रोबोट इंसानों के अनेक काम निबटा रहे हैं, पर इंसानों की तरह सोचने या बातचीत करने में सक्षम नहीं हो पाये हैं. हालांकि, वैज्ञानिक अब रोबोट को इंसान के दिमाग की तरह सोचने-समझने व बातचीत के काबिल बनाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़े हैं. इटली की एक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने कृत्रिम न्यूरॉन की मदद से ऐसा करने में कामयाबी हािसल की है़ इस कामयाबी के मायने और इससे संबंधित महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का नॉलेज…
-अजय कुमार राय
कि सी चैटबोट या रोबोट (ऐसा कंप्यूटरीकृत मशीन जिसे इंसानों से बातचीत करने के लिए बनाया गया हो) से संवाद करने का अनुभव ज्यादातर लोगों के लिए अच्छा नहीं रहा होगा. दरअसल, यह वार्तालाप इंसान को बहुत जल्द ही नीरस लगने लगता है.
व्यक्ति अपनी ओर से कितनी ही अच्छी या तार्किक बातें कहे, चैटबोट उन बातों के मर्म से दूर जाते हुए उन्हीं वाक्यों को दोहराने लगता है, जिसके लिए उसे प्रोग्राम्ड किया गया होता है. इसकी वजह है कि चैटबोट के पास इंसानों जैसी संज्ञानात्मक, सोचने-समझने और आसपास के वातावरण से सीखने की क्षमता नहीं होती. जाहिर है, लंबे समय से एक ऐसी तकनीक की जरूरत महसूस की जा रही थी, जो परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करते हुए इंसानों के साथ उनकी ही भाषा में सहज रूप से संवाद करने में सक्षम हो.
इटली के सस्सारी विश्वविद्यालय में एप्लाइड फिजिक्स के असिस्टेंट प्रोफेसर ब्रूनो गोलोसियो की अगुआई में शोधकर्ताओं की एक टीम ने कृत्रिम न्यूरॉन की मदद से बिलकुल ऐसी ही तकनीक का निर्माण किया है. इस तकनीक को उन्होंने आर्टिफिशियल न्यूरॉल नेटवर्क विद एडेप्टिव बिहेवियर एक्सपोलाइटेड फॉर लैंग्वेज लर्निंग (एएनएनएबीइएलएल) यानी अन्नाबेल नाम दिया है. इसे एक संज्ञानात्मक मॉडल भी कहा जा रहा है. माना जा रहा है कि आनेवाले दिनों में यह इंसानों और कंप्यूटर के बीच वार्तालाप को बेहतर बनाने में मददगार साबित होगा. इस शोध से यह भी जानने में आसानी होगी कि मनुष्य का मस्तिष्क कैसे चीजों को याद रखता है? कैसे उसकी भाषाई क्षमता में विकास होता रहता है? और कैसे वह अपने आसपास के वातावरण के साथ सामंजस्य बैठाते हुए अनुभव द्वारा गूढ़तम चीजों को आसानी से सीख लेता है?
लंबा है सफर
हालांकि विभिन्न देशों के शोधार्थी 1940 से ही एक नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग सॉफ्टवेयर के निर्माण का प्रयास कर रहे थे, जो किसी कंप्यूटर में स्थापित करने पर इंसानों की तरह बातचीत कर सके. लेकिन सैकड़ों भाषाविदों, कंप्यूटर विशेषज्ञों और संज्ञानात्मक वैज्ञानिकों के एकजुट प्रयास के बाद भी ऐसा कोई प्रोग्राम नहीं बनाया जा सका, जो कंप्यूटर को इंसानों की तरह बोलने लायक बना दे. विचारकों के एक अन्य समूह संपर्कवादी दृष्टिकोण वाले भी कुछ ऐसा ही प्रयास कर रहे थे और उन्हें इस दिशा में कुछ सफलता मिली. उन्होंने कंप्यूटर आधारित कृत्रिम न्यूरॉल नेटवर्क (एएनएन) नामक एक मॉडल बनाया, जिसमें इस तरह की क्षमता पायी गयी.
यानी भाषा के संबंध में यह ठीक उसी तरह का व्यवहार कर रहा था, जैसा कि मानव मस्तिष्क. पहला मॉडल संकेतिक संरचना वाला महज एक सॉफ्टवेयर था, जिसमें कंप्यूटर को विशेष नियमों का पालन करना होता था. जबकि एएनएन में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं थी.
नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग सॉफ्टवेयर की तुलना में एएनएन कुछ कमियों के बावजूद इंसानों जैसी बात करने में ज्यादा सक्षम था. एएनएन की सफलता से उत्साहित होकर गोलोसियो और उनकी टीम ने इस अन्नाबेल मॉडल के निर्माण का कार्य आरंभ किया. उन्होंने जब इस मॉडल को एक शक्तिशाली कंप्यूटर से जोड़ा, तो चौंकाने वाले परिणाम मिले. जिस प्रकार एक छोटा बच्चा अपने आसपास के माहौल से जुड़ते हुए अपनी भाषाई क्षमता का विकास करता है, ठीक उसी प्रकार अन्नाबेल मॉडल युक्त कंप्यूटर भी अपनी भाषा का विकास कर सकता है.
कैसे बना है अन्नाबेल मॉडल
मानव मस्तिष्क में करीब सौ बिलियन न्यूरॉन होते हैं, जो एक दूसरे से जुड़े होते हैं और विद्युत चुंबकीय प्रक्रिया के जरिये एक दूसरे को संकेत भेजते रहते हैं.
ये संकेत हर क्षण प्रवाहित होते रहते हैं, जिससे हमारा मस्तिष्क सक्रिय रहता है. हालांकि आज ऐसी तकनीक (एमआरआइ) आ गयी है, जिससे यह जाना जा सकता है कि किसी संज्ञानात्मक कार्य को करने के दौरान दिमाग का कौन सा हिस्सा ज्यादा सक्रिय रहता है. अन्नाबेल मॉडल को यूनिवर्सिटी आॅफ सस्सारी और यूनिवसिर्टी आॅफ प्लाइमाउथ, यूके के शोधार्थियों ने दो मिलियन कृत्रिम न्यूरॉन को आपस में जोड़ कर बनाया है. मानव मस्तिष्क में मौजूद प्राकृतिक न्यूरॉन प्रति सेकेंड लाखों रासायनिक क्रियाओं से गुजरते हैं. ठीक उसी तरह इस मॉडल में स्थित कृत्रिम न्यूरॉन भी संपर्क में आकर एक दूसरे को विद्युत संकेत भेजते रहते हैं.
मस्तिष्क और अन्नाबेल में समानता
मस्तिष्क की मेमोरी सामान्यत: अल्पकालीन और दीर्घकालीन श्रेणी में बंटी होती है. अल्पकालीन मेमोरी में मौजूद सूचनाओं को आसानी से याद किया और भूला जा सकता है. जबकि दीर्घकालीन मेमोरी बनने में लंबा वक्त लगता है और इसमें मौजूद सूचनाएं ज्यादा दिनों तक बरकरार रहती हैं.
कई शोधार्थी मानते हैं कि एक तीसरी मेमोरी भी होती है, जिसे वर्किंग मेमोरी कहा जाता है. उदाहरण के रूप में यदि हम किन्हीं बातों को बार-बार दोहराते हैं, तो वह याद हो जाती है और अल्पकालीन से होते हुए दीर्घकालीन मेमोरी में पहुंच जाती है. इसका अर्थ है कि हमारी वर्किंग मेमोरी सक्रिय है. गोलोसियो ने जो तकनीक बनायी है, वह वर्किंग मेमोरी पर आधारित है.
यही वजह है कि वक्त गुजरने के साथ-साथ जैसे-जैसे इससे वार्तालाप बढ़ता है, उसी अनुपात में यह मानव जैसी भाषा बोलने में माहिर होता जाता है. जैसे यदि आप किसी से पूछते हैं कि उसकी सबसे पसंदीदा फिल्म कौन सी है? तब जवाब देनेवाला फिल्म शब्द पर फोकस करता है और वह अपनी दीर्घकालीन मेमोरी से वर्किंग मेमोरी में सूचना प्राप्त करता है. यह उसी प्रकार है जैसे गूगल में सर्च करने के लिए हम कोई की-वर्ड टाइप करते हैं.
भाषा सीखने में दक्ष
आखिर अन्नाबेल में भाषा सीखने और इंसानों की तरह बोलने की क्षमता कहां से आती है? जबकि दूसरे सॉफ्टवयर की तरह अन्नाबेल तकनीक को पहले से किसी तरह की भाषा से लैस नहीं किया जाता है.
शोधार्थियों ने कहा है कि यह दो प्रणालियों के कारण संभव हुआ है, जो जैविक मस्तिष्क में भी होती हैं. हमारे जैविक मस्तिष्क में दो बेसिक तंत्र होते हैं- सिनेप्टिक प्लास्टिसिटी और न्यूरॉल गेटिंग. सिनेप्टिक प्लास्टिसिटी का अर्थ दो न्यूरॉन के सक्रिय अवस्था में होने पर उनकी आपस में जुड़ने की क्षमता से है. जब ये जुड़ते हैं, तो इनकी संज्ञानात्मक क्षमता काफी बढ़ जाती है. यह प्रणाली कोई नयी चीज सीखने और दीर्घकालीन मेमोरी के लिए जरूरी है.
