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जेनेटिकली मोडिफाइड मच्छरों से होगा मलेरिया का अंत!
दुनिया भर में मलेरिया से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं. इनमें से लाखों लोगों की मौत हो जाती है. पिछले कई दशकों से इसे समग्रता से खत्म करने पर शोध जारी है. जीन ड्राइव जैसी तकनीक की मदद से वैज्ञानिकों ने उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है, जिससे मलेरिया को खत्म किया जा सकेगा. […]
दुनिया भर में मलेरिया से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं. इनमें से लाखों लोगों की मौत हो जाती है. पिछले कई दशकों से इसे समग्रता से खत्म करने पर शोध जारी है. जीन ड्राइव जैसी तकनीक की मदद से वैज्ञानिकों ने उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है, जिससे मलेरिया को खत्म किया जा सकेगा. कैसे होगा यह सब मुमकिन और इस मसले से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों के बारे में बता रहा है आज का नाॅलेज…
दिल्ली : जे नेटिकली माेडिफाइड मच्छरों से अगले कुछ वर्षों में मलेरिया को काबू में किया जा सकेगा. जीन-एडिटिंग के इस्तेमाल से शोधकर्ताओं ने मच्छरों के मलेरिया-रोधी प्रारूप की ब्रीडिंग यानी उन्हें पैदा करने में कामयाबी हासिल की है. हालांकि, इस दिशा में कई वर्षों से शोधकार्य जारी हैं, लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं को उल्लेखनीय सफलता मिली है. पहली बार वैज्ञानिक मच्छरों को बांझ बनाने में कामयाब हुए, जिसके माध्यम से उनकी ब्रीडिंग को पूरी तरह से रोका जा सकता है.
लंदन की इंपीरियल काॅलेज के वैज्ञानिकों ने ऐसे जेनेटिकली मोडिफाइड बग्स विकसित किये हैं, जो मादा मच्छरों में अंडाणुओं को बनने की प्रक्रिया को खत्म कर देता है. वैज्ञानिकों ने इस तकनीक को ‘जीन ड्राइव’ नाम दिया है. इस तकनीक की मदद से मच्छरों की आबादी के ही सहारे धीरे-धीरे मलेरिया की समूची प्रजाति में फैल जायेगा और वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस तरीके से मलेरिया का धरती से उन्मूलन हो जायेगा.
99 फीसदी तक कारगर तकनीक
दुनिया के अनेक देशों में इस बीमारी के संक्रमण से सालाना 20 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं. इनमें से चार से पांच लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है. लेकिन, इस नयी ईजाद की गयी तकनीक से वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इसे प्रभावी तरीके से रोका जा सकता है. इंपीरियल काॅलेज के लाइफ साइंस विभाग के प्रोफेसर और इस शोध अध्ययन के सह-लेखक आंद्रे क्रिसेंटी के हवाले से ‘डेली मेल’ की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले करीब 100 सालों से मलेरिया को नियंत्रित करने पर जोर दिया जा रहा है.
उन्हें उम्मीद है कि यह तकनीक इसे नियंत्रित करने में सक्षम होगी, क्योंकि अगले कुछ सालों में यह तेजी से मच्छरों की आबादी को खत्म कर देगा. सामान्य रूप से प्रत्येक जीन संस्करण में मच्छरों की एक जेनरेशन को कम से कम 50 फीसदी तक कम करने की क्षमता होती है. लेकिन, इंपीरियल के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध परीक्षण में पाया गया कि बांझ बनानेवाले जीन को नर व मादा दोनों प्रकार के मच्छरों में 99 फीसदी तक ट्रांसमिट किया जा सकता है.
इसमें रिसेसीव जीन्स तकनीक का इस्तेमाल किया गया है, जिससे ज्यादातर मच्छर अपने पूर्वजों से जीन की महज एक काॅपी हासिल कर पायेंगे. इससे मच्छरों के बांझपन का दायरा बढ़ता जायेगा.
पहली बार मच्छरों की एनोफील्स गैंबी प्रजाति में इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया. वैज्ञानिकों ने तीन विभिन्न फर्टिलिटी जीन्स को टारगेट किया और जीन ड्राइव के जरिये मच्छरों को कैसे ज्यादा से ज्यादा प्रभावित किया जा सकता है, इसका परीक्षण किया.
