।। डॉ रहीस सिंह ।।
(विदेश मामलों के जानकार)
भारत सहित दो अन्य देशों के शासनाध्यक्षों के कॉमनवेल्थ हेड्स ऑफ गवर्नमेंट मीटिंग यानी चोगम में भाग न लेने के निर्णय के कारण राष्ट्रमंडल/राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस) पर, सामान्य ही सही पर एक बहस फिर शुरू हो गयी है. वैसे यह प्रश्न तो राष्ट्रमंडल से जुड़े किसी भी राजनीतिक या सांस्कृतिक अथवा खेल जैसे आयोजनों के साथ उठने लगता है कि आखिर औपनिवेशिक इतिहास की याद दिलानेवाले इस संगठन की अब प्रासंगिकता क्या है? आखिर भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था से मुक्त होने के पश्चात भी इसमें क्यों शामिल हुआ? क्या इससे भारत की संप्रभुता आच्छादित होती है? क्या अब भारत को इसकी सदस्यता त्याग देनी चाहिए?
राष्ट्रकुल या राष्ट्रमंडल (कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस) में सामान्यतया वे राष्ट्र शामिल हैं, जो ब्रिटिश उपनिवेश रहे हैं. छह महाद्वीपों एवं महासागरों में फैले 53 देशों का यह संगठन विश्व की सवा दो अरब आबादी को समेटे हुए है. मौजूदा वैश्विक गतिविधियों के लिहाज से यह बेहद महत्वपूर्ण है. सामान्यतया इस संगठन का प्रमुख उद्देश्य लोकतंत्र, साक्षरता, मानवाधिकार, बेहतर प्रशासन, मुक्त व्यापार और विश्व शांति को बढ़ावा देना है. यही कारण है कि जिन देशों ने मानवाधिकार का उल्लंघन किया या फिर लोकतंत्र को समाप्त करने की कोशिश की, उन्हें इस संगठन द्वारा समय-समय पर दंड स्वरूप प्रतिबंधित या निलंबित भी किया गया. उदाहरण के तौर पर जिम्बाब्वे, फिजी, नाइजीरिया और पाकिस्तान को लिया जा सकता है. लेकिन इसकी उत्पत्ति के पीछे ब्रिटिश शासकों की जो मंशा रही थी, शायद उसी मंशा के कारण यह संगठन कुछ मुद्दों पर बेहद लचर रहा या फिर उतनी प्रगति नहीं कर सका, जितनी कि अन्य क्षेत्रीय संगठन कर गये.
कॉमनवेल्थ का जन्म
ब्रिटिश शासकों की मंशा को जानने के लिए कुछ पीछे जाकर इतिहास के पन्नों को पलटने की भी जरूरत होगी. दरअसल, लिटन के गवर्नर रहने के समय ब्रिटिश महारानी के सम्मान में जब दरबार का आयोजन किया गया, वहीं से इसके बीज तत्वों के पनपने की शुरुआत मानी जा सकती है. यह परंपरा जारी रही, लेकिन इसके साथ ही ब्रिटिश साम्राज्य को अपने उपनिवेशों के साथ व्यापार, शिक्षा, संस्कृति और राजनीति को कायम रखने कि लिए ऐसे इन उपनिवेशों के संघ की जरूरत महूसस हुई. परिणामस्वरूप, 1926 में लंदन में एक कांफ्रेंस बुलायी गयी, जिसमें बालफोर द्वारा एक मसौदा प्रस्तुत किया गया. इसे कुछ संशोधन के साथ दिसंबर, 1931 में ब्रिटिश संसद ने मान्यता दे दी. इस तरह से ब्रिटिश कॉमनवेल्थ का जन्म हो गया. दूसरे विश्वयुद्ध के समय ब्रिटेन की हालात बिगड़ी. नतीजन, एशिया और अफ्रीका के तमाम ब्रिटिश उपनिवेशों को स्वतंत्र होने का अवसर प्राप्त हो गया. लेकिन दुनिया के इस बदलते परिवेश में भी ब्रिटेन अपना वर्चस्व को कायम रखना चाहता था. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने स्वतंत्र राष्ट्रों का एक सांगठनिक स्वरूप स्थापित करना चाहा, ताकि प्रतीकात्मक रूप से ही सही, लेकिन ब्रिटेन अपना ऐतिहासिक अस्तित्व बनाये रखे. कुछ हद तक ऐसा हुआ भी.