न्यूरॉल गेटिंग प्रणाली मस्तिष्क में स्थित कुछ अन्य विशेष न्यूरॉन के गुणों पर निर्भर करती है. ये विशेष न्यूरॉन दूसरे न्यूरॉन से आ रही संकेतों को नियंत्रित करते हैं. यह स्विच की तरह आॅन या आॅफ हो सकते हैं. जब ये आॅन होते हैं, तो ये संकेतों को मस्तिष्क के एक हिस्से से दूसरे तक भेजते हैं, अन्यथा इसे रोक देते हैं. संकेतों का बाधारहित प्रवाह नयी भाषा सीखने के लिए जरूरी है. यह मॉडल भी मस्तिष्क की इसी प्रणाली के फॉलो करते हुए भाषा सीखता और बोलता है.
इसकी सत्यता को जांचने के लिए शोधार्थियों ने अन्नाबेल मॉडल युक्त कंप्यूटर से विभिन्न तरह की जानकारियां साझा की. जब उन्होंने कंप्यूटर से पूछा कि उसने क्या सीखा है, तो उसने लोगों से संबंधिक 82 फीसदी, शरीर के अंगों के संबंध में 85 फीसदी और जानवरों की श्रेणी के संबंध में 95 फीसदी उत्तर सही दिये. वार्तालाप के दौरान वह इंसानों जैसा व्यवहार कर रहा था. उसकी भाषा आसान और व्याकरण के अनुरूप थी. उसकी भाषाई क्षमता में भी सुधार दिखा. वह संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और दूसरे प्रकार के शब्दों को तेजी से सीख गया था. बाद में वह स्वयं ही बड़े वाक्य बनाने लगा.
शोधार्थियों का कहना है कि यह मॉडल भविष्य में मस्तिष्क के विभिन्न कार्यों को समझने में मददगार होगा. जैसे- इंसान का दिमाग भाषा कैसे सीखता है, यह संज्ञानात्मक कार्यों को कैसे पूरा करता है. मौखिक सूचनाएं कैसे भेजता है. दीर्घकालीन मेमोरी में सचूनाओं को कैसे स्टोर व प्राप्त करता है. महत्वपूर्ण बातों पर फोकस व संवाद को कैसे आगे बढ़ाता है और मस्तिष्क में न्यूरॉन किस तरह की भूमिका अदा करते हैं.
शोधार्थियों की इस तकनीक को रोबोट में भी स्थापित करने की योजना है. आनेवाले दिनों में हमें अपने आसपास ऐसे रोबोट देखने को मिल सकते हैं, जो सिर्फ इंसानों की तरह बातें करते नजर आयेंगे. हमें उनसे वार्तालाप करने में मजा भी आयेगा.
कंप्यूटर से अलग है इंसानी मस्तिष्क
अकसर हम यह सुनते हैं कि हमारा दिमाग कंप्यूटर की तरह काम करता है. कई शोधार्थियों ने 1960 के दशक में ऐसे मॉडल पेश भी किये, जिसमें बताया गया मस्तिष्क की संरचना कंप्यूटर की संरचना की तरह है.
उन्होंने कहा था कि जिस तरह कंप्यूटर की मेमोरी में सैकड़ों इलेक्ट्रिकल सर्किट जुड़े होते हैं और विद्युत संकेतों को प्रवाहित करते रहते हैं, कुछ उसी तरह मानव मस्तिष्क में भी न्यूरॉन एक दूसरे से जुड़े होते हैं और संदेश प्रवाहित करते रहते हैं. लेकिन अब यह साफ हो गया है कि दोनों में न सिर्फ संरचनात्मक, बल्कि अन्य फर्क भी हैं. जैसे सीखने और सूचना ग्रहण करने की प्रणाली अलग है.
कंप्यूटर इंसानों द्वारा तैयार प्रोग्राम के तहत काम करता है. वह वही काम कर सकता है, जिसके लिए उसे प्रोग्राम किया गया है. वह परिस्थितियों के अनुसार अपनी सूझबूझ से कोई फैसला नहीं ले सकता. जबकि इस तरह के प्री-लोडेड प्रोगाम हमारे मस्तिष्क में नहीं होते. हमारा दिमाग अनूठा है. इसमें संज्ञानात्मक क्षमता होती है. यह अनुभव से व आसपास के माहौल से ज्ञान हासिल करता रहता है. गूढ़तम चीजों को भी आरंभ से सीख सकता है. अन्नाबेल मॉडल इसी दृष्टिकोण पर आधारित है.
