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‘झूले लाल जैसे बुज़ुर्गों का तोहफ़ा है सेक्यूलरिज़्म’

वुसअतुल्लाह ख़ान पाकिस्तान से बीबीसी हिंदी के लिए रविवार को ओडेरो लाल जाना हुआ. सिंध प्रांत में हैदराबाद से कोई 30-35 किलोमीटर परे ओडेरो लाल में सिंधी हिंदुओं के अवतार झूले लाल की समाधि है. झूले लाल सिंधु नदी का देवता है. आपने कभी ना कभी कमल के फूल पर एक लंबी सफेद दाढ़ी वाले […]

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रविवार को ओडेरो लाल जाना हुआ. सिंध प्रांत में हैदराबाद से कोई 30-35 किलोमीटर परे ओडेरो लाल में सिंधी हिंदुओं के अवतार झूले लाल की समाधि है.

झूले लाल सिंधु नदी का देवता है. आपने कभी ना कभी कमल के फूल पर एक लंबी सफेद दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग को बैठे जरूर देखा होगा जो सुनहरी मछली पर सवारी कर रहे हैं. बस यही झूले लाल हैं.

जब हिंदुस्तान का विभाजन हुआ तो सिंध छोड़ने वाला हर हिंदू अपने सामान में कुछ लेकर गया हो या न गया हो, झूले लाल की मूरत या दिल में उसकी याद जरूर ले गया.

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और वो ये कहानी भी जरूर सुनाएगा कि किस तरह झूले लाल ने सैकड़ों साल पहले प्रकट होकर उन्हें एक बादशाह मिरक शाह के जुल्म से बचाया, जो सिंधी हिंदूओं को मुसलमान बनाना चाहता था.

उनसे जुड़ी कहानी ये है कि हिंदू सिंधु के किनारे जमा होकर आसमान से मदद मांगने लगे. तब वरूण देवता ने झूले लाल को अपने अवतार के रूप में उतारा जो पल्ला मछली पर सवार थे.

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उन्होंने मिरक शाह से पूछा कि ईश्वर और अल्लाह जब एक हैं तो फिर झगड़ा काहे का? मिरक शाह जब ज़िद पर अड़ा रहा तो पल्ला पर सवार झूले लाल के हाथ हिलाने से दरिया में तूफ़ान आ गया. यूं मिरक शाह डरकर अपने इरादे से बाज़ आ गया.

मगर झूले लाल को सिंधी मुसलमान भी उतना ही मानते हैं लेकिन उनका कहना है कि जिसे हिंदू झूले लाल कहते हैं असल में वो जिंदा पीर शेख ताहिर है जो कई सौ साल पहले मुल्तान से आने वाले एक वली के हाथों मुसलमान हुआ था.

और शेख ताहिर वरुण का नहीं, ख्वाज़ा खिज्र का अवतार है जो मछली पर बैठकर भटके हुओं को रास्ता दिखाते हैं.

पर वो कहते हैं ना कि नाम में क्या रखा है?

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ओडेरो लाल में जो बहुत बड़ी सफेद दरगाह सत्रहवीं शताब्दी में बनाई गई, उसके एक झिलमिल से कमरे में झूले लाल की समाधि पर चिराग जल रहा है और दूसरे हॉल में शेख ताहिर की कब्र पर ताज़ा फूल महक रहे हैं.

यहां पहुंचने वाले हिंदू और मुसलमान समाधि वाले कमरे पर भी हाजिरी देते हैं और शेख ताहिर की कब्र पे भी दुआ मांगते हैं.

बराबर वाले मंदिर में घंटी भी बजती है और मंदिर की पीठ जुड़ी मस्जिद में पांच वक्त की अज़ान भी होती है. ये मछली वाले बाबा हिंदू थे कि मुसलमान? अवतार थे कि वली? एक आदमी का इससे क्या लेना देना?

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जब हिंदू और मुसलमान दरगाह तक आते हैं तो दो ही नारे तो लगाते हैं- या अली मदद, झूले लाल बेड़ा ही पार.

मगर मैं फिर भी एहतियात कर रहा हूं किसी से कहते हुए कि भाई यही तो सेक्यूलरिज़्म है, जो झूले लाल या शेख ताहिर या पिया हाजी अली, ख्वाज़ा गरीब नवाज, माधो लाल हुसेन और निजामुद्दीन औलिया जैसे सैकड़ों बुज़ुर्गों का तोहफ़ा है.

लेकिन शायद अच्छा ही हुआ कि आज इनमें से कोई है नहीं, वरना इनका भी घेराव और बॉयकॉट हो रहा होता.

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मैं किन लोगों में रहना चाहता था, ये किन लोगों में रहना पड़ रहा है?

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