।। राजेंद्र प्रसाद ।।
डॉ आंबेडकर की पुण्यतिथि आज
डॉ अम्बेडकर आधुनिक भारत के प्रमुख शिल्पियों में से एक हैं. वह एक मौलिक चिंतक और सिद्वांतकार थे. उन्होंने हर तरह से लूले-लंगड़े, गूंगे-बहरे, दृष्टिहीन, दीन-हीन, गाली-मार सहर्ष स्वीकार करने वाले अस्पृश्य और पिछड़े समाज को चेतना दी. जड़तापूर्ण रूढ़िवादी हिंदू समाज को सुधारने के लिए भूकंपी झटके देकर गतिशील करने का काम किया.
डॉ अम्बेडकर न केवल देश की राजनीतिक आजादी बल्कि हजारों वषों तक दोहरी गुलामी (सामाजिक-आर्थिक) की जिंदगी जीने वालों की भी आजादी चाहते थे. पददलितों और दोहरे गुलामों की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने देश के राजनीतिक स्वतंत्रता आंदोलन को गौण माना था.
उन्हें जब कभी दो हिंदू राजाओं महाराजा बड़ौदा और महाराजा कोल्हापुर के छात्रवृत्ति और आर्थिक सहायता से अध्ययन करने के एवज में उनके द्वारा हिंदू धर्म के विरुद्व बोलने और अछूतों की आजादी की मांग के लिए नाशुक्रगुजार कहा गया तो उनकी तत्क्षण प्रतिक्रिया होती थी कि अंगरेजों ने विश्वविद्यालय खोलकर हिंदुस्तानी हिंदुओं को अंगरेजी शिक्षा दी तथा इंगलैंड में उच्च शिक्षा दिलायी, किंतु अब वही शिक्षित हिंदू अपने अंगरेज शासकों से मुक्ति पाने के लिए पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रहे हैं.
यदि ऐसे स्वराजलोलुप हिंदू नाशुक्रगुजार या कृतघ्न न होकर देशभक्त कहलाता हैं तो अछूत जाति को हजारों सालों की अमानवीय दासता और गुलामी से छुटकारा दिलाने की कोशिश कृतघ्नता या नाशुक्रगुजारी कैसे हो सकती है?
डॉ अम्बेडकर ओजस्वी वाकपटु थे. संत कबीर की तरह विरोधियों के ठीक विरुद्घ किनारे पर खड़े होकर तीर चलाते थे. कोई विरोधी उनके तर्को का उत्तर देने की स्थिति में नहीं रहता था. ढोंगियों और कुरीतियों पर उनका जवाब मुंहफट और चुभनेवाली हुआ करती थी. उनके भाषण विचारोत्तेजक और सार्वजनिक जीवन के पाखंडों का पर्दाफाश करने वाले होते थे. उनकी मान्यता थी कि सतत् परिश्रम और मितव्ययिता के व्यवहार से मनुष्य को जीवन में सफलता मिलती है.
डॉ अम्बेडकर में देश प्रेम और राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी हुई थी. वह प्रांतीयता और क्षेत्रवाद के कटु आलोचक थे. चार अप्रैल 1938 को बम्बई विधान सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा था -’’ मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान. मुझे यह स्वीकार नहीं. धर्म,जाति भाषा आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा पनप नहीं सकती है. मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं.’’ डॉ अम्बेडकर के अंत:करण से निकले ये शब्द उनकी राष्ट्रीय निष्ठा की अभिव्यक्ति थी, जो बड़े बड़े राष्ट्रवादियों में भी मिलनी मुश्किल है. यदि अम्बेडकर चाहते तो अंगरेजों की मदद से एक तीसरे देश के अस्तित्व को अमल में ला सकते थे, पर उन्होंने गांधी जी के साथ समझौता(पूना पैक्ट)कर देश की एकता और राष्ट्रीयता को मजबूत किया. उन्होंने जिन्ना का अनुसरण नहीं किया. यह उनके राष्ट्रीय व्यक्तित्व का अनोखा पहलू है.
डॉ अम्बेडकर की महत्वपूर्ण विशेषता है कि उन्होंने अछूतों-पिछड़ों में मानव अस्तित्व की चेतना को जागृत किया. अधिकार के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी. याचकों को याचना और गुलामी की मानसिकता छोड़ने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने अधिकारों के लिए सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक मंच से भी संघर्ष का बिगुल फूंका. डॉ अम्बेडकर ने यह भी एहसास कराया कि बिना जुझारु संगठन और मानवाधिकार प्रेमियों के सहयोग के अछूतों का उद्घार नहीं होगा.
इसके लिए उन्होंने वर्ष1920 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की बुनियाद रखी, जिसका उद्देश्य अछूतों में शिक्षा प्रसार, कुरीतियों को दूर करना, रोजगार के अवसरों को बढ़ाना तथा मानवाधिकारों के लिए संधर्ष करना प्रमुख था.
डॉ अम्बेडकर की मान्यता थी कि धर्म और राजसत्ता के बल पर दलितों-पिछड़ों को गुलाम बना कर रखा गया है. उनके चौतरफा विकास के रास्ते में धर्म के नाम पर बड़े बड़े अवरोधक खड़े किये गये. राजसत्ता और धार्मिक मामले में भागीदारी से वंचित किया गया. उन्हीं अवरोधों को हटाने के लिए विविध उपायों के साथ बाबासाहब आजीवन संघर्षरत रहे. डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वांड्मय उनके जीवन संघर्ष एवं उपलब्धियों का दस्तावेज है, नये भारत के निर्माण का ब्लूप्रिंट है.