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64 खानों की रोमांचक दुनिया

।। अभिषेक दुबे।। (खेल पत्रकार) विश्वनाथन आनंद नॉर्वे के मैग्नस कार्लसन से भले खिताबी भिड़ंत में हार गये हों, लेकिन इससे उनकी महानता पर फर्क नहीं पड़ता. हर दौर नयी परिस्थिति लेकर आता है. हर दौर के अपने मायने होते हैं, अलग चुनौतियां होती हैं, अलग मापदंड होते हैं. जाहिर तौर पर हर दौर में […]

।। अभिषेक दुबे।।

(खेल पत्रकार)

विश्वनाथन आनंद नॉर्वे के मैग्नस कार्लसन से भले खिताबी भिड़ंत में हार गये हों, लेकिन इससे उनकी महानता पर फर्क नहीं पड़ता. हर दौर नयी परिस्थिति लेकर आता है. हर दौर के अपने मायने होते हैं, अलग चुनौतियां होती हैं, अलग मापदंड होते हैं. जाहिर तौर पर हर दौर में अलग-अलग नायक अपनी पहचान बनाते हैं.

शतरंज के इतिहास में विश्वनाथन आनंद का नाम रूस की बादशाहत को समाप्त करनेवाले और भारत सहित तीसरी दुनिया में शतरंज को लोकप्रिय बनानेवाले चैंपियन के तौर पर लिया जायेगा.

आइए जानते हैं विभिन्न दौर के उन शतरंज खिलाड़ियों के बारे में जिन्होंने शतरंज के 64 खानों पर न सिर्फ राज किया, बल्कि शतरंज के खेल के विकास और विस्तार में भी अपना योगदान दिया. शतरंज की रोमांचक दुनिया में ले जाता आज का नॉलेज..

कौन है दुनिया में अब तक का सबसे तेज धावक? कौन है इतिहास का महानतम क्रिकेटर? कौन है अब तक का सबसे घातक हेवीवेट बॉक्सर? आप किसे मानते हैं सबसे खूबसूरत महिला? हर दौर नयी परिस्थिति लेकर आता है.

हर दौर के अपने मायने होते हैं, अलग चुनौतियां होती हैं, अलग मापदंड होते हैं. जाहिर तौर पर हर दौर में अलग-अलग नायक अपनी पहचान बनाते हैं और अलग-अलग दौर के नायकों की तुलना बेमानी है.

जिस वक्त विश्व क्रिकेट का शायद आज तक का सबसे बड़ा महानायक अपने घरेलू मैदान पर क्रिकेट को अलविदा कह रहा था, कमोबेश उसी वक्त चेन्नई में बीते छह वर्ष से 64 खानों का बादशाह अपने ताज को गंवाने की ओर था. सचिन तेंडुलकर ने क्रिकेट मैदान को अलविदा कह दिया और नॉर्वे के मैग्नस कालर्पसन ने विश्वनाथन आनंद को शतरंज के विश्व चैंपियन की कुर्सी बेदखल कर दिया. जैसे यह जानते हुए भी कि मौत, जिंदगी का सबसे बड़ा सच है, हम आखिरी वक्त तक जिंदगी से मोहब्बत करते रहते हैं, यह जानते हुए भी कि अलग-अलग दौर के नायकों की तुलना बेमानी है, हम ऐसा करने से खुद को रोक नहीं पाते. सवाल यह है कि शतरंज के बादशाहों में विश्वनाथन आनंद आखिर कहां खड़े होंगे?

शतरंज का असल बादशाह : कास्परोव

शह और मात के इस खेल में लगातार तकनीक में सुधार हुआ है और शतरंज के महानायकों के खेल में भी ऐसे में अलग-अलग दौर के चैंपियन की तुलना में ऐतिहासिक दबदबा और विरोधी की ताकत अहम है. खेल के दिग्गजों की मानें, तो अगर किसी शतरंज के खिलाड़ी का अपने दौर में सबसे अधिक दबदबा रहा है, तो वह रूस के गैरी कास्परोव हैं.

