भारत की नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने वाराणसी शहर में गंगा नदी में प्रदूषण को लेकर केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार की कथनी और करनी में अंतर बताते हुए सरकारों से पूछा है कि आख़िर अभी तक इसके लिए क्या किया गया है.
इस मामले को एनजीटी पहुंचाने वाले याचिकाकर्ता गौरव बंसल हैं जिन्होंने एक वर्ष पहले गंगा, यमुना और दूसरी नदियों के बढ़ते प्रदूषण को लेकर इस पर्यावरण अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था.
बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव ने गौरव से बात की और पूछा कि मामले की शुरुआत कैसे हुई?
गौरव बंसल: हमने साल भर पहले एनजीटी में याचिका दायर की थी जिसमें ये दलील दी थी कि गंगा की सफ़ाई भी ज़रूरी है और इसके साथ ही इसमें मिलने वाली छोटी नदियों की भी सफ़ाई आवश्यक है. आप देखिए, राम गंगा, देहला या बहेला जैसी उत्तराखंड या उत्तर प्रदेश में तमाम ऐसी नदियां हैं जो प्रदूषण के साथ ही गंगा में मिलती हैं.

गौरव बंसल की याचिका के बाद वाराणसी में प्रदूषण का मामला एनजीटी तक पहुंचा.
जहाँ ये गंगा में मिलती हैं वहां तो स्थिति ख़राब है ही, साथ ही इन छोटी नदियों का पानी अब नहाने लायक़ तक नहीं रहा है. जब प्रदूषण वग़ैरह पर सरकारी आंकड़ों की बात होती है तो पता चलता है कि केंद्र सरकार के आंकड़े राज्य सरकार के आंकड़ों से नहीं मिलते या फिर इसका विपरीत निकलता है. यही वजह है कि एनजीटी बार-बार सरकारों से कह रही है कि अपना डाटा ठीक करिए और सही मायनों में उठाए गए क़दमों के साथ आइए.
सवाल: एनजीटी इस समय सरकारों से नाख़ुश दिख रही है और उन्होंने बनारस के घाटों पर होने वाले प्रदूषण का ख़ास ज़िक्र किया है. क्या ये मणिकर्णिका जैसे घाटों की बात हो रही है जहाँ शवों का दाह-संस्कार होता है?

गौरव बंसल: बात बनारस की हो तो हिन्दू संस्कृति की बात तो करनी ही होगी क्योंकि उसका बहुत महत्व है. लेकिन अपनी संस्कृति बचाए रखने में कहीं ऐसा न हो कि हम अपनी ऐसी कोई चीज़ गंवा दे जिसका बाद में कोई समाधान ही नहीं हो. मिसाल के तौर पर हमने एनजीटी में कुछ तस्वीरें पेश की जिनमें साफ़ देखा जा सकता है कि अभी भी अधजले शव गंगा में प्रवाहित कर दिए जाते हैं. मुझे इसके कारण सही से पता नहीं लेकिन प्रदूषण तो हो ही रहा है.
बनारस हिंदू विश्विद्यालय के एक प्रोफ़ेसर की अगुवाई में बनी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हर साल लगभग 3,000 लोगों का दाह संस्कार बनारस के घाटों पर ही होता है और सब कुछ नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है. इसी रिपोर्ट के अनुसार लगभग 6,000 जानवरों को भी बनारस और आसपास के इलाक़ों से गंगा में बहाए जाने के अनुमान मिलते हैं. हमनें यही चीज़ अदालत के सामने रखी कि हिंदू सभ्यता के साथ हमें नदियों और पर्यावरण को भी बचाना है.
सवाल: पिछले कई दशकों से गंगा या यमुना की सफ़ाई करने के लिए तमाम योजनाएं बनी हैं और करोड़ों रुपए भी आवंटित किए गए हैं. लेकिन प्रदूषण थम नहीं सका है. आपको कितनी उम्मीद है?

गौरव बंसल: इसमें कोई दो राय नहीं कि अब तक गंगा की सफ़ाई के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपए बहाए जा चुके हैं जिसके लिए कोई एक नहीं बल्कि सभी सरकारें ज़िम्मेदार रहीं है. इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर एनजीटी के भी कई निर्देश हैं. मैं ख़ुद पेशे से एक वकील हूँ और ये बात दावे से कह सकता हूँ कि ये सब बेकार होगा जब तक हम सभी लोग इसको लेकर जागरूक नहीं होंगे और सुधरेंगे नहीं.
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