इस रिसर्च टीम के एक अन्य सदस्य प्रोफेसर आॅस्टिन बर्ट का कहना है कि अन्य नयी तकनीकों की तरह हमें अभी इस दिशा में काफी काम करना होगा. सुरक्षात्मक उपायों को भी देखना होगा. मलेरिया की रोकथाम के लिए ज्यादातर मौजूदा उपायों के तौर पर मलेरिया के मच्छरों की संख्या को कीटनाशकों के जरिये कम किया जाता है या फिर मच्छरदानी का इस्तेमाल किया जाता है.
हालांकि, ये उपाय कारगर साबित हुए हैं, लेकिन इसमें ज्यादा लागत आती है और यह समग्रता से प्रभावी तरीके से लागू नहीं हो पाता. साथ ही मच्छरों में प्रतिरोधी क्षमता बढ़ने से कीटनाशक ज्यादा दिनों तक कारगर नहीं रह पायेंगे. वैज्ञानिकों का मानना है कि जेनेटिक तरीके से कम लागत में मच्छरों को नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे गरीब देशों को कम खर्च करना होगा.
जेनेटिक कोड के खास हिस्सों का डिजाइन
इस अध्ययन के मुख्य लेखक डाॅक्टर टोनी नाॅलन का कहना है कि दुनिया भर में मच्छरों की करीब 3,400 विभिन्न प्रजातियां हैं. इनमें एनोफील्स गैंबिया मलेरिया का सबसे बड़ा वाहक है, जो अफ्रीका में मच्छरों की 800 से ज्यादा प्रजातियों में पायी जाती है.
जीन ड्राइव के परीक्षण के लिए इंपीरियल की टीम ने पहले उन तीन जीन्स को पहचाना, जो मादा मच्छरों की प्रजनन क्षमता को प्रभावित करते हैं. खास प्रकार के सीआरआरएसपीआर/ सीएएस9 एंडोन्यूक्लियस जीन्स के साथ उसे माेडिफाइड किया, जो एक प्रकार का डीएनए कटिंग टूल्स है और इससे जेनेटिक कोड के खास हिस्सों को डिजाइन किया जाता है.
जब क्रोमोजोम्स इन माेडिफाइड जीन्स को कैरी करता है, तो इससे बननेवाला एंजाइम खास हिस्से को काट देता है. ऐसा होने पर म्यूटेड यानी उत्परिवर्तित मच्छर सामान्य मच्छरों में मलेरिया-रोधी जीन्स को 99 फीसदी तक प्रेषित करने में सफल होंगे, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता खत्म हो जायेगी. हालांकि, जीन उत्परिवर्तित मच्छरों के माध्यम से मच्छरों की सभी प्रजातियों की प्रजनन क्षमता को खत्म नहीं किया जा सकेगा, लेकिन वैज्ञानिक इस दिशा में प्रयासरत हैं.
क्या है मलेरिया
मलेरिया एक प्रकार के परजीवी प्लाजमोडियम से फैलनेवाला रोग है. इसका वाहक मादा एनाफिलीज मच्छर होता है. जब संक्रमित मादा एनाफिलीज मच्छर किसी इंसान को काटता है, तो संक्रमण फैलने से उसमें मलेरिया के लक्षण दिखाई देने लगते हैं. मलेरिया परजीवी खास रूप से लाल रक्त कणिकाओं को प्रभावित करता है. इससे शरीर में खून की कमी हो जाती है और मरीज कमजोर होता जाता है. यदि शुरुआत में ही ध्यान न दिया जाये, तो इससे लीवर भी प्रभावित हो सकता है और रोगी पीलिया जैसी गंभीर बीमारी की चपेट में आ सकता है.
म्यूटेंट मच्छरों से मिटेगा मलेरिया
दुनिया के इतिहास में कुछ ही हथियार उतने घातक रहे होंगे, जितने कि मलेरिया के वाहक मच्छर. मलेरिया धरती के पुराने और घातक बीमारियों में शुमार है. विशेषज्ञों का मानना है कि विशालकाय डायनासोर के इस धरती से लुप्त होने का कारण इस बीमारी का संक्रमण रहा होगा. मिस्र की प्राचीन सभ्यता के भी इस कारण से ही नष्ट होने का अंदेशा व्यक्त किया गया है, क्योंकि प्राचीन अवशेषों में इसके संकेत मिले हैं. ‘आइबीटाइम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेिरका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और जाॅर्ज वाॅशिंगटन भी मलेरिया परजीवी के संक्रमण से नहीं बच पाये थे. चंगेज खान की मौत मलेरिया के कारण ही हुई. ‘वाॅशिंगटन पोस्ट’ के मुताबिक, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एक वैज्ञानिक का मानना है कि पूर्व में धरती पर आधे से ज्यादा लोगों की मौत का जिम्मेवार मलेरिया बीमारी थी.
