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ऐसे भागे थे घर से, जैसे भूकंप आ गया हो

ज़ुबैर अहमद बीबीसी संवाददाता, दिल्ली घरों में सामान बिखरा पड़ा था. गैस स्टोव पर देग़चियां और रसोई में बर्तन इधर-उधर फेंके हुए थे. घरों के दरवाज़े खुले थे. हर घर में ऐसा ही समां था. ऐसा लगता था कि भूकंप के कारण घर वाले अचानक अपने घरों से भाग खड़े हुए हों… हुआ भी ऐसा […]

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घरों में सामान बिखरा पड़ा था. गैस स्टोव पर देग़चियां और रसोई में बर्तन इधर-उधर फेंके हुए थे. घरों के दरवाज़े खुले थे. हर घर में ऐसा ही समां था. ऐसा लगता था कि भूकंप के कारण घर वाले अचानक अपने घरों से भाग खड़े हुए हों… हुआ भी ऐसा ही था.

फ़र्क़ केवल इतना था कि ये प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं था. श्रीनगर के रैनावाड़ी मोहल्ले में रहने वाले कश्मीरी पंडितों को रातों रात अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा था.

ये 26 साल पुरानी बात है. 19 जनवरी 1990 की रात हज़ारों कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले गए.

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मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए एक साल बाद गया था. लेकिन एक साल के बाद भी इन घरों के सामान वैसे ही बिखरे पड़े थे. ये सिलसिला महीनों बल्कि सालों तक जारी रहा.

लेखक राहुल पंडिता उस समय 14 वर्ष के थे. बाहर माहौल ख़राब था. मस्जिदों से उनके ख़िलाफ़ नारे लग रहे थे. पड़ोसी कह रहे थे, ‘आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो या वादी छोड़कर भागो’.

कश्मीरी पंडित हिंसा, आतंकी हमले और हत्याओं के माहौल में जी रहे थे. सुरक्षाकर्मी थे लेकिन इतने नहीं कि वो उनकी जान और सामान की सुरक्षा कर सकें.

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राहुल पंडिता के परिवार ने तीन महीने इस उम्मीद में काटे कि शायद माहौल सुधर जाए. लेकिन आख़िर उनके जाने की घड़ी आ गई. वो 3 अप्रैल 1990 का दिन था. "हमलों के डर से हमारे घर में लाइट बुझा दी गई थी."

राहुल आगे कहते हैं, "कुछ लड़के जिनके साथ हम क्रिकेट खेला करते थे हमारे घर के बाहर पंडितों के ख़ाली घरों को आपस में बांटने की बातें कर रहे थे."

उन्होंने बताया, "हमारी लड़कियों के बारे में बुरी बातें कह रहे थे. ये बातें मेरे ज़हन में अब भी ताज़ा हैं."

उसी शाम को राहुल के पिता ने फ़ैसला किया कि अब कश्मीर में रहना मुमकिन नहीं. अगले ही दिन एक टैक्सी करके वो जम्मू चले गए.

शुरू में उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं. "जम्मू में पहले हम सस्ते होटल में रहे, छोटी-छोटी जगहों पर रहे. बाद में एक धर्मशाला में रहे जहाँ मेरी माँ की तबीयत बहुत ख़राब हो गई. उस समय अपने भविष्य को लेकर हमें कुछ मालूम नहीं था"

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उस साल ऑल इंडिया कश्मीरी समाज के अध्यक्ष विजय ऐमा का घर भी उजड़ गया था.

लेकिन ऐमा कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की त्रासदी किसी एक परिवार की नहीं बल्कि ये उनकी सामूहिक त्रासदी थी. ऐमा कहते हैं, "ये त्रासदी उन कश्मीरी पंडितों की कहानी है जो उस रात अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर हुए."

कश्मीरी पंडितों के अनुसार उन्हें उनके घरों से नहीं बल्कि उनकी जड़ों से बेदख़ल किया गया.

विजय ऐमा कहते हैं, "विश्वास नहीं होता था कि जिस जगह हम सदियों से रहते आये हैं वहां ऐसा माहौल होगा. मालूम नहीं था कि कैसे हम ज़िंदा बचेंगे, कैसे अपनी औरतों की आबरू बचा पाएंगे."

उनके अनुसार उस माहौल को "लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता."

अधिकतर कश्मीरी पंडितों ने जम्मू में शरण ली. वहां ख़ेमों का एक शहर सा बस गया. राहुल पंडिता के अनुसार उस साल जून की गर्मी से ख़ेमों में कई लोगों का देहांत हो गया जिसके बारे में उन्होंने अपनी नई प्रकाशित किताब में भी ज़िक्र किया है.

