वर्ष 2015 का अंत हो रहा है. यह साल कई उतार-चढ़ाव का गवाह बना. राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक रूप से कई परिवर्तन दिखे. इन्हीं सब से जुड़े विभिन्न विषयों पर हम आज से 31 दिसंबर तक अलग-अलग विशेषज्ञों की राय से आपको रू-ब-रू करायेंगे. आज पहली कड़ी समाज 2015 में जाने देश में सामाजिक तौर पर आये महत्वपूर्ण परिवर्तन को .
इस पूरे साल में हमारे देश-समाज में जो भी विचलित करने वाली स्थितियां उत्पन्न हुईं या जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटीं, उसके लिए बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र जिम्मेवार है. बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र हमारे मूल भारतीय लोकतंत्र को डराता रहा है, जिस कारण अल्पसंख्यकों और निचले तबकों में एक तरह का डर बना रहता है. हाशिये के लोगों में भय की स्थिति से ही लोकतांत्रिक संकट की स्थिति बनी है. इस कारण समाज में एक प्रकार का बिखराव नजर आता है. यह संकट तीन स्तरों पर है- विकास का संकट (क्राइसिस ऑफ डेवलपमेंट), बहुलतावाद या विभिन्नताओं का संकट (क्राइसिस ऑफ प्लूरलिज्म) और तीसरा है राष्ट्रवाद का संकट (क्राइसिस आॅफ पैट्रियोटिज्म).
इन तीनों संकटों के कारण हमारा राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) संकट की स्थिति में फंस रहा है. इस कारण तमाम तरह की अवांछित घटनाएं घटित हो रही हैं.
यह संकट हमारे समाज में कई स्तरों पर मौजूद हैं, इसलिए हमारा समाज एक संपूर्ण लोकतांत्रिक समाज से थोड़ी दूर नजर आता है. इस कारण हमारे समाज में हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं. महिलाओं के प्रति हिंसा, पर्यावरण के प्रति हिंसा, हाशिये के लोगाें के प्रति हिंसा और ये तमाम तरह की हिंसक घटनाएं हमारे समाज में बहुत गहरे तक व्याप्त हैं. विडंबना यह है कि हम लोग इन संकटों को दूर करने के लिए न कोई बात कर रहे हैं और न ही कोई विशेष पहल. किसी भी लोकतांत्रिक देश के समाज में संकट तभी आता है, जब वहां ऊपरी तौर पर तो दिखाया जाये कि विकास हो रहा है, लेकिन उससे समाज में हाशिये पर रह रहे लोगों तक कोई फायदा नहीं पहुंचे. इससे समाजार्थिक खाई बढ़ती है, जो हिंसक घटनाओं का पर्याय बनती है.
दरअसल, इसका कारण हमारी सामाजिक संरचना में ही है. लेकिन इसे हम आर्थिक या राजनीतिक सोच में खोज रहे हैं. और वह नयी सोच हमारे पास नहीं है. राजनीतिक रूप से हम स्मार्ट सिटी के बारे में सोचते हैं, लेकिन अनियमित अर्थव्यवस्था (इनफॉर्मल इकोनॉमी) और प्रवासी अर्थव्यवस्था (माइग्रेंट इकोनॉमी) को स्मार्ट बनाने के बारे मेें हम नहीं सोच पाते. जिस दिन हम ऐसा सोचने लगेंगे, हमारे समाज में बराबरी का भाव पैदा होगा और अवांछित घटनाएं कम हो जायेंगी. हमें इसके बारे में बहुत सोचने की जरूरत है. अगर हम नहीं सोचेंगे तो और भी कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ेगा. फिलहाल, हम स्थिरता के संकट, उपभोक्तावाद के संकट व लोकतंत्र के संकट के रास्ते अपने भविष्य के संकट को देख रहे हैं. अब हमें इन संकटों के लिए सिर्फ राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी नये तरह से सोचना होगा.