1985 में सिर्फ 22 वर्ष की उम्र में वे निर्विवाद चैंपियन बन गये. यह सिलसिला बदस्तूर 1993 तक जारी रहा, जब शतरंज को चलाने वाली संस्था फिडे से बाहर आकर उन्होंने अलग संस्था पीसीए का गठन किया. बावजूद इसके शतरंज के दीवाने और दिग्गज उन्हें निर्विवाद चैंपियन मानते रहे. वर्ष 2000 में क्रैमिनिक ने उन्हें वल्र्ड चैंपियनशिप में हराया, लेकिन 2005 में रिटायर होने तक वे अंतरराष्ट्रीय शतरंज रैंकिंग में पहले स्थान पर बने रहे. अहम है कि शतरंज के मेले को छोड़ते वक्त उन्होंने यह कहा कि उनके आगे कोई चुनौती नहीं बची हुई है.

जाते-जाते भी उनकी ईलो रेटिंग (शतरंज में खिलाड़ियों की रैंकिंग की पद्धति) रिकॉर्ड 2851 थी. चेस टीचर ब्रूस पॉडोल्फिनी की मानें तो कास्परोव के खेल में भले ही फिशर की तरह कलात्मकता या साफगोई न हो, लेकिन अपने दौर के हिसाब से इसमें अद्भुत व्यावहारिकता थी और उन्होंने चेस की थियरी के विकास में बहुमूल्य योगदान दिया. कास्परोव आज तक शतरंज के संभवत: सबसे बड़े नायक हैं.

धैर्य और अनुभव का मिश्रण : कार्पोव

कास्परोव के बाद रूस के ही अनातोली कार्पोव का नंबर आता है, जिन्होंने 64 खानों के इस खेल पर 1975 से 1985 के बीच निर्विवाद रूप से राज किया. जब उनके विरोधी कास्परोव चेस चलाने वाली संस्था फिडे से बाहर हो गये, तब भी कार्पोव 1993-99 तक फिडे चैंपियन रहे. कास्परोव की तरह कार्पोव ने भी राजनीति की ओर रुख किया, लेकिन कास्परोव के विपरीत कार्पोव अब भी पेशेवर चेस में सक्रिय हैं.

1974 में करछनोई और स्पास्की को मात देकर कार्पोव ने हर किसी को हैरान कर दिया और उनकी खिताबी टक्कर फिशर से हुई. विवादों के बीच फिशर ने ताज छोड़ने का फैसला किया और कार्पोव चैंपियन बने.

1984 में कार्पोव और कास्परोव के बीच मुकाबला चेस के दीवानों के बीच किंवदंती है. दोनों दिग्गजों के बीच रिकॉर्ड 48 मैच हुए, जिसमें 40 ड्रॉ रहे, पांच में कार्पोव की जीत हुई और तीन में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. अहम यह है की मुकाबले को इसलिए बंद करना पड़ा, क्योंकि इसका असर दोनों की सेहत पर पड़ रहा था और कार्पोव ने चार महीने में 10 किलोग्राम वजन खो दिया था. चेस टीचर के मुताबिक कार्पोव बहुत ही कम जोखिम लेते, न के बराबर गलतियां करते और विरोधी की छोटी से छोटी गलतियों का इंतजार करते.

शतरंज का हरफनमौला : बॉबी फिशर

किसी भी विधा में वे नायक खास होते हैं, जो अपनी पहचान हरफनमौला और बिंदास रवैये के लिए बनाते हैं. बॉक्सिंग में मोहम्मद अली और क्रिकेट में ऐसी ही शख्सीयत विवियन रिचर्डस रहे. अगर चेस में ऐसे किरदार की बात करें, तो वो अमेरिका के बॉबी फिशर हैं.