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जम्मू और दिल्ली में शरण लेने वाले कश्मीरी पंडितों को ये लगा कि इन जगहों पर उनके दर्द को लोग समझेंगे लेकिन उन्हें जल्द समझ में आ गया कि "उन्हें पूछने वाला कोई नहीं".

राहुल पंडिता कहते हैं, "हमें ये उम्मीद थी कि जब हम कश्मीर से पलायन करके जम्मू, दिल्ली और लखनऊ आएंगे जहाँ बहुसंख्यक हिन्दू समाज है तो उन्हें एहसास होगा कि हम कश्मीर से भागकर आए हैं."

"लेकिन निर्वासन के तुरंत बाद समझ में आ गया कि जो मकान मालिक होता है वह न तो हिन्दू होता है और न मुसलमान. वो केवल मकान मालिक होता है और उसका मज़हब केवल पैसा होता है."

कश्मीरी पंडितों को आम तौर पर सभी से शिकायत है. विजय ऐमा कहते हैं कि देश की सिविल सोसाइटी ने, मीडिया ने, नेताओं ने और हुकूमतों ने… किसी ने उनका हाल नहीं पूछा.

एक अंदाज़े के मुताबिक़ पिछले 26 सालों में तीन लाख कश्मीरी पंडित घाटी को छोड़ कर चले गए जिनमें से अधिकतर 1990 में ही चले गए थे.

लेकिन कुछ परिवार ऐसे थे जो अपने घरों को छोड़कर नहीं गए.

अब वादी में ऐसे लोगों की संख्या 2700 से थोड़ा अधिक है. इनमें संजय टीकू भी एक हैं जो आज भी उसी घर में रह रहे हैं जहाँ 26 साल पहले रह रहे थे.

वो कहते हैं, "जब हम अपने रिश्तेदारों को ढूंढने जम्मू को निकले, जब हमने अपने रिश्तेदारों के हालात वहां ख़ेमों में देखे तो हम ने फ़ैसला किया कि बेहतर है हम कश्मीर में ही रहें. मौत लिखी है तो कश्मीर में होगी"

अब राज्य से बाहर कई कश्मीरी पंडित पहले से बेहतर हाल में हैं लेकिन वो अपने वतन को लौटना चाहते हैं. क्या ये संभव है?

राहुल पंडिता कहते हैं, "पिछले 26 सालों में किसी भी सरकार ने ऐसा माहौल तैयार नहीं किया है जिससे कश्मीर में उनकी वापसी हो सके".

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने मंगलवार को एक समारोह में कहा कि कश्मीर लौटने की ज़िम्मेदारी ख़ुद कश्मीरी पंडितों की है.

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इस बयान ने कश्मीरी पंडितों को काफ़ी मायूस किया. विजय ऐमा के अनुसार पहल कश्मीरी मुस्लिम समाज को करनी होगी.

कश्मीरी पंडित के बहुमत के विचार में अगर वो घर लौटे तो ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे. कुछ कहते हैं उन्होंने काफ़ी पहले बदहाली में अपने घर बेच दिए.

संजय टीकू कहते, "मैं कश्मीर में सर उठा कर जीता हूँ, सर झुका कर नहीं." कश्मीर के पैंथर्स पार्टी के अध्यक्ष भीम सिंह कहते हैं कि हालात पहले से काफ़ी बेहतर हैं. "मैं राजपूत हूँ, एक हिन्दू हूँ. मैं खुली गाड़ी में श्रीनगर जाता हूँ."

संजय टीकू के अनुसार कश्मीर में 186 अलग-अलग जगहों पर 2700 कश्मीरी पंडित रहते हैं. लेकिन कश्मीर से बाहर रहने वाले पंडितों के अनुसार ये अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित वहां दबकर रहते हैं.

कश्मीरी पंडितों की घर वापसी पर एक सुझाव आया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्मार्ट सिटी बनाने की योजना रखते हैं.

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संजय टीकू कहते हैं कि एक स्मार्ट सिटी कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए बना दिया जाए तो अधिकतर लोग वापस कश्मीर लौट जाएंगे.

"मैं भी अपने लोगों के बीच रहना चाहता हूँ. स्मार्ट सिटी में 60 प्रतिशत कश्मीरी पंडित और 40 प्रतिशत मुस्लमान रहें तो हमें ये मंज़ूर होगा."

राहुल पंडिता और विजय ऐमा इस सुझाव को स्वीकार करते हैं. राहुल कहते हैं, "ये पहले क़दम के तौर पर सही फ़ैसला होगा. लेकिन साथ ही हमें इन्साफ़ चाहिए."

इन्साफ़ से उनका मतलब ये था कि कश्मीरी पंडितों के घरों को लूटने, उनकी हत्या करने और उनके मंदिरों को जलाने वालों को सज़ा दी जाए.

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