क्या है न्यूरॉन
न्यूरॉन (तंत्रिका कोशिका) हमारे शरीर में मौजूद तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम में स्थित एक सक्रिय कोशिका है. विज्ञान की भाषा में कहें, तो यह एक विद्युत कोशिका है, जो विद्युतचुंबकीय प्रक्रिया से शरीर के विभिन्न हिस्से से मस्तिष्क में संदेश प्रवाहित करते हैं. न्यूरॉन एक दूसरे से अलग होते हैं और न्यूरोट्रांसमीटर नाम के रासायनिक संकेतों के जरिये एक-दूसरे से संपर्क करते हैं.
ये यदि न रहें तो हमारा शरीर हमारे आसपास क्या कुछ घट रहा है, उसका संज्ञान नहीं ले पायेगा. न्यूरॉन नर्वस सिस्टम के प्रमुख भाग होते हैं, जिसमें मस्तिष्क, स्पाइनल कॉर्ड और पेरीफेरल गैंगिला होते हैं. कई तरह के विशेष न्यूरॉन भी होते हैं, जिसमें सेंसरी न्यूरॉन, इंटरन्यूरॉन और मोटर न्यूरॉन होते हैं. किसी चीज को छूने, ध्वनि या प्रकाश के दौरान ये न्यूरॉन ही प्रतिक्रिया करते हैं और यह अपने सिगनल स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क को भेजते हैं. मोटर न्यूरॉन मस्तिष्क और स्पाइनल कॉर्ड से सिगनल ग्रहण करते हैं.
मांसपेशियों की सिकुड़न और ग्रंथियां इससे प्रभावित होती है. न्यूरॉन का मुख्य हिस्सा सोमा होता है. न्यूरॉन को उसकी संरचना के आधार पर भी विभाजित किया जाता है. यह यूनीपोलर, बाइपोलर और मल्टीपोलर होते हैं. न्यूरॉन में कोशिकीय विभाजन नहीं होता, जिससे इसके नष्ट होने पर दोबारा प्राप्त नहीं किया जा सकता. ज्यादातर मामलों में इसे स्टेम सेल के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है. हालांकि, वैज्ञानिकों को कृत्रिम न्यूरॉन बनाने में सफलता मिल गयी है.
न्यूरॉन शब्द का पहली बार प्रयोग जर्मन एनाटॉमिस्ट हेनरिक विलहेल्म वॉल्डेयर ने किया था. 20वीं शताब्दी में पहली बार न्यूरॉन प्रकाश में आयी, जब सेंटिगयो रेमन केजल ने कहा कि यह तंत्रिका तंत्र की प्राथमिक फंक्शनल यूनिट होती है. केजल ने प्रस्ताव दिया था कि न्यूरॉन अलग कोशिकाएं होती हैं, जो विशेष नेटवर्क द्वारा एक दूसरे से संवाद करती हैं. न्यूरॉन की संरचना का अध्ययन करने के लिए केजल ने कैमिलो गोल्गी द्वारा बनाये गये सिल्वर स्टेनिंग सिद्धांत का प्रयोग किया. दिमाग में न्यूरॉन की संख्या प्रजातियों के आधार पर अलग होती है.
एक आकलन के मुताबिक, मानव मस्तिष्क में 100 बिलियन न्यूरॉन होते हैं. ये सभी एक दूसरे से जुडेÞ होते हैं. दिमाग के उम्रदराज होने पर न्यूरॉन को जोड़नेवाली संरचना का आकार तनावपूर्ण स्थिति में काफी बढ़ जाता है. न्यूरॉन का विकृत होने से अल्जाइमर्स और पार्किंसन जैसी बीमारियां होती हैं.
लैब में भी बनने लगे न्यूरॉन
वैसे न्यूरॉन प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में मौजूद हैं, लेकिन अब इसे वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रूप से बनाने में भी सफलता हासिल की है.
गत दिनों स्वीडिश मेडिकल नैनोसाइंस सेंटर के वैज्ञानिकों ने लिंकोपिंग यूनिवर्सिटी के सहयोगियों के साथ एक ऐसा आॅर्गेनिक बायोइलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाया, जो रासायनिक संकेतों को ग्रहण करने और उन्हें मानव कोशिकाओं के साथ साझा करने में सक्षम था. यह कृत्रिम न्यूरॉन हूबहू मानव तंत्रिका कोशिकाओं की तरह काम करने में सक्षम है और न्यूरॉन्स की तरह ही संदेशों का आदान-प्रदान कर सकता है.