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‘ऑड ट्रैफिक’ में कैसे चलता है आपका महानगर?

दिव्या आर्य बीबीसी संवाददाता, दिल्ली दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिए ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला कितना सफ़ल होगा इसमें ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ की भूमिका अहम रहेगी. तो जानते हैं दिल्ली समेत देश के चार महानगरों में कैसी है ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ की व्यवस्था? हमने स्थानीय विशेषज्ञों से ये जानने की कोशिश की. मुंबई-अशोक दत्तार, ‘मुंबई इनवायरमेंटल सोशल नेटवर्क’ […]

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दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिए ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला कितना सफ़ल होगा इसमें ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ की भूमिका अहम रहेगी.

तो जानते हैं दिल्ली समेत देश के चार महानगरों में कैसी है ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ की व्यवस्था? हमने स्थानीय विशेषज्ञों से ये जानने की कोशिश की.

मुंबई-अशोक दत्तार, ‘मुंबई इनवायरमेंटल सोशल नेटवर्क’

मुंबई में सबसे ज़्यादा लोकल ट्रेन इस्तेमाल की जाती है. रोज़ाना लोकल ट्रेनें क़रीब 75 लाख फेरे लगाती हैं. लेकिन भीड़ की परेशानी को देखते हुए इन्हें बढ़ाए जाने की ज़रूरत है.

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वैसे भीड़ के बावजूद लोकल ट्रेन अब भी टिकट के सस्ते दाम और समय पर पहुंचाने के लिए पसंद की जाती है. मेट्रो और मोनोरेल ज़्यादा आरामदायक हैं पर उनका दायरा अभी बहुत छोटा है.

बसों का इस्तेमाल पिछले 8-10 सालों में कम हुआ है क्योंकि बढ़ते ट्रैफिक ने इनकी गति 25-30 प्रतिशत कम कर दी है.

सड़क से चलनेवाले भी बस के मुक़ाबले टू-व्हीलर या ऑटो रिक्शा पसंद कर रहे हैं. प्राइवेट कारें भी बहुत ज़्यादा बढ़ गई हैं. पार्किंग फीस कम होने की वजह से निजी वाहन का इस्तेमाल महंगा भी नहीं पड़ता.

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पहले लोग रेलवे स्टेशन के आसपास रहते थे पर जैसे-जैसे शहर बढ़ा, वो दूर रहने लगे और बसों की मांग बढ़ गई. ट्रेन के मुकाबले बसों की लागत 10 गुना कम है, इसलिए बसों की स्पेशल लेन जैसे नियम बनाने की ज़रूरत है.

चेन्नई-केआर रामस्वामी, आरटीआई ऐक्टिविस्ट

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चेन्नई में लोकल ट्रेन का छह लाइनों का विकसित नेटवर्क है. स्टेशन का रखरखाव बहुत अच्छा नहीं होने के बावजूद ये काफी पसंद की जाती है और ट्रेनों के आने-जाने की दर भी बढ़िया है.

दस साल पहले शहर में मेट्रो शुरू की गई जो 10 किलोमीटर का छोटा सा रास्ता ही तय करती है. छोटा दायरा और स्टेशनों पर सुरक्षा की कमी की वजह से ये लोकप्रिय नहीं हो पाई है.

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बसों की तादाद कम होने के चलते उनमें बहुत भीड़ रहती है. इसके अलावा बसों का ठीक से रखरखाव नहीं किया जाता और कई बसें डिपो में ही खड़ी रहती हैं.

ऑटो ‘शेयर्ड’ तरीके से इस्तेमाल होता है. एक ऑटो में 10 सवारियों को ले जाया जाता है. ऑटो चालक मनमाने ढंग से पैसे मांगते हैं और चलाते वक्त ट्रैफिक नियमों का पालन भी नहीं करते.

पर बसों की कमी की वजह से लोग ऑटो इस्तेमाल करने को मजबूर हैं.

चेन्नई की सड़कें चौड़ी नहीं हैं जिस वजह से ट्रैफिक की भारी समस्या रहती है. साथ ही अवैध तरीके से इमारतें बनाए जाने के चलते सड़कें और घेर ली गईं हैं.

