साठ के दशक में अमेरिकन रेलरोड्स की एसोसिएशन ने बारकोड का चलन शुरू किया था. इसका विकास जनरल टेलीफोन एंड इलेक्ट्रॉनिक्स (जीटीइ) ने किया था. इसके तहत इस्पात की पटरियों की पहचान के लिए उनमें रंगीन पट्टियां लगायी जाती थीं. ये पट्टियां उस सामग्री के स्वामित्व, उस उपकरण के टाइप और पहचान नंबर की जानकारी देती थीं. गाड़ी के दोनों और ये पट्टियां लगी होती थीं. इन प्लेटों को यार्ड के गेट पर लगा स्कैनर पढ़ता था. तकरीबन दस साल तक इस्तेमाल में आने के बाद इसका चलन बंद कर दिया गया, क्योंकि यह व्यवस्था विश्वसनीय नहीं रही. इसके बाद जब सुपरमार्केट में सामान के भुगतान की व्यवस्था में इस्तेमाल किया गया, तो उसमें काफी सफलता मिली. इसके बाद यह व्यवस्था दुनिया भर में चलने लगी. इसके बाद ऑटोमेटिक आइडेंटिफिकेशन एंड डेटा कैप्चर (एआइडीसी) नाम से यह प्रणाली दूसरे कई कामों में भी शुरू की गयी. इसके अलावा यूनिवर्सल प्रोडक्ट कोड (यूपीसी) नाम से एक और सिस्टम भी सामने आया. इक्कीसवीं सदी में रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन की शुरुआत भी हुई. बारकोड अब जीवन के ज्यादातर क्षेत्रों में अपनाये जा रहे हैं. अस्पताल में मरीज का पूरा विवरण बारकोड के मार्फत पढ़ा जा सकता है, किताब के बारे में जानकारी बारकोड से मिल जाती है, हर तरह के उत्पाद की कीमत बारकोड बताता है.
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‘बारकोड’ को जानें
बारकोड मोटे तौर पर किसी वस्तु (प्रोडक्ट) के बारे में जानकारी देनेवाले डेटा का मशीन से पढ़े जाने लायक ऑप्टिकल विवरण होता है. शुरुआती बारकोडों में अनेक समांतर रेखाओं की मोटाई और उनके बीच की व्यवस्थित दूरी उस विवरण से व्यक्त होती थी. यह एक आयामी व्यवस्था थी, अब इनमें चतुष्कोण, पंचकोण, डॉट और अन्य […]
बारकोड मोटे तौर पर किसी वस्तु (प्रोडक्ट) के बारे में जानकारी देनेवाले डेटा का मशीन से पढ़े जाने लायक ऑप्टिकल विवरण होता है. शुरुआती बारकोडों में अनेक समांतर रेखाओं की मोटाई और उनके बीच की व्यवस्थित दूरी उस विवरण से व्यक्त होती थी. यह एक आयामी व्यवस्था थी, अब इनमें चतुष्कोण, पंचकोण, डॉट और अन्य ज्यामितीय संरचनाओं यानी दो आयामी व्यवस्था का इस्तेमाल भी होने लगा है. शुरू में बारकोड को पढ़ने के लिए ऑप्टिकल स्कैनरों और बारकोड रीडर आते थे, पर अब डेस्कटॉप प्रिंटरों और स्मार्टफोनों में भी इसकी व्यवस्था होने लगी है.
साठ के दशक में अमेरिकन रेलरोड्स की एसोसिएशन ने बारकोड का चलन शुरू किया था. इसका विकास जनरल टेलीफोन एंड इलेक्ट्रॉनिक्स (जीटीइ) ने किया था. इसके तहत इस्पात की पटरियों की पहचान के लिए उनमें रंगीन पट्टियां लगायी जाती थीं. ये पट्टियां उस सामग्री के स्वामित्व, उस उपकरण के टाइप और पहचान नंबर की जानकारी देती थीं. गाड़ी के दोनों और ये पट्टियां लगी होती थीं. इन प्लेटों को यार्ड के गेट पर लगा स्कैनर पढ़ता था. तकरीबन दस साल तक इस्तेमाल में आने के बाद इसका चलन बंद कर दिया गया, क्योंकि यह व्यवस्था विश्वसनीय नहीं रही. इसके बाद जब सुपरमार्केट में सामान के भुगतान की व्यवस्था में इस्तेमाल किया गया, तो उसमें काफी सफलता मिली. इसके बाद यह व्यवस्था दुनिया भर में चलने लगी. इसके बाद ऑटोमेटिक आइडेंटिफिकेशन एंड डेटा कैप्चर (एआइडीसी) नाम से यह प्रणाली दूसरे कई कामों में भी शुरू की गयी. इसके अलावा यूनिवर्सल प्रोडक्ट कोड (यूपीसी) नाम से एक और सिस्टम भी सामने आया. इक्कीसवीं सदी में रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन की शुरुआत भी हुई. बारकोड अब जीवन के ज्यादातर क्षेत्रों में अपनाये जा रहे हैं. अस्पताल में मरीज का पूरा विवरण बारकोड के मार्फत पढ़ा जा सकता है, किताब के बारे में जानकारी बारकोड से मिल जाती है, हर तरह के उत्पाद की कीमत बारकोड बताता है.
बैंकिंग प्रणाली में आरटीजीएस और आइएफएससी कोड क्या है?
यह बैंकों के धनराशि लेन-देन की व्यवस्था है. भारतीय बैंक रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट (आरटीजीएस) और नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर प्रणाली के मार्फत काम करते हैं. आमतौर पर धनराशि का ट्रांसफर इलेक्ट्रॉनिक क्लीयरिंग सर्विसेज (इसीएस) के मार्फत होता है. इस व्यवस्था के तहत बैंकों की ब्रांचों के इंडियन फाइनेंशियल सिस्टम कोड (आइएफएससी) प्रदान किये गये हैं. यह कोड चेक पर लिखा रहता है. आम आदमी को जल्द और सही सेवा देने के लिए ही इन्हें बनाया गया है.
प्लास्टिक सर्जरी क्या है?
प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है, शरीर के किसी हिस्से को ठीक करना या पुनर्जीवित करना. इसमें प्लास्टिक शब्द-ग्रीक शब्द ‘प्लास्टिको’ से आया है. ग्रीक में प्लास्टिको का अर्थ होता है बनाना या तैयार करना. प्लास्टिक सर्जरी में सर्जन शरीर के किसी हिस्से के सेल निकाल कर दूसरे हिस्से में जोड़ता है और वे स्वयं उस अंग की जगह ले लेते हैं. प्रायः दुर्घटना या किसी कारण से अंग भंग होने पर इसका इस्तेमाल होता है. हाथ-पैर कट जाने, चेहरे, नाक, कान वगैरह में विकृति आने पर इसकी मदद ली जाती है. प्लास्टिक सर्जरी का श्रेय छठी शताब्दी ईसा पूर्व के भारतीय शल्य चिकित्सक सुश्रुत को जाता है.
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