पूरा देश यह सोच रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर कुछ ऐसी पहल कर रहे हैं, जिससे हम आर्थिक रूप से मजबूत हो जायेंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है. जो विदेशी निवेश आ भी रहा है, वह रक्षा क्षेत्र में लगाया जा रहा है. जब हमारे समाज की आंतरिक हालत खस्ता होगी, तो हम रक्षा क्षेत्र में निवेश करके किसी का क्या भला कर पायेंगे? इससे अगली पीढ़ी को कुछ नहीं मिलनेवाला है. इससे अगर कुछ मिलेगा, तो बस हिंसा, जो समाज को और भी नीचे ले जाने का काम करेगा. हमारा समाज तो मजबूत तब होता, जब हाशिये पर रह रहे लोग, आदिवासियों, दलितों को समाज की मुख्यधारा में ले आते. लेकिन हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं और अच्छे समाज का रोना रो रहे हैं.
हम खुद को लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और विभिन्नताओं का देश मानते तो हैं, लेकिन समाज के कई स्तरों पर इन बिंदुओं को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. अभी हमारे अंदर शिक्षा और जागरूकता की इतनी कमी है कि हम यह सोच नहीं पाते कि दूसरे के लोकतांत्रिक अधिकार पर हमें कोई दखल नहीं देनी चाहिए. हमारी शिक्षा व्यवस्था की तमाम कमियों को दूर करने और इसे हर एक के लिए सुलभ बनाने की जरूरत है. शिक्षा का मजबूत होना ज्ञान की अर्थव्यवस्था (नॉलेज इकोनॉमी) का विस्तार होना है. लेकिन, हमारी सरकारों और शीर्ष पर बैठे नीति-निर्माताओं के पास इस नॉलेज इकोनॉमी के विस्तार की कोई सोच नहीं है. ऐसे में जाहिर है, हम विभिन्नताओं की महत्ता को समझने में नाकाम रहेंगे और बहुलवादी समाज का रोना रोते रहेंगे.
हमारे समाज में राष्ट्रवाद का संकट इसलिए है, क्योंकि हमारी राष्ट्रवाद की अवधारणा में एकरंगा (यूनीफॉर्म) का भाव है, जो विभिन्न प्रकार के भावाभिव्यक्ति को अपनाने से इनकार करता है. इससे जाहिर है, खाई तो बढ़ेगी ही. देश में जिस तरह की बेरोजगारी और गरीबी है, उसके मद्देनजर सरकारें कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठा पा रही हैं, जिससे समाज में मानवीय बराबरी का भाव प्रबल हो सके. देश की राजनीतिक व्यवस्था में कोई भी ठोस कदम उठाने के लिए पूरी तरह से राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. आज भाजपा यह सोच रही है कि उसने कांग्रेस को हरा दिया, कांग्रेस-मुक्त भारत बना दिया, तो सारे मसले हल हो गये. यह राजनीतिक रवैया देश-समाज के लिए बहुत घातक है. क्योंकि आगे फिर दूसरी पार्टियां भी यही करेंगी और एक-दूसरे को हराने के चक्कर में देश की हालत और भी खराब हो जायेगी.
अगर यह सब ऐसे ही चलता रहा, तो इस साल 2015 की तरह ही हमारा अगला साल 2016 भी कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के साथ गुजर जायेगा. देश-समाज को बचाने के लिए फिलहाल एक बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत है, जो बैनर-पोस्टर और टीवी के परदों से दूर देश के विभिन्न क्षेत्रों मसलन-अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कृषि, ऊर्जा, प्राकृतिक संसाधन, जलवायु परिवर्तन आदि के बारे में जमीनी स्तर पर देश के कोने-कोने में जागरूकता फैला सके. गांधी जैसे आंदोलन की जरूरत है, जो देश के सबसे निचले हिस्से को जागरूक कर सके कि उसका समाज में क्या स्थान होना चाहिए. अब तो हालत यह है कि विकास के सारे मॉडल संकट की स्थिति से गुजर रहे हैं, इसीलिए हमारा लोकतंत्र भी संकट में है. अब हमें कुछ नया सोचना पड़ेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
राजनीतिक रूप से हम स्मार्ट सिटी के बारे में सोचते हैं, लेकिन अनियमित अर्थव्यवस्था (इनफॉर्मल इकोनॉमी) और प्रवासी अर्थव्यवस्था (माइग्रेंट इकोनॉमी) को स्मार्ट बनाने के बारे मेें हम नहीं सोच पाते. जिस दिन हम ऐसा सोचने लगेंगे, हमारे समाज में बराबरी का भाव पैदा होगा और अवांछित घटनाएं कम हो जायेंगी.
शिव विश्वनाथन
प्रख्यात समाजशास्त्री