जलवायु और लोकतंत्र तथा कुछ हद तक मानवाधिकार के मुद्दे को छोड़ कर शेष क्षेत्रों में यह संगठन काफी हद तक सफल रहा है. कुछ हद तक यह अपने सदस्य देशों और खासकर कम विकसित देशों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में गुणात्मक सुधार लाने में सहयोग देनेवाला एक महत्वपूर्ण संगठन भी साबित हुआ है. आज यह अवधारणा वैश्विक स्तर पर है कि पोषणीय विकास के बिना भविष्य सुरक्षित नहीं है और पोषणीय विकास की पहली जरूरत है पर्यावरण की सुरक्षा. इसने स्वीकार किया है कि इस परिप्रेक्ष्य में अंतरराष्ट्रीय रूप से कानूनी प्रतिबद्धतापूर्ण समझौता अस्तित्व में आना चाहिए. यह वित्तीय संसाधनों के लिए प्रावधान हेतु यथाशीघ्र पहल करने की जरूरत पर भी बल देता है. यह एक ग्रैंड एग्रीमेंट से बंधा है, जो 10 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष की दर से संसाधनों को उपलब्ध कराता है. इसके साथ ही कुछ अन्य प्रावधान भी हैं, जो स्मॉल आइलैंड नेशंस तथा संबद्ध एओएसआइएस निम्न स्तरीय राज्यों को कोष मुहैया कराते हैं.
भारतीय प्रधानमंत्री की दूरी
इस लिहाज से कॅमनवेल्थ नयी विश्व व्यवस्था में एक बेहतर भूमिका निभा सकता है. अब इस स्थिति में श्रीलंका चोगम में भारत के प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति को किस दृष्टि से देखता है? वर्ष 2009 में श्रीलंका की सेना द्वारा लिट्टे के खात्मे के दौरान तमिलों के प्रति किये गये व्यवहार में मानवाधिकारों के उल्लंघन को देखते हुए कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर और मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम की तर्ज पर भारत के प्रधानमंत्री ने भी सम्मेलन में जाने से इनकार कर दिया. लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री के इस फैसले को इस आधार पर सही नहीं माना जा सकता कि चोगम उन देशों का समूह है, जो एक जमाने में ब्रिटेन के उपनिवेश थे. इस तरह के सम्मेलन का आज की दुनिया में कोई बहुत ज्यादा महत्व नहीं है, क्योंकि ब्रिटेन अब पहले की तरह शक्तिशाली नहीं रहा. और इसके नतीजे बहुत ही सीमित होते हैं, क्योंकि यह स्थिति किसी एक दिन में तो प्राप्त नहीं हो गयी होगी. फिर अब तक सम्मेलनों में भारत क्यों शामिल होता रहा?
दरअसल, यह तमिल क्षेत्रीय राजनीतिक का प्रभाव है, जिसे देखते हुए राष्ट्रनीति पर वोटनीति भारी पड़ गयी. उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु के अधिकतर राजनीतिक दलों ने भारत सरकार को चेतावनी दी थी कि वह श्रीलंका में हो रहे 23वें चोगम से दूर रहे. इसके बाद कांग्रेस ने भी यही निर्णय ले लिया. लेकिन क्या बहिष्कार का निर्णय उचित एवं सर्वश्रेष्ठ है? यदि हां, तो पाकिस्तान के साथ इसी प्रकार का कूटनीतिक व्यवहार क्यों नहीं किया जाता?