जबरदस्त रणनीतिकार, ओपनिंग की चुनिंदा विधाओं में ऐसी महारथ, जिसका जोड़ नहीं, जबरदस्त लड़ाका जो हर गेम को ड्रॉ नहीं, बल्कि जीत के लिए खेलते थे. फिशर जब 1972 में रूस के बोरिस स्पास्की को हरा कर विश्व चैंपियन बने, तब इसे अमेरिका और रूस के बीच शीतयुद्ध के विस्तार के तौर पर देखा गया था. 1975 में उन्होंने अपने खिताब को बचाने से इनकार कर दिया,

क्योंकि वे फिडे के नियमों से सहमत नहीं थे. फिशर इसके बाद 20 वर्ष तक बनवास के लिए चले गये. 1992 में जब 50 हजार डॉलर के लिए उन्होंने स्पास्की से मुकाबला किया, तो उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया गया. फिशर का अमेरिकी सरकार से हमेशा दुश्मनी का रिश्ता रहा, क्योंकि उन्होंने अमेरिका और यहूदी विरोधी बयान दिये. आखिरकार आइसलैंड ने उन्हें पनाह दी, जहां उन्होंने आखिरी सांस ली. चेस के बड़े जानकारों का मानना है कि अगर फिशर बनवास को नहीं गये होते, तो वे निस्संदेह अब तक चेस की दुनिया के सबसे बड़े राजा होते.

सरल खेल का जादूगर : कपाब्लांका

नायक सरल भी होते हैं, साधारण तकनीक का सहारा लेकर भी आगे बढ़ते हैं और स्वाभाविक खेल से भी असरदार साबित होते हैं. अगर टेनिस में रोजर फेडरर और क्रिकेट में राहुल द्रविड़ इसकी मिसाल हैं, तो चेस में क्यूबा के जोस कपाब्लांका ऐसी ही मिसाल हैं.

चेस मशीन के नाम से मशहूर कपाब्लांका विशुद्ध पोजिशनल खेल में माहिर रहे. चार वर्ष की छोटी उम्र से वे चेस के नियमों से रूबरू हुए और 18 साल में उन्होंने अमेरीकी चैंपियन फ्रैंक मार्शल को रौंद दिया. यह वह दौर था जब उन्होंने वर्ल्ड चैंपियन इमैनुएल लस्केर को चुनौती दी, लेकिन दोनों के बीच मुकाबले के नियमों को लेकर सहमति नहीं बन सकी.

आखिरकार वो सहमत हुए और कपाब्लांका ने लस्केर को हरा दिया. इसके बाद उन्होंने चेस मुकाबले के नियम बनाये, जिसे ‘लंदन रूल’ के नाम से जाना गया. कपाब्लांका ने एक बार 103 विरोधियों से मुकाबला किया, जिसमें उन्होंने 102 को हराया और एक मुकाबला ड्रॉ रहा.

हर नायक को एक दिन स्टेज को अलविदा कहना पड़ता है और नये नायक उनकी जगह लेते हैं. 1927 में एलेग्जेंडर अलकने से उनका मुकाबला हुआ. यह मुकाबला कपाब्लांका का वॉटरलू साबित हुआ. चेस के आज के महारथी भी कई ऐसे दांव का इस्तेमाल करते हैं, जो कपाब्लांका का ट्रेडमार्क माना जाता रहा है.

विनाशक थंडरस्टॉर्म : एलेक्जेंडर अलकेने

‘आउट ऑफ बॉक्स थिंकर और और चेस में वास्तविक सोच रखनेवाला, जो अचानक आक्रमण करता था- विनाशकारी थंडरस्टॉर्म की तरह, जैसे वह नीले आसमान से आया हो’. कास्परोव रूस के ही एलेक्जेंडर अलकेने को इन शब्दों मे बयान करते हैं.

वे कहते हैं कि अलकेने जब शिखर पर थे, तो उनको हराने के लिए एक मैच में तीन खिलाड़ियों को हराना पड़ता था. एक ओपनिंग में, एक बीच में और एक निर्णायक दौर में. रूस के इस खिलाड़ी की किस तरह से किसी मैच में पकड़ हुआ करती थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है.

