह कुछ नहीं लगता. 90 के दशक में सेक्स एंड द सिटी, बिग ब्रदर जैसे बोल्ड कंटेंट के धारावाहिक दिखा चुका हॉलीवुड पुराने फ़ॉर्मूले अपनाने के बजाए नए धारावाहिकों जैसे गेम्स ऑफ़ थ्रोन्स, टाइरैंट और होमलैंड जैसे ड्रामे परोस रहा है, जो दर्शकों को नया स्वाद दे रहा है.
इस तुलना पर विशेषज्ञ एकमत होते हुए कहते हैं कि भारत में दर्शकों की देखने की आदत को बदलना ज़रूरी है.

हालांकि भारतीय दर्शक आज भी भूत-प्रेत, रामायण, महाभारत और नाग-नागिन जैसे फ़ार्मूलों को देखना पसंद करते हैं.
लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि कुछ नया परोसने की कोशिश और प्रयोग बंद कर दिए जाएं.
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