फिलहाल आधी सदी से भी पहले राष्ट्रकुल के गठन के बाद से हालत बहुत बदल चुके हैं. तमाम देशों के प्रतिरोध के बावजूद वैश्विक मामलों में अमेरिकी दादागिरी कायम है और ब्रिटेन की भूमिका एक तरह से उसके पूरक की हो गयी है. ऐसे में भारत सबसे सबल और स्थायी लोकतंत्र के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी निर्णायक भूमिका निभा कर राष्ट्रकुल के अनेक देशों के लिए प्रेरणास्नेत बन सकता है. बहरहाल, राष्ट्रकुल को अब औपनिवेशिक मनोदशा से मुक्त करा कर नयी जरूरतों के अनुरूप ढाल कर नया चेहरा देने की जरूरत होगी. लेकिन क्या ऐसा संभव हो पायेगा, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा.
भारत के संदर्भ में राष्ट्रमंडल की प्रासंगिकता
28 अप्रैल, 1949 को भारत को राष्ट्रकुल का स्थायी सदस्य बनाया गया. इसी के साथ आधुनिक कॉमनवेल्थ अस्तित्व में आया. लंदन घोषणापत्र द्वारा इसका प्रारूप निर्धारित हुआ और यह निर्णय भी लिया गया कि उन देशों को भी इसमें शामिल कर लिया जाये, जो ब्रिटिश उपनिवेश नहीं रहे थे. इसी कारण से इसका नाम ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से बदल कर कॉमनवेल्थ और नेशंस किया गया. जहां तक भारत का सवाल है, तो जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल सहित कई नेता भविष्य में राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी को लाभ की दृष्टि से देखते थे, बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाये. फिर संशय बरकरार रहा और संविधान सभा में हो रही बहसों में इस विषय को नेहरू को स्पष्ट करना पड़ा. सनद रहे कि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के पारित होने तक भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और 15 अगस्त, 1947 से 26 जनवरी, 1950 तक इसकी राजनीतिक स्थिति ब्रिटिश राष्ट्रकुल जैसी रही. लेकिन 26 जनवरी, 1950 को स्वयं को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न गणराज्य घोषित कर देने के बाद भारत इस औपचारिक दायरे से भी मुक्त हो गया.
इसलिए संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने अपनी शंकाओं को जब प्रकट किया, तो उनके मन में व्याप्त शंकाओं को दूर करने के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने (1949) स्पष्ट किया था कि हमने काफी पहले पूर्ण स्वराज प्राप्त करने की प्रतिज्ञा ली थी, हमने इसे प्राप्त भी किया है. क्या कोई राष्ट्र दूसरे देश के साथ किसी गठबंधन में शामिल होने से अपनी स्वतंत्रता खो सकता है. गठबंधन का सामान्य मतलब वायदे से है. संप्रभुता, राष्ट्रकुल से स्वतंत्र जुड़ाव इस तरह के वचनों (संप्रभुता या स्वतंत्रता के खोने जैसे) के तहत नहीं हो सकता, इसकी मजबूती इसमें व्याप्त लोचशीलता एवं स्वतंत्रता में निहित है. इसलिए यह सर्वविदित है कि कोई भी सदस्य राष्ट्र अपनी इच्छानुसार राष्ट्रकुल छोड़ सकता है. नेहरू ने इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा था कि यह एक स्वतंत्र इच्छाशक्ति वाला समझौता है, जिसे इसी रूप में छोड़ा जा सकता है. यानी राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) में शामिल होने से भारत की संप्रभुता पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और न ही उसकी स्वतंत्र वैदेशिक नीति प्रभावित हुई, बल्कि 53 से भी अधिक देशों का एक भरा-पूरा राष्ट्रसमुदाय/ राष्ट्रकुल है, जिसके साथ बेहतर सामंजस्य स्थापित कर भारत नयी विश्वव्यवस्था में नये आयामों का निर्माण कर सकता है. हालांकि, यह उसकी वैदेशिक नीति के दृष्टिकोण और उसकी दक्षता पर निर्भर करेगा.