1927 में छह जीत, तीन हार और 25 ड्रॉ के साथ जब वे कपाब्लांका को हराने में कामयाब हुए, तो पूरा चेस जगत जैसे हैरान रह गया. इस कड़े मुकाबले के बाद भी दोनों दिग्गजों के बीच कटुता बनी रही, लेकिन अलकेने ने यहां से पीछे मुड़ कर नहीं देखा. अलकेने का वर्चस्व आखिरकार दो मोर्चे पर जाकर रुका.

उन पर नाजी समर्थक होने का बेबुनियाद आरोप लगा और इसलिए विश्व युद्ध के दौरान कई टूर्नामेंट में वे नहीं बुलाये गये. दूसरे बेहिसाब शराब पीने का असर उनके खेल पर पड़ा और वो अपना ताज खो बैठे.

हार को जीत में बदलनेवाला : लस्केर

चेस नायकों की फेहरिस्त में इसके बाद इमैनुएल लस्केर और विश्वनाथन आनंद का नंबर आता है. लस्केर न सिर्फ एक जबरदस्त रणनीतिकार थे, बल्कि हारी बाजियों को जीत में बदलने में उस्ताद थे. वह विरोधी के मन को समझने में उस्ताद थे और इसके आधार पर विरोधी को मुश्किल में डालते थे.

1984 में जब उन्होंने स्टेनित्ज को हरा कर विश्व खिताब पर कब्जा किया, तो विरोधियों ने उन पर उम्रदराज योद्धा को हराने का आरोप लगाया. लेकिन इसके बाद उन्होंने साल दर साल अपने विरोधी को इतने बड़े फासले से हराया कि आलोचक शांत हो गये. 52 साल की उम्र मे कपाब्लांका से हारने के बाद वे जर्मनी छोड़ रूस के नागरिक बन गये. 66 साल की उम्र में जब मास्को में एक टूर्नामेंट में तीसरे नंबर पर आये, तो दिग्गजों ने इसे ‘बायोलॉजिकल मिरैकल’ बताया. कहते हैं कि लस्केर ने चेस में ऐसी चुनिंदा तकनीक दी, जिससे रूस का इस खेल में दबदबा बना.

ये दबदबा शीतयुद्ध के समय मैदान-ए-जंग का प्रतिबिंब रहा और भारत समेत प्रगतिशील देशों को इसने प्रभावित किया. कार्पोव-कास्परोव के बीच बादशाहत की लड़ाई इसका आकर्षण रही. जब इस घमसान मुकाबले के बाद बादल हटे, तो भारत में तमिलनाडु का एक दिग्गज चेस के आकाश का ध्रुवतारा बना.

शतरंज का इतिहास

शतरंज की उत्पत्ति के संबंध में कई तरह की विरोधी मान्यताएं हैं. इस बात के कोई पुख्ता सबूत नहीं हैं कि आधुनिक समय में शतरंज के रूप में जाना जाने वाला यह खेल छठी शताब्दी से पहले अस्तित्व में था.

इससे पहले रूस, चीन, भारत, मध्य एशिया, पाकिस्तान और जहां कहीं भी इस खेल की प्राचीन परंपरा मिली है, उन्हें बोर्ड गेम का रूप तो कहा जा सकता है, चेस नहीं. इनमें अकसर पासे और कभी-कभार 100 या उससे ज्यादा चौकोर वर्गो का इस्तेमाल किया जाता था.

बिसात पर खेले जानेवाले वार गेम्स में भारत के चतुरंग को चेस का सबसे नजदीकी खेल, उसका सबसे पुराना वंशज माना जाता है. महाभारत में भी इसका वर्णन है. चतुरंग के खेल का सातवीं शताब्दी में भारत के पश्चिमोत्तर इलाके में काफी प्रसार हुआ. आधुनिक शतरंज को इसी के विकसित रूप में जाना जाता है.