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कोलकाता-एकता जाजू, ‘स्विच ऑन’

कोलकाता के पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि शहर में ना सिर्फ़ एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए अलग-अलग तरह के वाहन उपलब्ध हैं, बल्कि वे सभी एक-दूसरे से सुचारू ढंग से जुड़े हुए भी हैं.

यानि बस, फेरी या मेट्रो जहां रुकते हैं वहां से आगे जाने के लिए ऑटो, टैक्सी, ट्रैम जैसे अन्य वाहन आसानी से मिल जाते हैं. इनमें से काफी वाहन सरकारी और कुछ निजी कंपनियां चलाती हैं.

शहर में ऑटो ‘निर्धारित रूट’ पर चलते हैं और एक वक्त में तीन से चार लोगों को ले जाते हैं. इससे किराया सस्ता पड़ता है. ये ‘फिक्स्ड रूट’ ऑटो शहर के ज़्यादातर इलाकों में मिल जाते हैं.

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सड़क पर ट्रैफ़िक एक बड़ी समस्या है. इससे निपटने के लिए कोलकाता पुलिस ने दो बार ‘नॉन-मोटराइज़्ड’ वाहनों के शहर की प्रमुख सड़कों पर चलने पर पाबंदी लगाई.

इससे ट्रैफिक जाम पर तो असर नहीं पड़ा पर ऐसे वाहन चलाने वाले गरीब तबके को बहुत दिक्कतें आईं. अदालत में हमारी संस्था की जनहित याचिका और लोगों के विरोध के बाद अब ये पाबंदी काफ़ी कम कर दी गई हैं.

मेट्रो कोलकाता में बेहद लोकप्रिय है. उसमें बैठने के लिए बनी कुर्सियों की हर दूसरी कतार महिलाओं के लिए आरक्षित की गई है. पर मेट्रो का टिकट बस के मुकाबले काफ़ी महंगा है और ऑफ़िस के वक्त वो भीड़ से भरी रहती है.

हावड़ा नदी पार करने के लिए फेरी बहुत मददगार है. ट्राम सेवाएं अभी भी कुछ इलाकों में मौजूद हैं लेकिन उनकी बेहद धीमी चाल की वजह से वो कम इस्तेमाल होती हैं.

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दिल्ली-डुनु रॉय, ‘हैज़ार्ड सेंटर’

दिल्ली में बसें अब भी सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाती हैं. 1990 के दशक तक बस सिस्टम ने अच्छा काम किया. मेरा मानना है कि प्रदूषण कम करने के लिए बसों को सीएनजी अपनाने के फ़ैसले के बुरे परिणाम भी रहे.

सीएनजी से होने वाला धुआं दिखाई नहीं देता इसलिए हमें लगता है कि ये प्रदूषण के लिहाज से अच्छा है.

साथ ही पहले डीटीसी बसों की तादाद ज़्यादा थी पर सीएनजी में बदलाव के बाद ये संख्या तकरीबन एक चौथाई रह गई है. अब बसों की कमी को मेट्रो ने पूरा किया है.

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मेट्रो आरामदायक है और लंबी दूरी के लिए अच्छी है, पर फीडर सेवाओं की कमी है. साथ ही ऑफ़िस के समय पर भीड़ बहुत ज़्यादा रहती है.

ऑटो के लाइसेंस और ख़रीदने के लिए लोन से जुड़ी समस्याओं की वजह से ऑटो खरीदना और चलाना बहुत महंगा हो गया है. साथ ही टैक्सी से अलग, ऑटो के लिए पार्किंग की बहुत कम जगहें हैं.

इन सब वजहों से ऑटो चालक सब जगह जाने को तैयार नहीं होते और साथ ही ज़्यादा पैसे भी मांगते हैं.

दुनियाभर में पाया गया है कि बस के लिए लेन बनाना पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए बेहतर है.

दिल्ली घुमावदार शहर है. यहां रोजमर्रा की आवाजाही के लिए बस, ट्रेन से बेहतर ज़रिया बन सकती है. इसलिए इसमें ज़्यादा निवेश करने और कई योजनाएं बनाने की ज़रूरत है.

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