मौजूदा समय में इसके इलाज और उन्मूलन के तमाम प्रयासों के बावजूद हकीकत यह है कि सालाना करीब चार से पांच लाख लोगों की इस बीमारी से मौत हो जाती है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए पिछले काफी सालों से वैज्ञानिक नयी रणनीति पर काम कर रहे हैं. अब वे इनसानों का इलाज करने के बजाय मच्छरों का ही इलाज कर रहे हैं. यूनिवर्सिटी आॅफ कैलिफोर्निया के इरविन और सैन डिएगो स्थित कैंपस में शोधकर्ताओं ने हाल ही में म्यूटेंट बग्स यानी उत्परिवर्ती कीटों की ब्रीडिंग की है, जो दुनिया में मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करेंगे. इस तरीके से मलेरिया का उन्मूलन मुमकिन होगा.
नेशनल एकेडमी आॅफ साइंस में प्रस्तुत की गयी आरंभिक सफलता रिपोर्ट में यह दर्शाया गया है कि नये कीटों के डीएनए में व्यापक बदलाव किया गया है. मोलेकुलर बायोलाॅजिस्ट एंथोनी जेम्स ने यूनिवर्सिटी आॅफ कैलिफोर्निया के इरविन और सैन डिएगो में बायोलाॅजिस्ट इथान बेयर व वेलेंटिनो गैंज ने इस शोधकार्य को अंजाम दिया है. जेम्स की विशेषज्ञता इंजीनियरिंग की ‘बीमारी-रोधी’ मच्छरों की विधा में है. उन्हें उम्मीद है कि मच्छरों को मारे बिना वे दुनिया से इस बीमारी को खत्म कर सकते हैं. इसके लिए उन्होंने ऐसे जीन का विकास किया है, जो मलेरिया परजीवियों पर हमला करने के लिए मच्छरों के संबंधित एंटीबाॅडिज को प्रोत्साहित करता है. भारतीय मच्छरों की प्रजाति एनोफील्स स्टेफेंसी के अंडों का भी इस नये तरीके से परीक्षण किया गया है.
दरअसल, एनोफील्स स्टेफेंसी मच्छर की वह प्रजाति है, जो भारत समेत मध्य एशिया में मलेरिया का वाहक है. फिलहाल इन म्यूटेंट मच्छरों को अत्यंत सुरक्षित प्रयोगशाला में कई तालों के भीतर बंद करके रखा गया है. वैज्ञानिकों को अभी इस बात का अंदेशा है कि यदि इन्हें खुलेआम छोड़ दिया गया, तो उसका नतीजा क्या होगा, इस बारे में पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.
इसलिए इन म्यूटेंट मच्छरों का इस्तेमाल बेहद सावधानी से करना होगा. ‘एमआइटी’ के एक शोधकर्ता फेंग झांग ने ‘न्यूयाॅर्कर’ को दिये गये अपने एक साक्षात्कार में यह अंदेशा व्यक्त किया है कि एक बार इस रास्ते पर चलने के बाद वापस आना मुश्किल होगा. इसलिए फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है.
घातक मलेरिया परजीवियों का उद्गम अफ्रीका से
दुनिया के सबसे घातक मलेरिया परजीवी का उद्गम करीब तीन लाख वर्ष पहले अफ्रीका से हुआ माना जाता है. प्लाज्मोडियम विवाक्स नामक परजीवी इंसानों के लिए दूसरा सबसे खतरनाक मलेरिया परजीवी है, जिसका उद्गम स्थल एशिया माना जाता है. ब्राॅड इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक, अफ्रीका से बाहर मलेरिया के मामलों के लिए प्लाज्मोडियम विवाक्स सर्वाधिक जिम्मेवार है, जो सालाना करीब 10 करोड़ लोगों को अपनी चपेट में लेता है.
यूनिवर्सिटी आॅफ पेंसिल्वेनिया के शोधकर्ताओं ने पाया है कि मध्य अफ्रीका के जंगलों में बंदरों में इस परजीवी का व्यापक संक्रमण है, जहां से यह इनसानों तक पहुंचा है. हालांकि, यह शोध अब तक के ज्ञात तथ्यों से कुछ इतर है, क्योंकि काफी समय से यह माना जाता रहा है कि इसका संक्रमण एशिया से शुरू हुआ था.