इस खेल में अपनाये जाने वाले अनेक तरीकों को मौजूदा शतरंज के खेल में अपनाया जाता है- जैसे विभिन्न पासों की ताकत का अलग-अलग होना और जीत का एक मोहरे-राजा पर निर्भर होना. चतुरंग का विकास कैसे हुआ यह अस्पष्ट है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चतुरंग शायद 64 घरों वाली बिसात पर खेला जाता था, जो धीरे-धीरे शतरंज (या चतरंग) के तौर पर बदल गया. इतिहासकारों का मानना है कि दो खिलाड़ियों द्वारा खेला जानेवाला यह खेल छठी शताब्दी के बाद उत्तर भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बाद में मध्य एशिया के दक्षिणी इलाकों में लोकप्रिय हुआ.

माना जाता है कि चतुरंग के खेल में कुछ सुधार करते हुए उसे ही शतरंज का रूप दिया गया है. धीरे-धीरे यह खेल पूरब, पश्चिम और उत्तर की तरफ फैलने लगा और इसमें कुछ विभिन्नताएं आयीं. बौद्ध धर्मावलंबी और सिल्क रोड से व्यापार करनेवाले इसे पूरब की ओर ले गये, जहां इसके स्वरूप में कुछ हद तक परिवर्तन किया गया.

750 ईसवी के आसपास यह चीन और ग्यारहवीं सदी में जापान और कोरिया पहुंचा. चतुरंग या शतरंज का एक प्रारूप पर्सिया के रास्ते यूरोप तक पहुंचा. दसवीं शताब्दी के आसपास मुसलिम समुदाय के लोग इसे उत्तरी अफ्रीका, सिसिली और स्पेन तक ले गये.

आनंद की अनूठी विरासत

विश्वनाथन आनंद नॉर्वे के मैग्नस कार्लसन से भले खिताबी भिड़ंत हार गये हों, लेकिन इससे उनकी महानता पर फर्क नहीं पड़ता. विश्वनाथन आनंद ने चेस के हुनर अपनी मां और पारिवारिक मित्र दीपा बालकृष्णा से सीखा था. आनंद को बचपन में एक बार माता-पिता के साथ फिलीपींस जाने का मौका मिला.

वहां दोपहर को टीवी पर चेस का एक कार्यक्रम आता था. आनंद ने अपनी मां के साथ मिल कर इस कार्यक्रम में इतने इनाम जीते कि आयोजकों ने कहा- ‘आप सारे इनाम ले लो, लेकिन अब एंट्री न भेजो.’ यह तो सिर्फ एक शुरुआत थी. आनंद ने सुपर रणनीतिकार के तौर पर अपनी पहचान बनायी. वे सेकेंड्स मे अचूक रणनीति के साथ आगे बढ़ते. आनंद के पास न सिर्फ जोरदार आक्रमण था, बल्कि मजबूत डिफेंस भी.

उन्होंने चेस में रूस की बादशाहत को खत्म कर न सिर्फ भारत को बल्कि प्रगतिशील देशों को भरोसा दिया कि वे खेल में तत्कालीन सुपरपावर को चुनौती दे सकते हैं. चेन्नई में आनंद काल्र्सन से हारे जरूर, लेकिन वे एक ऐसी विरासत छोड़ गये हैं, जिनपर आने वाली पीढ़ी को फख्र होगा.

आनंद की बादशाहत में एक मानवीय पुट भी रहा. चेसबोर्ड का यह जबरदस्त लड़ाका मैदान के बाहर एक मिलनसार इनसान था. तभी तो विश्व चैंपियन खिताब की तैयारी में उन्हें कार्पोव और कास्परोव दोनों का साथ मिलता. चेस की बादशाहत का इतिहास कटुता और आपसी रंजिश से भरा रहा है और विश्वनाथन आनंद ने इस दिशा में एक नयी मिसाल पेश की है.

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