असहिष्णुता एक भाव है, जो मानव मन में विद्यमान रहता है. मानव मन में प्यार-गुस्सा, राग-द्वेष, सुख-दुख, हंसी-खुशी, खीझ-नफरत आदि मौजूद रहता है, जो वक्त पड़ने पर मन से बाहर प्रस्फुटित हो जाता है. इसी तरह की स्थिति असहिष्णुता के साथ भी है. मन के भावों के लिए समय की अनुकूलनता जरूरी है. हालांकि, भारतीय समाज के लिहाज से असहिष्णुता को अगर सामूहिक रूप में देखा जाये, तो हमारे देश में इसकी कोई खास जगह नहीं है, क्योंकि हमारे यहां तमाम विभिन्नताओं के बीच एकता और सांप्रदायिक-सामुदायिक सौहार्द भी बरकरार है, जो असहिष्णुता पर भारी है.
लेकिन हमारी विकृत होती राजनीति ने अपने वोट बैंक को भुनाने के लिए इसे आधिकारिक बना दिया है, जिससे देश भर में एक बहस सी होने लगी. यही वजह है कि कुछ लोग भारत को असहिष्णु देश की संज्ञा तक देने लगे.साल 2015 में खासतौर से भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं की वोट बैंक की राजनीति के चलते यह मुद्दा सबसे बड़ी बहस में तब्दील हो गया. भारत का जनमानस असहिष्णु नहीं है, बल्कि हिंदुत्ववादी राजनीति असहिष्णु है. हिंदुत्ववादी राजनीति भी पूरी तरह से नहीं, बल्कि उसका कुछ हिस्सा असहिष्णु है, जिसका पूरी पार्टी पर असर पड़ता है. अगर ऐसा नहीं होता, तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक इस विषय पर कभी कोई बहस क्यों नहीं हुई? पिछले एक साल में ही तो यह बहस तेज हुई है.
दूसरे शब्दों में कहें, तो हकीकत यह है कि देश में असहिष्णुता नहीं है, लेकिन असहिष्णुता एक राजनीतिक फसाना जरूर बन रहा है, जो पूरे देश पर नकारात्मक असर डाल रहा है. अगर हमारी राजनीति विकृत न होती, तो देश में ऐसे किसी भाव को इतनी अहमियत नहीं मिलती, जो सांप्रदायिक सौहार्द के लिए खतरा बन जाये.
भारत एक बड़ा देश है. इतने बड़े देश में हर जगह कोई न कोई अपने विचारों में थोड़ा-बहुत असहिष्णु होगा और यह भी हो सकता है कि उसके भीतर की यह असहिष्णुता उसके अपने किसी धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते हो, लेकिन यह तो बिल्कुल भी नहीं है कि एक देश के रूप में भारत पूरी तरह से असहिष्णु है. जहां तक इस असहिष्णुता के बहस के बीच लेखकों द्वारा सम्मान वापसी का मसला है, तो मेरा मानना है कि एक लेखक का अपना हक है कि वह किसी सरकारी या निजी संस्था द्वारा दिये गये सम्मान को वापस कर दे, अगर उसे लगता है कि वे संस्थाएं कुछ उचित नहीं कर पा रही हैं.
लेखकों से यह अधिकार नहीं छीना जा सकता और न ही यह कहा जा सकता है कि इसके पहले की घटनाओं में वे कहां थे. एक लेखक जब सोचता स्वतंत्र रूप से है, तो उसे इस बात की भी स्वतंत्रता है कि जब वह किसी मसले को समाज के अनुकूल नहीं समझता, तो उसके विरोध में अपना सम्मान वापस कर दे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)