शोधकर्ताओं ने इस कार्य के लिए अफ्रीका के जंगलों से 5,000 से ज्यादा बंदरों के फेसियल सैंपल हासिल किये. उन्होंने पाया कि चिंपैंजी और गोरिल्ला में प्लाज्मोडियम विवाक्स जैसे परजीवी मौजूद हैं. इस शोधकार्य को इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन रिपोर्ट में बंदरों और इनसानों के बीच परजीवियों के संबंधों का परीक्षण किया है.
उन्होंने पाया कि बंदरों और इनसानों में मौजूद परजीवी लगभग समान हैं, लेकिन इनसानों के मुकाबले बंदरों में ज्यादा प्रकार के परजीवी पाये जाते हैं. साथ ही गोरिल्ला और चिंपैंजी में पाये जानेवाले प्लाज्मोडियम विवाक्स जैसे परजीवी स्थानिक
किस्म के हैं.
वैज्ञानिकों के अध्ययन से प्राप्त इन तथ्यों से ही यह निष्कर्ष निकाला गया कि परजीवियों का उद्गम अफ्रीका से ही हुआ और यहीं से उनका विस्तार हुआ. इन नतीजों से वैज्ञानिकों को डीएनए सिक्वेंसिंग में मदद मिलेगी और इन परजीवियों को खत्म करने के नये तरीके ईजाद किये जा सकेंगे.
मलेरिया के 70 करोड़ मामलों की हुई रोकथाम
पिछले 15 वर्षों के दौरान यानी वर्ष 2000 से अफ्रीका में मलेरिया के 70 करोड़ मामलों की रोकथाम में कामयाबी मिली है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे मलेरिया के संक्रमण का खतरा 50 फीसदी तक कम हुआ है. यूनिवर्सिटी आॅफ आॅक्सफोर्ड की एक अध्ययन रिपोर्ट के हवाले से ‘नेचर’ पत्रिका में एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें बताया गया है कि सब-सहारा अफ्रीका में करीब 30,000 जगहों पर अध्ययन किया गया. इस दौरान पाया गया कि वर्ष 2000 से मलेरिया के संक्रमण के 663 मिलियन से ज्यादा मामलों को निबटाया गया है.
इस अध्ययन में पाया गया कि कीटनाशी मच्छरदानी समेत अन्य उपायों से करीब 68 फीसदी तक इसे रोकने में कामयाबी हासिल हुई है. इसकी रोकथाम में करीब 22 फीसदी हिस्सेदारी आर्टिमिसिनिन आधारित उपायों की और करीब 10 फीसदी हिस्सेदारी घरों में कीटनाशकों के इस्तेमाल जैसे उपायों से संबंधित है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2000 से मलेरिया से होनेवाली मौत की दर में 60 फीसदी तक की कमी आयी है.
पिछले 15 वर्षों के दौरान 60 लाख से ज्यादा लोगों को इस बीमारी से बचाया गया है. इतना ही नहीं, वर्ष 2014 में 13 देशों में मलेरिया का एक भी मामला सामने नहीं आया. रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में मलेरिया के मामलों का 80 फीसदी से ज्यादा अफ्रीका में सामने आ रहा है.
विवाद भी है जीन ड्राइव तकनीक पर
म च्छरों को जेनेटिकली मोडिफाइड करने के लिए इस्तेमाल में लायी जानेवाली जीन ड्राइव टेक्नोलाॅजी पर काफी विवाद भी हो चुका है. दरअसल, यह आनुवंशिक लक्षणों के प्रवर्धन की मंजूरी के माध्यम से काम करता है, जिस कारण यह कुछ ही प्रजातियों में कारगर साबित हो सकती है.
इस ड्राइव के लिए उत्तरदायी जीन्स ‘आर्टिफिशियल या सिंथेटिक सेल्फिश डीएनए’ सिस्टम के तौर पर दिखाई दे सकते हैं. कुछ विशेषज्ञों ने इस सिस्टम को इस कारण भी उपयोगी नहीं माना, क्योंकि यह सभी प्रजातियों पर प्रभावी नहीं होगा.
मच्छरों की आबादी पर रोक लगाने के मकसद से पहली बार वर्ष 1968 में जीन ड्राइव के इस्तेमाल का सुझाव दिया गया था, लेकिन उस वक्त इसकी तकनीक ज्यादा विकसित नहीं हुई थी.
लिहाजा, आगे काम नहीं हो सका. कुछ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मलेरिया से निबटने में यह सिस्टम पूरी तरह से सक्षम नहीं माना जा सकता है. कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी के संबंधित विशेषज्ञ और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डेविड बाल्टीमोर का कहना है कि यह कदम गैर-जिम्मेवार साबित हो सकता है.
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